Home विषयजाति धर्मईश्वर भक्ति वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड भाग 91
रावण की आज्ञा मिलने पर विभीषण ने हाथ जोड़कर कहा, “राजन्! सीता के रूप में आपने अपनी ही मृत्यु को बुला लिया है। इससे पहले कि उन वानरों के साथ श्रीराम लंका पर चढ़ाई कर दें, आप सीता को लौटा दीजिए। ये कुम्भकर्ण, इन्द्रजीत, महापार्श्व, महोदर, कुम्भ, निकुम्भ, अतिकाय आदि कोई भी राक्षस समरभूमि में श्रीराम के आगे नहीं टिक सकते। यदि सूर्य, वायु, इन्द्र या स्वयं यमराज भी आपकी सहायता करें, तो भी आप श्रीराम के बाणों से नहीं बच पाएँगे। अतः मेरा निवेदन मानिये और सीता को श्रीराम के पास सकुशल वापस भेज दीजिए।”
यह सुनकर प्रहस्त बोला, “हम देवताओं या दानवों किसी से भी नहीं डरते। भय क्या होता है, यह तो हम जानते ही नहीं हैं। फिर राम से हमें क्या भय होगा!”
फिर भी विभीषण ने पुनः समझाने का प्रयास किया, “प्रहस्त! महाराज रावण, महोदर, कुम्भकर्ण या तुम श्रीराम के बारे में जो भी कह रहे हो, वह सब तुम लोगों से नहीं हो पाएगा। जिस प्रकार कोई पापी कभी स्वर्ग में नहीं पहुँच सकता, उसी प्रकार श्रीराम को तीनों लोकों में कोई भी परास्त नहीं कर सकता। उनका जन्म महान इक्ष्वाकुवंश में हुआ है। वे सभी कार्यों में समर्थ हैं। उनका पराक्रम अतुल्य है। विराध, कबन्ध, वाली जैसे बड़े-बड़े वीरों को उन्होंने यमलोक में भेज दिया था। श्रीराम के तीखे बाण अभी तक तुम्हारे शरीर में नहीं लगे हैं, इसीलिए तुम ऐसी बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हो। जिस क्षण उनका बाण तुम्हें स्पर्श करेगा, वह उसी क्षण तुम्हारे प्राण भी निकाल देगा। देवान्तक, नरान्तक, अतिकाय, महाकाय, अतिरथ, अकम्पन, त्रिशिरा, निकुम्भ, मेघनाद या महाबली रावण स्वयं भी युद्ध में श्रीराम के आगे नहीं ठहर सकते।”
“महाराज रावण तो व्यसनों के अधीन हैं, इसलिए सोच-विचारकर काम नहीं कर सकते। फिर वे स्वभाव से भी उग्र हैं, अतः सदा युद्ध के लिए उत्सुक रहते हैं। ऊपर से तुम जैसे विपरीत सलाह देने वाले मित्र उनके साथ हैं। उन्हीं के कारण आज तक तुम सब लोगों की सभी कामनाएँ पूर्ण हुई हैं। अतः तुम सबको उन्हें उचित सलाह देनी चाहिए। सच्चा मन्त्री वही है, जो अपनी और शत्रु की शक्ति को समझकर तथा अपने राजा के लाभ-हानि का विचार करे, केवल हितकर और उचित बात ही कहे।”
यह सब सुनकर इन्द्रजीत को बड़ा क्रोध आया। उसने विभीषण से कहा, “मेरे छोटे चाचाजी! आप कायर पुरुष की भाँति यह कैसी निरर्थक बातें कर रहे हैं? जिसने हमारे कुल में जन्म लिया है, वह पुरुष ऐसी बातें कभी नहीं कर सकता।”
फिर वह रावण से बोला, “पिताजी! हमारे राक्षस कुल में ये छोटे चाचा विभीषण ही ऐसे कायर, डरपोक और शक्तिहीन हैं। उन दो तुच्छ मानवों की शक्ति ही क्या है! उन्हें तो हमारा कोई साधारण राक्षस भी मार सकता है। फिर मेरे ये डरपोक चाचा उनके नाम से हमें क्यों डराने का प्रयास कर रहे हैं?”
“मैंने तीनों लोकों के स्वामी देवराज इन्द्र को भी स्वर्ग से हटाकर इस पृथ्वी पर ला बिठाया था। मैंने ऐरावत के दोनों दाँत उखाड़कर उसे भी भूमि पर गिरा दिया था। उस समय वह घबराकर जोर-जोर से चिंघाड़ रहा था। मेरा पराक्रम देखकर सब देवता भयभीत हो गए थे और उन्होंने भागकर चारों दिशाओं में शरण ली थी। मुझे जैसा वीर, जो बड़े-बड़े देवताओं और दैत्यों को भी अपने पराक्रम से शोकमग्न कर देता है, वह क्या उन दो तुच्छ मानव कुमारों का सामना नहीं कर सकता?”
