Home विषयमुद्दा झकझकिया_का_गंगावतरण
आजकल  एक तथाकथित ‘मूलनिवासी विद्वान’ राजेन्द्र सिंह का बड़े जोरों से रंग चढ़ा हुआ है इसलिये हमारा भाई चींटे को रेवड़ी की तर्ज पर सीना फुलाकर ‘ही ही ही’ करते हुए अक्सर पूछता हुआ पाया जाता है कि अगर ब्राह्मी ‘लिपि’ में ‘ऋ’ उपस्थित नहीं है तो संस्कृत पाली से पुरानी कैसे?
इस सवाल को सुनकर मैंने माथा पीट लिया और मुझे एक पुराना बुद्धिमत्तापूर्ण प्रश्न याद आया कि अगर एक रेलगाड़ी साठ किलोमीटर की रफ्तार से पूरब की ओर जा रही है तो मेरे भाई की उम्र बताओ।
बहरहाल, दो घंटे तक सिर मारने के बाद मैं उसे जब ये समझा पाया कि ‘लिपि’ और ‘भाषा’ दो अलग चीज हैं तो बंदे ने ताड़ से छलांग मारकर पूछा कि अशोक से पूर्व कोई भी अभिलेख है जिसमें इन वैदिक देवताओं का विवरण है?
जब मैंने वह भी बता दिया तो भाई ने फिर छलांग मार दी कि भारत में ग्यारहवीं शताब्दी से पहले का कोई संस्कृत अभिलेख है?
वह भी बता दिया तो फिर कलाबाजी खा ली कि नहीं देवनागरी लिपि में बताओ।
यानी कि दो घंटे की मेहनत पर पानी और बंदा वहीं लौट आया जहां उसे ‘लिपि’ और ‘भाषा’ में अंतर नहीं पता था।
अस्तु!
अब पिछले दिनों भाईसाब ने दो नदियों के संगम का एक चित्र पोस्ट करके मेरी पुस्तक में वर्णित #गंगावतरण के ऐतिहासिक मानवीकरण के अध्याय पर तंज कसा कि यह संगम भी भगीरथ ने इंजीनियरिंग से करवाया होगा।
इसे कुतर्क की हद कहते और वैसे तो मैं ऐसी बातों का विस्तृत उत्तर नहीं ही देता क्योंकि जिसे नहीं स्वीकार करना होगा वह केजरीवाल की तरह कोई न कोई कुतर्क करता ही रहेगा लेकिन चूंकि मित्र पुराने हैं और गहरे भी अतः उत्तर देता हूँ।
तो मित्र, पुस्तक को अगर ध्यान से पढ़ा होता तो आपको पता लगता कि यह वस्तुतः छोटी छोटी हिमालयीन नदियों के मार्ग को किंचित बदलकर और उसे गोमुख ग्लेशियर से निकली धारा से जोड़ने का अभियान था जिसमें हिमालयीन ढलानों को ढूंढकर और जरूरत पड़ने पर काटकर मार्ग बनाये गये। इसके बाद अंततः उसे उस प्राचीन नदी तंत्र से जोड़ दिया गया जिसमें अभी तक जलापूर्ति का एकमात्र स्रोत वर्षाजल था।
अब एक वर्षा नदी ‘सदानीरा गंगा’ बन गई।
चूंकि यह घटना आर्यों के इतिहास में अभूतपूर्व थी जिसमें पांच पीढ़ियों अर्थात लगभग 150 वर्षों का समय लगा अतः आर्यों की जातीय स्मृति में गंगा सबसे पवित्र और गंगावतरण एक अविस्मरणीय घटना बन गई तो आश्चर्य क्या?
विश्व और भारत में प्राकृतिक रूप से सैकड़ों संगम भी हैं और नदी तंत्र भी लेकिन किसी भी देश या जाति की जातीय स्मृति में ऐसी कोई घटना नहीं है क्योंकि एकमात्र गंगा नदी तंत्र का निर्माण ही मानवीय बुद्धि, श्रम और तत्कालीन उपलब्ध तकनीक का कुशलता से प्रयोग है जिसके प्रमाण मैंने #इंदु_से_सिंधु में दिये हुए हैं।
अब प्रश्न उठता है कि आखिर आर्यगण इस नदीतंत्र में इतना उत्सुक क्यों थे तो इसका मूल कारण आश्चर्यजनक रूप से वंशावलियों व जियोलॉजीकल डिपार्टमेंट की उस खोज में है जिसके अनुसार आर्य सभ्यता की जीवनदायी नदी सरस्वती व उसका नदी तंत्र एक भूकंप के कारण सूखने लगा था जिसका विवरण भी महाकाव्यों में दर्ज है।
मैं यह नहीं कहता कि सबकुछ एग्जेक्टली वैसे ही हुआ होगा जैसा मैंने पुस्तक में वर्णित किया है लेकिन यह तो तय है कि बिना इस अभूतपूर्व मानवीय प्रयत्न के इस घटना को इतने विशिष्ट रूप में जातीय स्मृति, महाकाव्यों व लोकमानस में स्थान न मिला होता और तिसपर नदीमार्गों पर चट्टानों की मानवों द्वारा कृत्रिम कटाई के प्रमाण साफ-साफ दिखाई देते हैं।
पुनश्च, मिस्र के पिरामिडों के असंभव कार्य को जितनी सहजता से स्वीकार करते हो उतना ही दिमाग गंगावतरण में मानवीय हस्तक्षेप की संभावना पर कर लिया होता।

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