Home लेखक और लेखदेवेन्द्र सिकरवार कूटनीतिज्ञ_श्रीराम
प्रायः ये जनप्रवृत्ति रही है कि श्रीराम को सरल , करुणावत्सल और मर्यादारक्षक व्यक्तित्व के रूप में देखा गया जो सदैव सामाजिक और राजनैतिक मर्यादाओं की रक्षा करते हैं जबकि श्रीकृष्ण को एक चतुर , कूटनीतिज्ञ और लीलाधर के रूप में देखा गया जो धर्मस्थापना के लिये साध्य साधन औचित्य की किसी मर्यादा को मानने के लिये तैयार नहीं हैं । इसी तुलना के चलते भावुक भक्तों द्वारा चौदह और सोलह कलाओं जैसी अवधारणायें दी गयीं जबकि वास्तविकता यह है कि श्रीराम भी उतने ही घोर राजमर्मज्ञ थे जितने श्रीकृष्ण।
अंतर केवल छवि का है।
श्रीराम की सरल छवि के नीचे उनका धुर राजनीतिज्ञ रूप आच्छादित हो गया है जबकि श्रीकृष्ण की चपल छवि के कारण उनका कूटनीतिज्ञ रूप जनमानस में स्थापित हो गया है ।
वास्तविकता यह है कि श्रीराम और श्रीकृष्ण दोंनों की कूटनीतिक और रणनैतिक कार्यशैली एक जैसी ही थी जिसे चार प्रमुख सिद्धांत थे —
1– अपने पक्ष का सुदृढ संगठन व उनमें नैतिक बल उत्पन्न करना।
2– युध्द पूर्व विरोधी पक्ष में अपने समर्थक उत्पन्न करना
3– सैन्य प्रयोग के लिये उचित समय का इंतजार करना
4– कम से कम बलप्रयोग द्वारा अधिकतम परिणाम लेना
प्रारंभ से ही श्रीराम के अभियानों में उपरोक्त सिद्धांतों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है ।
उनके जीवन का प्रथम अभियान था विश्वामित्र के सिद्धाश्रम के नजदीक स्थित रावण के सैनिक स्कंधावार के विरुद्ध जिसका नेतृत्व कर रही थी यक्षिणी ताड़का व राक्षस सुन्द के लवजेहाद के जाल में फंसकर रक्ष धर्म में #धर्मांतरण के बाद उससे उत्पन्न पुत्र मारीच और सुबाहु जो उस क्षेत्र के स्वार्थी और शक्तिशाली आर्यों को तेजी से रक्षधर्म में धर्मांतरित कर रहे थे ।
नरमांस भक्षण , स्त्रीअपहरण व बलात्कार , लूट और शोषण के विरुद्ध विश्वामित्र के नेतृत्व में जनाक्रोश पहले से एकत्रित था और आवश्यकता थी केवल न्याय के लिये अधिकृत नेतृत्व की जो राम ने उन्हें प्रदान किया ।
इसके बाद राम ने श्रंगवेरपुर के निषादों से स्वतंत्रता व समानता के संबंध स्थापित किये और यह विशाल क्षेत्र में फैली स्वाभिमानी जाति सदैव के लिये राम के प्रति श्रद्धावनत हो गई ।
अपने पिता दशरथ द्वारा दक्षिण में शंबर के नेतृत्व में असुरों के विरुद्ध देव जाति के सैन्य अभियान की असफलता से राम ने वन्य जाति बहुल क्षेत्रों राजकीय सैन्य अभियान की निरर्थकता को समझ लिया था इसीलिए चित्रकूट और दंडकारण्य में राम ने वन्य जातियों यथा शबर , भील , कोल आदि के बीच में उन्हीं जैसा जीवन जीते हुये इन जातियों का संगठन किया उनमें जीवन सुधार व सैन्यप्रशिक्षण द्वारा नैतिकता व आत्मविश्वास का संचार किया। शूर्पणखा प्रसंग से अपने समर्थकों में अपने चरित्र के प्रति अगाध विश्वास उत्पन्न किया ।
