ठीक है आप आ जाईये” इस वाक्य में प्रेम है , आओ जागो और जीवन को समझो अर्थात एक साधु
“आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरीतास उद्भिदः। देवा नोयथा सदमिद् वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवेदिवे” का ही उद्घोष करेगा।
एक सच्चा साधु और उसके भक्त कभी भी “हट जाईये” शब्द का इस्तेमाल नहीं करते और न ही नीम करौली के महात्मा और उनके शिष्य ने ऐसा कुछ कहा बल्कि उन्होंने कहा कि ठीक है “आप आ जाईये”
साधु पुकारता ही है, उपेक्षा या दुत्कार उसका स्वभाव नहीं होता।
पर हमारी मनोदशा देखिये हम उपेक्षा को धर्म बताते हैं जबकि उपेक्षा राजनीति है । कोहली और अनुष्का जैसी शख्यियत को हम जब उपेक्षित होते देखते हैं, दुत्कार को देखते हैं तो हमें खुशी होती है । खासकर उसकी जिसकी स्थिति हमसे बेहतर होती है उसकी उपेक्षा देखने का आनंद भला परमानंद से कम है क्या …!!!!!!!!
उपेक्षा नफरत को हम हाथों हाथ लेते हैं और उसे धर्म की चाशनी में मिलाकर लोगों को चटा देते हैं चाहे दाता ने ऐसा कहा ही क्यों न हो ..?
यही तो हमेशा से होता आया है , अरब की भूमि से निकले एक धर्म के लोगों ने उपेक्षा और नफरत को ही अल्लाह की वाणी बताकर धर्म में ऐसा लपेटा कि एक बड़ी भीड़ उनके पीछे दौड़ पड़ी क्योंकि भीड़ उपेक्षा को ही धर्म मानती है और उसे ही खरीदती भी है।
भगवान को सुनने का दावा करने वाले भी ऐसे ही उलट फेर करते हैं। मुहम्मद रोज कहते थे आज अल्लाह के दूत ने उनको यह संदेश सुनाया है….
धर्म ग्रंथों में अराजगता इसीलिए आ जाती है क्योंकि उसे जनता के पास पहुंचाने वाला मूल से ही खिडवाड कर अपनी सोच को ईश्वर की वाणी का नाम दे देता है।
जितना महत्वपूर्ण यह है कि श्रीकृष्ण ने गीता में कहा क्या है ..!उतना ही महत्वपूर्ण है कि परमब्रम्ह की उस वाणी को किस रूप में जनता के पास पहुँचाया गया है ..
खैर ,आपके मन के भीतर जो भावना दबी है व्यक्ति उसी को तो बेचेगा क्योंकि डायबिटीज और नफरत की खरीदार जनता ही होती है ,मार्किट में मांग देखकर ही व्यापारी उस प्रोडक्ट को बाजार बेंचता है इसलिए लेखक हों या नेता वो वही बेचते हैं जो आपको प्रिय हों…