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क्यों जरूरी है पसमांदा मुसलमानो को अलग पहचान मिलना ?

Faiyaz Ahemad Faizi

by Faiyaz Ahmad
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जहां उन्हे शासन प्रशासन में पहुंचने नहीं दिया जाता था और अगर कोई भूले भटके पहुंच भी गया तो उसे निकाबत विभाग द्वारा बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता था. ज्ञात रहें कि निकाबत विभाग का काम शासन प्रशासन में नियुक्ति के लिए जाति एवं नस्ल की जांच करना था.

मुगलों के दौर में भी उन्हें बस्ती के बाहर रखने, शिक्षा से दूर रखने का शासनादेश था. सजा और जुर्माने में भी नस्लीय और जातीय विभेद और भेदभाव कानून सम्मत था. पूरे अशराफ मुस्लिम शासन काल में सैय्यद जाति को विशेषाधिकार प्राप्त था और उन्हें मृत्यु दण्ड नहीं दिया जाता था.

स्टीव बिको ने कहा था कि उत्पीड़क के हाथ में सबसे शक्तिशाली हथियार उत्पीड़ितों का दिमाग होता है. यह बात भारतीय मुसलमानो(देशज पसमांदा) के संदर्भ में बिल्कुल सही उतरता है जहां विदेशी अशराफ मुसलमान, इस्लाम को बचाने के छद्म मुहीम में भारतीय मुसलमानो को भ्रमित कर उनके सोचने समझने की क्षमता पर हावी है जिस कारण देशज पसमांदा की भूमिका एक ऐसे सेवक मात्र ही है जो सेवा तो बड़ी लगन से करता है लेकिन अपने हितों के लिए अपने मालिक से सवाल तक नहीं कर सकता है.

इसीलिए भारत के आज़ाद होने के बाद भी मुसलमान और अल्पसंख्यक नाम से चलने वाली लगभग सभी संस्थाओं में देशज पसमांदा की भागेदारी ना के बराबर हैं. इसी कारण समाज के अन्दर से समय समय पर अलग पहचान की आवाजे उठाती रही है. विदेशी अशराफ के सापेक्ष भारतीय मुसलमानो के मोमिन से पसमांदा तक के नामकरण के पीछे यही सोच रही हैं. ऐसा माना जाता है कि जब तक एक स्पष्ट पहचान न होगी हक अधिकार की मांग सुचारू रूप से आगे नहीं बढ़ सकती है.

मौजूदा समय में देश भर में फैले देशी मुसलमानो के विभिन्न संगठन, इस जातीय एवं सांस्कृतिक उत्पीड़न के विरुद्ध सक्रिय होकर मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय की स्थापना की मांग कर रहें हैं ताकि उनका जातीय/नस्लीय एवं सांस्कृतिक उत्पीड़न खत्म हो और वो देश की मुख्य धारा में शामिल हों. पसमांदा समाज को यह बात समझना होगा कि वो तब तक ढंग से नहीं उठ खड़ा हो सकता है जब तक उसको उसके मजहबी पहचान से इतर उसकी सामाजिक पहचान स्पष्ट ना हो, जैसे इस देश के अन्य वंचित समाजों की है.

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