सम्यक रणनीति द्वारा खर दूषण को अपने अनुकूल भूगोल में युद्ध करने के लिये उकसाया और दंडकवन में रावण की सैन्य उपस्थिति को समूल नष्ट कर दिया ।
वानरों के संदर्भ में भी यही हुआ । उन्होंन दुर्बल परंतु पीड़ित सुग्रीव का पक्ष लिया जिससे उन्हें स्वतः ही सुग्रीव के प्रति सहानुभूति रखने वाली अधिसंख्य वानर प्रजा का नैतिक समर्थन प्राप्त हो गया जिसके कारण द्वंद्वयुद्ध के नियमों के विपरीत हस्तक्षेप कर बालि का वध करने पर भी वानर जाति ने उन्हें अपना मुक्तिदाता माना , आक्रांता नहीं ।
बालि के पश्चात राम ने राक्षसों के शोषण के विरुद्ध वानर जाति के आक्रोश को उभारा और सीता अनुसंधान के समय का सदुपयोग कर साथ साथ समस्त जानकारियां जुटाते रहे जिसका परिणाम था श्रीराम के नेतृत्व के प्रति असाधारण रूप से निष्ठावान सेना तथा हनुमान , जाम्बवान , नल, नील और सुहोत्र जैसे यूथपतियों की अगाध श्रद्धा । केवल अंगद की निष्ठा पर उन्हें आशंका थी जिसे लंका में रावण के दरबार में उसे दूत के रूप में भेजकर जांच लिया गया ।
लंका में विभीषण के विद्रोह व पलायन तथा उसे लंकापति के रूप में मान्यता देकर उन्होंने न केवल रावण की कमजोरियों को जान लिया बल्कि संधिप्रस्ताव भेजकर अपने व रावण दोंनों पक्षों में अपने नैतिक बल को मजबूत कर लिया और इसके बाद ही उन्होंने युद्ध प्रारंभ किया ।
युद्ध के दौरान भी उन्होंने अपनी सतर्कता बनाये रखी और विभीषण को सुरक्षा के नैतिक उत्तरदायित्व का हवाला देकर सदैव केंद्र में अपने नजदीक रखा ।
क्या पता कब भाई के प्रति मोह जाग जाये ?
और जब विभीषण की सहायता से मेघनाद का वध हो गया तो उन्होंने विभीषण को रावण से टकराने की छूट दे दी क्योंकि अब रावण द्वारा विभीषण को पुनः अपनाने की सारी संभावनायें नष्ट हो चुकी थीं।
सुग्रीव के राज्याभिषेक के साथ साथ अंगद के युवराज्याभिषेक व अंगद के दूतकर्म के पश्चात विभीषण के प्रसंग में श्रीराम के चरम कूटनीतिक चातुर्य के दर्शन होते हैं और यह तीन प्रसंग ही उनके राजनैतिक व्यक्तित्व को स्पष्ट करने के लिये काफी हैं ।
वनवास से लौटने के पश्चात हनुमान को अयोध्या व भरत की मनःस्थिति को भांपने के लिये अग्रिम दूत के रूप में भेजना उनकी राजोचित सतर्कता का उदाहरण है ।
राज्याभिषेक के पश्चात सीतात्याग के उपरांत भी भारतवर्ष के राजनैतिक संगठन का उनका अभियान जारी रहा ।
