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तन्त्र के अनुसार अग्नि तीन हैं
कामाग्नि,
जठराग्नि
और
भूताग्नि!
भूताग्नि ही धूताग्नि भी है,
अवधूताग्नि भी है।
किन्तु प्राणि-मात्र में अग्नि की सकल मात्रा निश्चित और निर्धारित है।
कामाग्नि, जठराग्नि और भूताग्नि में कोई एक ही प्रबल हो सकती है, अन्य दोनों मन्द रहती हैं।
इसी कारण एक भोजपुरिया कहावत है कि जब फलाना में आग लगे तो दिमाग का दीया बुझ जाता है। भोजपुरिया कहावतें वेधक ही नहीं, बोधक भी होती हैं।
एक कथा सुनो!
देवताओं को पार्वती से शाप मिला कि वे सब सन्तानहीन रहेंगे।
तब अग्निदेव वहाँ पर नहीं थे अतः वे शाप की परिधि से बाहर थे।
कालान्तर में तारकासुर के वध हेतु किसी देवपुत्र की आवश्यकता हुई।
सारे देवता भगवान विष्णु के पास जा पहुँचे। भगवान विष्णु ने उन्हें सुझाव दिया कि वे कैलाश जाकर भगवान शिव से पुत्र उत्पन्न करने की विनती करें।
विष्णु की बात सुनकर समस्त देवगण जब कैलाश पहुँचे तो उन्हें पता चला कि शिवजी और माता पार्वती तो विवाह के पश्चात से ही देवदारु वन में एकांतवास के लिए जा चुके हैं। विवश व निराश देवता जब देवदारु वन पहुँचे तो उन्हें पता चला कि शिवजी और माता पार्वती वन में एक गुफा में एकांत-निवास कर रहे हैं।
देवताओं ने शिवजी से सहायता की प्रार्थना की परन्तु कोई लाभ नहीं हुआ। भोलेभंडारी तो कामपाश में बँध कर अपनी अर्धांगिनी के साथ सम्भोग में रत थे।
अत: देवताओं ने अग्नि की खोज आरम्भ की।
अग्निदेव कामदेव की परिणति से भली-भाँति विदित थे। केके कुक्कुर काटे है कि शंकर जी के कोप झेले?
लेना न देना आ भर ….. पसेना!
अग्निदेव जा कर जल में छिप गये।
अग्निदेव जल में छिपे हुए हैं यह मेंढक ने देवताओं को बता दिया।
अग्निदेव ने रुष्ट होकर उसकी जिह्वा उलट जाने और रस-बोध से वञ्चित होने का शाप दिया। देवताओं ने मेंढक को पुरस्कार देते हुए कहा कि वह फिर भी बोल पायेगा।
अतः मेंढक रस-बोध से वञ्चित तो होते हैं, किन्तु बोलते हैं।
या जो रस-बोध से वञ्चित होते हैं,
पर बोलते हैं
वे मेंढक होते हैं।
अग्निदेव जाकर पीपल के वृक्ष में छिप गये। हाथी ने पीपल के पत्तों को चबाते हुए यह रहस्य जान लिया। उसने देवताओं से कहा ― अश्वत्थ अग्नि रूप है।
अग्नि ने शाप दे कर उसे भी उल्टी जिह्वा वाला कर दिया
और शमी वृक्ष में जा छिपे!
शमी में अग्निवास को तोते ने पहचाना और उसने देवताओं को बता दिया।
अग्नि के शापवश वह भी उल्टी जिह्वा वाला हो गया। उसकी वाणी भी अस्फुट हो गयी।
यह कथा शास्त्रोक्त है।
इसके आगे शास्त्र मौन है। किन्तु आगे की कथा लोक की जिह्वा पर है।
अग्नि शमी से निकल कर कहाँ गये यह पता नहीं चल रहा था।
एक ब्राह्मण ने जाना कि अग्नि अरणि में छिपे हैं।
उसने देवताओं को बताया – अग्नि अरणि में है।
देवताओं ने अरणि-मन्थन किया और अग्नि को खोज कर उन्हें शिव-वीर्य धारण करने हेतु मनाया।
किन्तु अग्निदेव ब्राह्मणों से रुष्ट हो चुके थे –
मुझे शिव-कोप का भागी बनाने में तू सहयोगी हुआ है न? जा! आज से तू अपनी ही विवशताओं से इतना विवश रहेगा कि तुझे सत्य कहने का साहस ही नहीं होगा! तुझ पर इतनी ईतियाँ और भीतियाँ आ पड़ेंगी,
कि तुझे अपनी जिह्वा को गाँठ लगा कर रखना, तुम्हारी विवशता होगी!
और,
ब्राह्मण की जिह्वा में गाँठ लग गयी।
अग्नि के शापवश,
सत्य जानते हुए भी
सत्य न कह सकने की विवशता
ब्राह्मण की नियति है।
निचली दोनों अग्नियाँ नियंत्रित करो! भूताग्नि तभी प्रखर होगी!
वैसे,
सत्य कहना तो वर्जित है मेरे लिये!
हम आपन खिच्चड़ सेरवाईं कि तोहार फुस्सर फोरीं?

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