Home विषयसाहित्य लेख हे महायज्ञ ..! हे महाशांत
हे महायज्ञ ..!
हे महाशांत,
सृष्टि को अनवरत चलते रहने के लिए मुझे आपकी “शक्ति ” चाहिए ,
हे महा अक्षर संसार को शब्द देने के लिए महा अक्षर को स्वर व्यंजन क्षर नश्वर में विभाजित होना ही पड़ेगा ,
शिव को शक्ति से अलग होना ही पड़ेगा .!
रचयिता जी ने जैसे ही महा मौन से यह कहा , महा मौन में समाहित महा चंचला चीख कर बोली ,
नही ..! नही..! मैं अपने मौन से विलग नही हो सकती
नही शिव तुम मुझे त्याग नही सकते ..!
तुम जानते हो कि मेरे त्याग के बाद तुम शक्तिहीन हो जाओगे ..!
शिव सोचो कि क्या तुम मेरा विरह सह पाओगे ..!!!
नही ना !
शिव तुम जानते हो सृष्टि मात्र एक स्वप्न है तो क्या एक स्वप्न की रचना के लिए तुम मुझे त्याग दोगे..!
अलग कर दोगे मुझे अपने से ..!!!
बोलो शिव ..!
महाचंचला के प्रश्न से महाशान्त अशांत सा होने लगा लेकिन फिर भी महा शांत ने महाचंचला के प्रश्न का उत्तर नही दिया और नाद करके बोला…
“सृष्टि की रचना के लिए शिव शक्ति का त्याग करता है “
महाअक्षर अब स्वर व्यंजन क्षर नश्वर में विभाजित होकर शब्दों, जीवों ,वाक्यों परिवारों की रचना करते हुए भाषा, समाज को जन्म देने लगता है…..
मन्त्रों की उत्पत्ति होनी प्रारम्भ हो जाती है,
रचयिता सृष्टि के स्वयं चलायमान होने की प्रकृति को देखकर मुस्कुरा उठे..
और बोले हे महाकाल ..!
शीघ्र ही मैं आपको आपकी शक्ति लौटा दूंगा .!
योगनिंद्रा में डूबे शिव को तभी किसी कोमल अर्ध मानवीय काया का अपने ऊर्जा क्षेत्र में आभास होता है..
और मुस्कुरा कर शिव योगनिंद्रा से बाहर आ जाते हैं ..!
और प्रेमवश उनके मुख से शब्द फूट पड़ते हैं .
सती …!
अपने सामने महाचंचला के मानवीय रूप को देखकर शिव मानवों की तरह प्रेम अग्नि में जलने लगे .
सती संकुचाते हुए कहती हैं,
स्वामी …!
मैं अपने पिता के घर जा रही हूँ यज्ञ में भाग लेने के लिए ..!
सती के इतना कहने मात्र से शिव का अंतर्मन चीख पड़ा …
उन्हें लगा कि अभी तो मेरी शक्ति मुझे मिली है और यह फिर मुझे त्यागना चाहती है …
शिव आर्त वाणी में बोल पड़े,
हे दक्षायणी ..!
तुम कब अपने शक्ति स्वरूप को पहचानोगी ..!
न जाने कितने कल्पों बाद मैंने तुम्हें पुनः प्राप्त किया है और तुम अब …!
मत जाओ सती वहां ….
वहां तुम्हारा सिर्फ अनिष्ट होगा ..!
शिव की आर्त वाणी को सुनकर सती बोली ,
हे महादेव; आपकी आशंका निर्मूल है
मैं वहाँ अपने पिता के घर जा रही हूँ , भला एक पिता के घर मे एक पुत्री का अनिष्ट कैसे हो सकता है …!!
आप भगवान है फिर भी आप मानवों की तरह चिंतित हो रहे हैं ..!
क्यों नाथ , इतना असीम प्रेम करते हैं मुझसे ..!!
शिव सती की तरफ लाचार दृष्टि से देखते हैं उन्हें आभास हो चुका था कि अब सती उनसे दूर होने वाली हैं ..
सती उस स्थान पर नही जाना चाहिए जहां आमंत्रण नही मिला हो,
ऐसे स्थान पर जाने से मात्र अनिष्ट ही होता है ..!
सती चंचलता से कहती हैं , कुछ नही होता !
आपकी और मेरे पिता की शत्रुता है इसलिए ऐसा कह रहे हैं,
मैं जाऊंगी वहां ..!