लंका में विभीषण और दक्षिण भारत में सुग्रीव दोंनों उनकी मैत्रीपूर्ण अधीनता स्वीकार करते ही थे और दोंनों शक्तियों में विजित और विजेता संबंध का विवाद कभी भी उत्पन्न ना हो सके और दोंनों के मध्य संतुलन बना रहे इसके लिये विभीषण के गुप्त अनुरोध पर उन्होंने अपने ही बनाये रामसेतु को मध्य से इतना भंग करवा दिया कि वानर सेनायें कभी भी लंका पर और लंका निवासी राक्षस जो अब आर्य संस्कृति को स्वीकार कर चुके थे दक्षिण भारत पर आक्रमण ना कर सकें ।
परंतु राज्याभिषेक के पश्चात राम के समक्ष सबसे पहली और नजदीकी मुसीबत थी यमुना पार मधुवन में लवणासुर के रूप में और पूर्व में प्राग्ज्योतिष में बाणासुर के रूप में स्थापित प्राचीन असुरों की #पीठें ।
मधुवन की लवणासुर की पीठ अयोध्या के लिये विशेष रूप से सिरदर्द थी । इस क्षेत्र के असुरों ने ना केवल यदुओं को सौराष्ट्र की ओर धकेल दिया था बल्कि सूर्यवंश के ही प्रतापी चक्रवर्ती नरेश मांधाता की हत्या तक युद्ध में कर दी थी जिसका दंश इक्ष्वाकुओं को अब तक चुभता था ।
प्राचीन असुरों की यह पीठ इतनी शक्तिशाली थी कि रावण तक लवणासुर से कन्नी काट गया था ।
परंतु भृगुओं की एक शाखा के कुलपति च्यवन जो सौराष्ट्र छोड़कर इस क्षेत्र में आ बसे थे , उनपर आक्रमण कर असुरों ने भीषण गलती कर दी ।
अपनी देखो और इंतजार करो की नीति के कारण श्रीराम सदैव उचित समय का इंतजार करते थे। अब असुरों द्वारा आक्रामक पहल करने से उनकी अपनी प्रजा और सेना का नैतिक बल प्राप्त हो गया और महर्षि च्यवन के नेतृत्व में भृगुओं के रूप में उस क्षेत्र के भूगोल और शत्रु के बलाबल से परिचित एक जबरदस्त सहायक मिल गया तो उन्होंने शत्रुघ्न के नेतृत्व में सेनायें तुरंत भेज दीं ।
तत्कालीन लवणासुर मारा गया , असुर सेनाओं को छिन्न भिन्न कर दिया गया और श्रीराम ने मधुवन के नाम पर ‘मधुरा’ को सैन्यकेन्द्र बनाकर वहाँ नियुक्त किया शत्रुघ्न को और यही मधुरा आगे जाकर कहलाई #मथुरा
शत्रुघ्न ने श्रीराम की आज्ञा पर दक्षिण की ओर बढ़कर विदिशा पर भी अधिकार कर लिया और वहां नियुक्त किया अपने पुत्र शत्रुघाती को ।
उन्होंने लक्ष्मण की राजसूय यज्ञ करने की सलाह के विरुद्ध भरत के मत के कारण भाइयों में मतभेद को टालने के लिये राजसूय यज्ञ के अनुष्ठान के विचार को तज कर अपने पूर्वज रघु की भांति पूरे भारत के पुनः राजनैतिक एकीकरण और ‘चक्रवर्ती’ उपाधि धारण करने का विचार तो छोड़ दिया परंतु राजनैतिक स्थिरता के लिये सम्पूर्ण भारत को एक दृढ़ संगठित रूप देने की कोशिश अवश्य की ।
अश्वमेध के दौरान संधि संरक्षित राज्य के पक्ष में सहायता को आये महारुद्र शिव से एक संक्षिप्त युद्ध और संधि के पश्चात उत्तर की दिशा सुरक्षित हो गयी जिससे अयोध्या साम्राज्य रुद्रों के अधीन कश्मीर में बसे ‘यक्ष’ , ‘नाग’ और ‘पिशाच’ जातियों की अराजकता से सुरक्षित हो गया । यक्षराज कुबेर यों भी श्रीराम के प्रति अत्यंत श्रद्धा रखते ही थे ।
