Home विषयजाति धर्म वाल्मीकि रामायण अयोध्या कांड भाग 24
कैकेयी के कठोर वचन सुनकर भी श्रीराम व्यथित नहीं हुए। उन्होंने कहा, “बहुत अच्छा! मैं महाराज की प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए आज ही वन को चला जाऊँगा। मेरे मन में केवल इतना ही दुःख है कि भरत के राज्याभिषेक की बात स्वयं महाराज ने मुझसे नहीं कही। मैं तो तुम्हारे कहने से भी अपने भाई भरत के लिए इस राज्य को छोड़ सकता हूँ, तो क्या उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए मैं ऐसा न करता? महाराज की आज्ञा से आज ही दूतों को शीघ्रगामी घोड़ों पर सवार होकर भरत को मामा के यहाँ से बुलाने के लिए भेज दिया जाए। महाराज अपनी दृष्टि नीचे करके धीरे-धीरे आँसू क्यों बहा रहे हैं? तुम मेरी ओर से इन्हें आश्वासन दो कि मैं बिना कोई विचार किये आज ही चौदह वर्षों के लिए दण्डकारण्य को जा रहा हूँ।”
श्रीराम की बात सुनकर कैकेयी को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसे विश्वास हो गया कि अब ये अवश्य वन में चले जाएँगे। अब वह उन्हें जल्दी जाने के लिए मनाने लगी। उसने कहा, “तुम ठीक कहते हो, राम। भरत को बुलवाने के लिए शीघ्र ही दूत भेजे जाने चाहिए। ऐसा लगता है कि तुम स्वयं ही वन में शीघ्र जाने को उत्सुक हो। अतः अब विलम्ब न करो। जितना शीघ्र संभव हो सके, तुम्हें वन को चले जाना चाहिए। जब तक तुम इस नगर से नहीं चले जाते, तब तक तुम्हारे पिता स्नान अथवा भोजन नहीं करेंगे। अतः तुम शीघ्र चले जाओ।”
यह सुनकर शोक में डूबे हुए दशरथ जी लंबी साँस खींचकर बोले, “हाय! धिक्कार है!” और पुनः मूर्छित होकर पलंग पर गिर पड़े।
तब श्रीराम ने कहा, “कैकेयी! मैं तुम्हारी प्रत्येक आज्ञा का पालन कर सकता हूँ, किंतु फिर भी तुमने मुझसे स्वयं न कहकर इस कार्य के लिए महाराज को कष्ट दिया। ऐसा प्रतीत होता है कि तुम्हें मुझमें कोई गुण दिखाई नहीं देते हैं।”
“अच्छा! अब मैं माता कौसल्या से आज्ञा ले लूँ और सीता को समझा-बुझा लूँ, उसके बाद मैं आज ही उस विशाल दंडकारण्य की ओर चला जाऊँगा। तुम ऐसा प्रयत्न करना कि भरत निष्ठापूर्वक इस राज्य का पालन और पिताजी की सेवा करते रहें क्योंकि यही सनातन धर्म है।”
यह सुनकर दशरथ जी को बड़ा दुःख हुआ। वे शोक के कारण कुछ न बोल सके, किन्तु फूट-फूटकर रोने लगे। श्रीराम ने उन दोनों को प्रणाम किया और वे अन्तःपुर से बाहर निकल गए।
उनके निकलते ही अन्तःपुर की स्त्रियों का आर्तनाद सुनाई दिया। वे सब कह रही थीं कि “हाय! माता कौसल्या के समान ही हमसे भी माताओं जैसा व्यवहार करने वाले हमारे श्रीराम आज वन को चले जाएँगे। जो कठोर बात कहने पर भी कभी क्रोध नहीं करते थे और न स्वयं कभी किसी को कष्ट देने वाली कोई बात कहते थे, वे अब राजपाट त्यागकर वन में चौदह वर्षों तक स्वयं कष्ट उठाएँगे। बड़े खेद की बात है कि महाराज की मति मारी गई है, तभी तो वे हम सबके आधार श्रीराम का त्याग कर रहे हैं।”