और अगर आपको लगता है कि वहां मेरा अनिष्ट होगा तो आप वहां पर मेरा अनिष्ट होने के उपरांत ही आईयेगा ..
आपको मेरी सौंगन्ध है ..!
जैसे ही सती ने ऐसा कहा शिव पीड़ा से चीख उठे
सतीईईई..!!!!!!!!!!!!
ये तुमने क्या किया ..!
तुमने मुझे सौंगन्ध की सीमा में क्यों बांध दिया ..?
इतना कहकर सती शिव से रुष्ट होकर दक्ष के यज्ञशाला की तरफ चल पड़ी..!
शिव की यह दशा देखकर सृष्टि के केंद्र में बैठी ” शक्ति ” बोल पड़ी ..
हे महाशांत तुमने जब ब्रम्हा के कहने पर मुझे अपने से अलग किया था तो क्या तुम मेरी पीड़ा को समझे थे ..!!!
नही ना ..!
अब जब तुम मेरे वियोग में तड़पोगे तभी विरह की अग्नि में तड़पने की पीड़ा क्या होती है ..
तभी अनुभव कर पाओगे …
शक्ति की उलाहना सुनकर शिव बोल उठे .
.हे मेरी आद्या .!
मैं तो उस क्षण भी तुम्हारे लिए तड़पा था ,
तुम्हारे विरह को न सह पाने के कारण ही मैंने अपना निवास वहाँ बनाया जहां तुम प्रकृति के अन्य रूपों में विद्यमान हो ….
देक्खो आद्या ..!
मैं कैलाशी बन गया हूँ सिर्फ तुम्हारे प्रेम के लिए..
शक्ति शिव को फिर उलाहना देते हुए बोली…
अस्थिर के लिए स्थिर को आपने त्यागा है आदि..
आकार के लिए आपने निराकार को त्यागा है इसलिए पीड़ा अब आपकी नियति बन गयी है ..”
सृष्टि की रचना करने के कारण ब्रम्हा को सृष्टा होने का घमंड हो गया था उसी समय दक्ष का जन्म होता है ।
दक्ष वास्तव में ब्रम्हा के अहंकार का सूचक था,
【सती को यज्ञशाला में प्रवेश नही दिया जाता लेकिन हठ करके सती यज्ञशाला में प्रवेश कर जाती हैं जहां दक्ष सती का और शिव का अपमान करते हैं , शिव निंदा नही सुन पाने के कारण सती अपनी ही योगाग्नि में खुद को जलाकर भस्म कर लेती हैं….
शिव क्रोध में भर उठते हैं और अपने प्रतिरूप को दक्ष का यज्ञ ध्वंश करने के लिए भेजते हैं , वीर भद्र दक्ष के अभिमान रूपी मस्तक को उनके शरीर से अलग कर देते हैं …
शिव पुनः शक्ति से अलग हो चुके थे और इस बार शिव ने नही शक्ति ने शिव को अपने से दूर किया था…
आखों में अश्रु लिए शिव सती के शव के पास आकर बैठकर सती के मस्तक को अपने गोद मे लेकर असीम पीड़ा में आर्तनाद करते हैं ….
आंखों में अश्रुधारा बहाते हुए शिव कहते है,
सती ..!
सती .!!
हे महाचंचला ,
तुम कैसे महाशांत हो गयी ..!
तुम तो मौन होती ही नही .!!
तो ..तो .. तुम कैसे मौन हो गयी आद्या ..!
उत्तर दो ..!
कर ली तुमने अपनी मनमर्जी ..!
ले लिया अपना प्रतिशोध मुझसे ..
बोलो आद्या.!
सती ! ये शिव तुम्हारे बिना मात्र एक शव बन कर रह जाएगा….
(शिव ने सती वियोग में इतने आंसू बहाए कि वहां एक सरोवर बन गया ।
शिव सती वियोग में पूर्ण रूप से मनुष्य बनने लगे थे , रोते हुए अपनी प्रिया के शव को लेकर समस्त लोकों में विचरण करने लगे ….
सृष्टि शिव के मोह के कारण शव में बदलने लगी थी लेकिन तभी महाअक्षर ने अपना सुदर्शन चलाकर शिव को शव से अलग करने का प्रयत्न किया….
शिव देह के मोह को त्यागकर सती के अंग जहाँ जहाँ गिरे थे वहां वहां शक्ति पीठ की स्थापना करते हैं..
