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सत्ता में बने रहने के लिए राजनैतिक हत्याएं करवाईं पुतिन ने

Vivek Umrao

by Umrao Vivek Samajik Yayavar
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कामसेंस होना चाहिए, विचारशीलता का ढोंग नहीं होना चाहिए, वैचारिक-छिछोरपन तो नहीं ही होना चाहिए, लंपटई नहीं होनी चाहिए। लेकिन खोखला अहंकार व मूर्खता, दृष्टि नहीं होने को स्वीकारने नहीं देता है

दरअसल हममें से बहुत लोग पान की गुमटी टाइप्स या मुहल्ले के लंपट लौंडों टाइप्स वाली मानसिकता से दुनिया को देखते हैं। कुछ तो इतने फन्नेखां होते हैं कि उनको दुनिया के समाज के ककहरे तक की समझ भी नहीं होती है लेकिन भरपूर ज्ञान बाटते रहते हैं।

जिसे भी अंतर्राष्ट्रीय मामलों की थोड़ी सी भी गंभीर ऑब्जेक्टिव समझ है, उसे कम से कम इतना कामनसेंस तो है ही कि जो गंभीर गलतियां पुतिन के संदर्भ में की गईं थीं, वैसी गलतियां नहीं दोहराई जाएगीं। लेकिन लंपटई से ऊपर उठकर सोचने विचारने की कुब्बत हो, तब तो विश्लेषण हो पाएगा।

पुतिन ने सत्ता में बने रहने व सत्ता को नियंत्रण स्थापित किए रहने के लिए बहुत सारी राजनैतिक हत्याएं करवाईं या लोगों को रूस छोड़ने के लिए विवश किया। (इस तरह का चरित्र परिपक्व लोकतंत्र देशों में नहीं होता है)। रूस में तो पता ही नहीं कि कौन सा तंत्र है, लोकतंत्र है नहीं, कम्युनिज्म है नहीं, सोशलिज्म है नहीं। पुतिन-तंत्र कहा जा सकता है।

पुतिन ने चेचन्या को नियंत्रित करने के लिए फरेब रचा। जार्जिया को नियंत्रित करने के लिए फरेब रचा। कजाखस्तान को नियंत्रित करने के लिए फरेब रचा। लगभग 8—10 साल पहले यूक्रेन के कुछ हिस्सों को कब्जा करके रूस में मिला ही लिया था। पुतिन तो इन देशों को देश ही नहीं मानता है, रूस का हिस्सा मानता है।

इन सब फरेबों की व हिंसा की व दूसरे देशों पर कब्जा करने की पुतिन की हरकतों को नजरअंदाज किया गया, लगातार किया गया। इसी का नतीजा रहा कि पुतिन के इतने भाव बढ़ गए कि पूरे यूक्रेन को ही नेस्तनाबूत करने में जुट गया।

कहां पुतिन पांच दिनों में यूक्रेन पर कब्जा करने जा रहे थे, कहां 5 महीने से अधिक हो गए हैं लेकिन जिन इलाकों में दस सालों से खुराफात करते आए हैं, उन्हीं इलाकों में अपना अधिकार कर पाने की स्थिति में आ रहे हैं (यह भी पक्का नहीं है)। रूस के अंदर भले ही शेखी बघारें, लेकिन पुतिन यूक्रेन से हार चुके हैं। एक छोटे से देश ने पुतिन के भूसा भर रखा है।

जैसे पुतिन इन देशों को देश नहीं मानता है वैसे ही चीन ताइवान को अपना हिस्सा मानता है, जबकि ताइवान कई दशकों से स्वतंत्र देश की तरह है। इधर लंबे समय से चीन चोरी छिपे रूस से खूब तकनीकी सहयोग प्राप्त करता आया है। दोनों देशों ने मिली भगत करके षणयंत्र रचे ताकि देशों को कब्जाया जा सके।

जो गंभीर गलतियां पुतिन के संदर्भ में हुईं, वे गलतियां चीन के संदर्भ में नहीं की जाएंगी। चीन की गीदड़ भभकियों को वजन देने का मतलब यह है कि चीन द्वारा ताइवान पर कब्जा करने को सहमति दी जा रही है। ऐसा करने का सवाल ही नहीं पैदा होता है, यही कारण है कि चीन कैसी भी गीदड़ भभकी देता, हाउस आफ रिप्रजेंटेटिव्स की स्पीकर को ताइवान जाना ही था।

गंभीर व ऑब्जेक्टिव विश्लेषण लंपटई व टपोरीपन से संभव नहीं हो पाता है। वास्तव में समझ रखनी पड़ती है। लंपटई व फूहड़ता से ऊपर उठकर और फर्जी अहंकार से बाहर आकर ही जानने समझने सीखने की चेष्टा की जा सकती है।

जो लोग अपनी अकल को घुटने से भी नीचे रखते हैं, उनको यह बताना चाहता हूं कि जो जैसा है उसको वैसा देखना विश्लेषण करना होता है। मैं न तो अमेरिका का समर्थक हूं न ही चीन का विरोधी। मेरा सिर्फ इतना कहना है कि चीन एक धूर्त साम्राज्यवादी देश है, अमेरिका चीन की तुलना में कम धूर्त है, चीन साम्यवादी या समाजवादी देश नहीं है। जितनी ताकत अमेरिका के पास है उसकी चौथाई भी यदि चीन के पास हो जाए तो दुनिया पर चीन द्वारा किए गए कहर की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।

लेकिन इन सब बातों को समझने की दृष्टि होने के लिए वास्तव में दुनिया के विभिन्न समाजों की वास्तविक समझ होना जरूरी होता है। बकैती से समझ नहीं बढ़ती है। न ही लंपट लौंडों की तरह वाहियात कुतर्क से समझ बढ़ती है। वैचारिक-लफंगई से भी बाहर आना होता है।
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