वह भीषण आर्तनाद सुनकर महाराज दशरथ ने शोक व लज्जा के कारण स्वयं को बिछौने में ही छिपा लिया।
महल से बाहर निकलकर श्रीराम ने अपने ऊपर छत्र लगाने की मनाही कर दी और चँवर डुलाने वालों को भी रोक दिया। उन्होंने अपना रथ भी लौटा दिया और अपने दुःख को मन ही मन दबाकर वे यह अप्रिय समाचार सुनाने माता कौसल्या के महल में गये। इतनी कठिन परिस्थिति में भी उनके मुख पर कोई विकार नहीं था। वे सदा की भांति अपनी स्वाभाविक प्रसन्नता में दिखाई दे रहे थे।
माता कौसल्या के महल में पहुँचने पर श्रीराम को पहली ड्योढ़ी पर एक परम पूजित वृद्ध पुरुष और उनके साथ खड़े अन्य वीर दिखाई दिए। उन सबको प्रणाम करके वे आगे बढ़े। दूसरी ड्योढ़ी पर उन्हें अनेक वेदज्ञ ब्राह्मण दिखे और तीसरी ड्योढ़ी पर उन्हें अन्तःपुर की रक्षा में नियुक्त अनेक नवयुवतियाँ एवं वृद्धाएँ दिखाई दीं। उन सबका अभिवादन करके श्रीराम ने महल में प्रवेश किया।
उस समय देवी कौसल्या पुत्र की मंगलकामना से रात-भर जागकर एकाग्रचित्त हो भगवान् विष्णु की पूजा कर रही थीं। रेशमी वस्त्र पहनकर वे उस समय मंत्रोच्चार के साथ अग्नि में आहुति दे रही थीं और हवन करा रही थीं। रघुनन्दन ने देखा कि वहाँ देव कार्य के लिए दही, अक्षत, घी, मोदक, हविष्य, खील, सफेद माला, खीर, खिचड़ी, समिधा, कलश आदि अनेक प्रकार की सामग्री रखी हुई है।
श्रीराम को देखते ही माँ कौसल्या प्रसन्न होकर उनकी ओर गईं। श्रीराम ने माँ के चरणों में प्रणाम किया।
रानी कौसल्या ने उनसे कहा, “रघुनन्दन! तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम शीघ्र जाकर अपने पिताजी का दर्शन करो। वे आज युवराज पद पर तुम्हारा अभिषेक करने वाले हैं।”
ऐसा कहकर माता ने उन्हें बैठने के लिए आसन दिया और भोजन करने को कहा। श्रीराम ने उस आसन को केवल स्पर्श किया और फिर वे अंजलि फैलाकर माता से कहने लगे, “देवी! निश्चय ही तुम्हें ज्ञात नहीं है कि तुम्हारे ऊपर महान भय उपस्थित हो गया है। अब मैं जो कहने वाला हूँ, उसे सुनकर तुमको, सीता को और लक्ष्मण को भी अतीव दुःख होगा, किन्तु फिर भी मैं वह बात कहूँगा।”
“महाराज युवराज का पद भरत को दे रहे हैं और मुझे तपस्वी बनाकर दण्डकारण्य में भेज रहे हैं। ऐसे बहुमूल्य आसन की अब मुझे क्या आवश्यकता है? अब तो मेरे लिए कुश की चटाई पर बैठने का समय आ गया है। मैं चौदह वर्षों तक निर्जन वन में रहूँगा व जंगल में सुलभता से प्राप्त होने वाले वल्कल आदि को धारण करके कन्द, मूल एवं फलों से ही जीवन निर्वाह करूँगा।”
यह अप्रिय बात सुनकर महारानी कौसल्या सहसा भूमि पर गिर पडीं।
आगे जारी रहेगा…

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