सृष्टि के केंद्र में बैठी” शक्ति” शिव का अपने प्रति असीम प्रेम देखकर तड़प उठी और अपनी योगशक्ति से पुनः शिव मिलन के निमित्त का निर्माण करने लगी…
परंतु इस बार शिव शक्ति से रूठ चुके थे अब वह उस पीड़ा का दुबारा अनुभव नही करना चाहते थे इसलिए उन्होंने स्वयं को शक्ति से अलग रखने का निर्णय किया…..
शक्ति इस बार जिद कर बैठी कि नही शिव अब आपको मुझे अपनाना ही पड़ेगा ,
अब मैं न दक्षायणी बनकर आपसे मिलूंगी और न ही हिमालय की पुत्री बल्कि अब मैं आपसे सम्पूर्ण शक्ति रूप में मिलूंगी …
शक्ति शिव के पास जाती हैं और कहती हैं ..,
हे नाथ ..!
आपके असीम प्रेम ने मुझे विवश कर दिया
देखिये नाथ मैं फिर से वापस आ गई ..!
हे नाथ अब तो अपनी शक्ति को अपने मे समाहित कर लीजिए..
शिव कठोर वाणी में कहते हैं ,
हे हिमालय पुत्री तुम कौन हो ..?
लगता है तुम अपना मार्ग भटक गई हो या तुम्हे कुछ भ्रम हो गया है .!
जैसे ही शिव ने ऐसा कहा , पार्वती का हृदय धक्क से बोल पड़ा और उनके आँखों से स्वतः ही अश्रु निकल पड़े,
पार्वती के निकलते अश्रु शिव को कमजोर न कर दे इसलिए शिव उस स्थान से जाने लगे तो …
पार्वती ने रुदन करते हुए कहा ..,
हे आदि ..!
अब और स्वयं को दंड मत दीजिये
मैं जानती हूँ आप मेरे बिना एक क्षण भी नही रह सकते ..!
जो कल कैलाशी हुआ करता था आज वो मुझे अपने समीप पाने के लिए ही बनवासी बन बैठा है ..!
क्या ये आपका मेरे प्रति प्रेम नही है ..!!
बोलो नाथ ..!
शिव बिना उत्तर दिए चले जाते हैं,
पार्वती शिव को प्राप्त करने के लिए महातप करने लगती हैं ..
पार्वती मानव शरीर मे होकर आद्य शक्ति जैसी वाणी का प्रयोग करते हुए कहती हैं हे आदि योगी आपकी योगिनी अब आपसे मिलकर ही रहेगी ..
पार्वती के भीषण तप से समूची सृष्टि तपने लगी अब तो ऐसा लग रहा था कि अगर शिव पार्वती के पास नही जाएंगे तो केंद्र में बैठी आदि शक्ति स्वयं शिव में समाहित होने चली आएंगी…
मानव वेश में तप कर रही पार्वती के शरीर की शक्ति इतनी क्षीण हो चुकी थी कि वो बेल पत्र भी शिव लिंग पर नही चढ़ा पा रही थी..
परंतु भक्ति की शक्ति के माध्यम से उन्होंने तपस्या प्रारम्भ रखी, शिव पार्वती के इस प्रेम को देखकर तड़प उठे और तुरन्त तपस्या स्थल पर पहुंचकर पार्वती को प्रेम से विह्वल होकर पुकारते हुए कहते हैं…
उमा .!
अपर्णा ..!
पार्वती ..!
महाचंचला जो तपस्या के कारण महा शांत बन बैठी थी , जब उसने अपने नेत्रों को खोला तो सामने शिव को देखकर प्रेमाश्रु बहाने लगी ..
शिव शक्ति को अपने हृदय से लगाते हुए बोले ..
हे अपर्णा तुमने अपनी तपस्या से मुझे जीत लिया है अब मैं तुम्हारा ऋणी हो चुका हूँ .!
हे गौरी ..!
हे श्यामा ..!
हे आद्या ..!
अब मैं तुम्हारे प्रेम के अधीन हो गया हूँ ..
हे उमा अब मैं तुम्हारे कारण पूर्ण हो गया हूँ ..
योगनिद्रा में सोया हुआ पालनहार पुनः जग जाता है और जीवन को जन्म देने वाली शक्ति का भ्राता बनकर शिव शक्ति का पुनः मेल करा देता है ….
मधुलिका शची

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