सर्वाधिक समस्या थी उत्तर पश्चिम में और उसके मूल में थे ‘गंधर्व’ । उन्होंने पूरे पश्चिमोत्तर क्षेत्र में आतंक मचा रखा था और यहां तक कि उन्होंने आनव नरेश और भरत के मामा युधाजित पर आक्रमण कर उनकी हत्या कर दी । अवसर की तलाश में बैठे श्रीराम ने तुरंत भरत और उनके पुत्रों तक्ष व पुष्कल के सेनापतित्व में एक विशाल सेना बाह्लीक प्रदेश में भेज दी जिनका स्वागत मुक्तिदायिनी सेना के रूप में आनवों ने किया । गंधर्वों को वापस हिमालय व पामीर की ओर भागना पड़ा ।
भरत ने आनवों और द्रुह्युओं की सहायता से सुदूर पश्चिम में सबसे अग्रिम सैन्य चौकी के रूप में अपने ज्येष्ठ पुत्र पुष्कल के नाम पर #पुष्कलावती और उसके पीछे सिंधु के पूर्वी तट पर तक्ष के नाम पर #तक्षशिला की स्थापना की । पुष्कल और तक्ष के राजवंशों का क्या हुआ यह स्पष्ट नहीं है । संभवतः वे स्थानीय गणक्षत्रियों में समाहित हो गये परंतु उनके नाम पर बसे ये सैन्यकेन्द्र आगे चलकर वैभवशाली नगरों के रूप में विकसित हुये ।
कालांतर में सिंधु के नीचे रावी के तट पर राम ने अपने कनिष्ठ पुत्र लव के प्रभार में #लवपुर बसाया जो मद्रों व कठों के कारण विशेष विस्तृत ना हो सका लेकिन संभवतः वह एक छोटी बस्ती या गाँव के रूप में किसी तरह बना रहा और लोकस्मृति में उसके संस्थापक का नाम भी जो आगे जाकर 9वीं शताब्दी में दुर्ग रूप में #लोहकोट और नगरीकृत रूप में ‘लवपुर’ या #लाहौर के रूप में प्रसिद्ध हुआ जहां किसी काल में इसके संस्थापक लव की स्मृति में बनाया गया ‘लव मंदिर’ जीर्ण शीर्ण दशा में आज भी स्थित है ।
इसी प्रकार लाहौर के ही पार्श्व में स्थित ‘कुशपुर’ आज ‘कसूर’ के नाम से अवस्थित है।
उधर दंडकवन प्राचीनकाल से इक्ष्वाकुओं की एक शाखा के पूर्वज राजा दंड के अधिकार में था परंतु किसी भृगु पुरोहित की पुत्री के साथ दंड द्वारा बलात्कार के कारण आर्यों में फूट पड़ गयी जिसका लाभ उठाकर राक्षसों ने इक्ष्वाकुओं को वहां से खदेड़ दिया था यद्यपि इक्ष्वाकुओं की एक शाखा का छोटा सा राज्य वहां स्थापित था जो कोशल के दक्षिणी भाग दक्षिण कोशल के नाम पर दक्षिण कोशल ही कहलाया । आज यह क्षेत्र छत्तीसगढ़ कहलाता है । स्वयं श्रीराम की माँ कोशल्या दक्षिण कोशल की ही राजकुमारी थीं , इसलिये वह क्षेत्र श्रीराम की ननिहाल भी था । खर दूषण के नेतृत्व वाले राक्षस स्कंधावार के विध्वंस के पश्चात ही वहां शक्ति शून्य पैदा हो चुका था , इसलिये उन्होंने वहां भी सेनायें भेज दीं और वहाँ पहले से बसे इक्ष्वाकुओं की मदद से अयोध्या के दक्षिण में बसाये गये #कुशावती के नाम पर दक्षिण कोशल में भी कुशावती के नाम पर एक और सैन्यकेंद्र बनाया गया और कालांतर में उसका प्रभारी कुश को बनाया । कुछ लोग कुशावती को द्वारका मानते हैं जहाँ शार्यातों के रूप में बसी हुई इक्ष्वाकुओं की एक शाखा को असुरों ने अपदस्थ कर रखा था । परंतु कुशावती का दक्षिण कोशल अर्थात छत्तीसगढ़ में होना अधिक समीचीन प्रतीत होता है ।
अब पश्चिमोत्तर से दक्षिण में कुशावती तक एक सशक्त प्रतिरक्षा पंक्ति तैयार हो चुकी थी परंतु अभी भी श्रीराम संतुष्ट नहीं थे क्योंकि मथुरा और तक्षशिला के बीच में एक बड़ी दरार थी उसे भरने के लिये उन्होंने चुना अपने सर्वाधिक विश्वासपात्र अनुज लक्ष्मण की संतानों अंगद और चित्रकेतु को जो पहले ही अयोध्या के उत्तर में #अंगदीयापुरी और पूर्व में मल्लजाति के क्षेत्र में #कारूपथ नामक नगर के प्रभारी थे ।
चित्रकेतु मल्लों में इस कदर लोकप्रिय हो चुके थे कि उनका दूसरा नाम ” मल्ल ” ही लोकप्रिय हो गया ।
कारूपथ की स्थापना संभवतः पूर्व में असम की ओर से बाणासुर पीठ व उसके सहयोगियों के किसी संभावित अभियान को रोकने के लिए और कोशल के मित्र राज्य काशी , अंग व बंग को सहायता प्रदान करने के लिये की गयी ।
श्रीराम ने लवपुर और मधुरा के बीच में पूर्व की अंगदीयपुरी और कारूपथ के नाम पर ही पंजाब में भी अंगदीयपुरी और कारुपथ के नाम से दो और सैन्य केंद्रों की स्थापना की । अंगदीयपुरी का अस्तित्व अधिक नहीं चल सका लेकिन चित्रकेतु के साथ गये उनके निष्ठावान “मल्ल” जनों ने वहां अपने पैर जमा लिये और कहलाये #मालव । कालांतर में इनकी नगरी जिसे कालिदास ने “कारापथ” कहा , वह पीछे छूट गयी और मालव रावी और चेनाब के उपरले काठे में बस गये । निचले काठे या क्षुद्र भाग में बसे आर्यजन अपनी बस्ती की भौगोलिक स्थिति के कारण कहलाये क्षुद्रक अर्थात ‘निचले’ ।
अब उत्तर पश्चिम दिशा एक प्रतिरक्षा रेखा द्वारा सुरक्षित थी जिसका एक बिंदु पुष्कलावती था और दूसरा बिंदू था दक्षिण कोशल में कुशावती में ।
केंद्र में अयोध्या चारों ओर से लक्ष्मणपुरी (लखनऊ) , अंगदीयपुरी , कारूपथ, मथुरा और श्रंगवेरपुर द्वारा सुरक्षित थी
इस प्रकार श्रीराम ने अयोध्या साम्राज्य को दोहरी सुरक्षापंक्ति से घेर दिया । साम्राज्य के रूप में भारत का राजनैतिक संगठन पूराकर उन्होंने इस राष्ट्र को एक बार फिर एकीकृत कर राजनैतिक स्थिरता की नींव डाली ।
स्वयं के प्रभार वाली सदृढ़ गुप्तचर व्यवस्था , शत्रुघ्न के सेनापतित्व में विशाल शक्तिशाली सेना व लक्ष्मण के प्रभार में उदार परंतु सचेत निगरानी वाले आर्थिक तंत्र के आधार पर उन्होंने उस प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना की जिसे इतिहास में एक ऐसे मानक के रूप में देखा गया जो अब तक #रामराज्य के रूप में #यूटोपिया बना हुआ है और जिसे केवल गुप्त सम्राट ही कुछ हद तक प्राप्त कर पाये।
इति!
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