इस पर विभीषण ने उत्तर दिया, “भतीजे! तुम अभी बालक हो। तुम्हारी बुद्धि कच्ची है। इसलिए तुम अपने ही विनाश की बातें बक रहे हो। रावण के पुत्र होकर भी तुम उसे गलत परामर्श दे रहे हो। तुम अविवेकी हो। अत्यंत दुर्बुद्धि, दुरात्मा और मूर्ख हो। इसीलिए ऐसी बकवास कर रहे हो। युद्धभूमि में श्रीराम के बाण प्रत्यक्ष काल के ही समान हैं। उनसे कोई नहीं बच सकता। धन, रत्न, आभूषण तथा सुन्दर वस्त्रों आदि के साथ सीता देवी को श्रीराम के पास वापस भेजने पर ही हमारी रक्षा हो सकती है। अन्यथा लंका का विनाश अटल है।”
इतनी हितकर बातें सुनकर भी रावण क्रोधित हो गया क्योंकि अहंकार व मोह के कारण उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी। उसने कठोर वाणी में विभीषण से कहा, “भाई! आवश्यकता पड़े तो शत्रु के साथ भी रह लेना चाहिए, किन्तु जो मित्र कहलाकर भी शत्रु की सेवा करता हो, उसके साथ कदापि नहीं रहना चाहिए। जिस प्रकार हाथी पहले स्नान करता है और फिर अपनी ही सूँड़ से कीचड़ उछालकर अपने ही शरीर को गन्दा कर लेता है, उसी प्रकार शत्रु का पक्ष लेने वाले स्वजातीय लोग ही अधिक हानि पहुँचाते हैं।”
“कुलकलंक निशाचर! तुझ पर धिक्कार है। तेरे सिवा कोई और यदि ऐसी बातें करता, तो मैं इसी क्षण उसके प्राण ले लेता।”
जब रावण ने उचित सलाह सुनकर भी इस प्रकार अपमानित ही किया, तो उन कठोर वचनों को सुनकर तुरंत ही विभीषण ने अपनी गदा में हाथ में उठाई और एक ही क्षण में उछलकर वह आकाश में चला गया। चार साथी राक्षसों ने भी उसका अनुसरण किया।
तब आकाश में खड़े होकर विभीषण ने दुरात्मा रावण से कहा, “राजन्! तुम्हारी बुद्धि भ्रमित हो गई है। तुमने धर्म का मार्ग छोड़ दिया है। यद्यपि मेरे बड़े भाई होने के कारण तुम मेरे लिए पिता के समान आदरणीय हो, तथापि तुम्हारे ऐसे कठोर वचन मैं कदापि नहीं सह सकता। सदा मीठी बातें बोलने वाले लोग तो अनेक मिल जाते हैं, किन्तु जो अप्रिय होने पर भी हितकर बात ही कहे, ऐसे हितैषी दुर्लभ होते हैं। मैं तुम्हारा विनाश नहीं चाहता था, इसी कारण मैंने तुम्हें समझाने की चेष्टा की थी, किन्तु तुम्हें मेरी बातें अच्छी नहीं लगीं। यही सत्य है कि जिसका अंत निकट हो, उसे अपने स्वजनों की हितकर बात भी अच्छी नहीं लगती।”
ऐसा कहकर विभीषण वहाँ से निकल गया और दो घड़ी में ही समुद्र के इस पार श्रीराम और लक्ष्मण के निकट आ पहुँचा।
विभीषण का शरीर सुमेरु पर्वत के समान ऊँचा था। वह आकाश में चमकती हुई बिजली के समान दिखाई दे रहा था। उसके पास उत्तम आयुध थे और वह अनेक सुंदर आभूषणों से अलंकृत थे। उसके साथ जो चार राक्षस थे, वे भी बड़े भयंकर पराक्रमी थे। उन्होंने कवच धारण करके अनेक अस्त्र-शस्त्र अपने साथ रखे थे। वे सब भी उत्तम आभूषणों से सजे हुए थे।
पृथ्वी पर खड़े वानरों ने आकाश में उन पाँचों को देखा। तब कुछ विचार करके सुग्रीव ने हनुमान जी आदि से कहा, “देखो, सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लेकर ये निशाचर अवश्य ही हमें मारने के लिए यहाँ आए हैं।”
यह सुनते ही उन वानरों ने साल के वृक्ष तथा पत्थर की बड़ी-बड़ी शिलाएँ उठा लीं और बोले, “आप हमें इन दुरात्माओं के वध की आज्ञा दीजिए। हम इन मन्दमति निशाचरों को अभी मारकर पृथ्वी पर गिरा देते हैं।”
उनकी ये बातें चल ही रही थीं कि तभी विभीषण समुद्र के तट पर आकर आकाश में ही रुक गया। सुग्रीव तथा अन्य वानरों को देखकर उसने वहीं से ऊँचे स्वर में कहा, “रावण नामक जो दुराचारी राक्षस निशाचरों का राजा है, मैं उसी का छोटा भाई विभीषण हूँ। मैंने उसे बार-बार समझाया कि तुम सीता जी को श्रीराम के पास सादर वापस भेज दो। परन्तु उसने मुझे ही अपमानित करके बड़ी कठोर बातें कहीं। इसी कारण मैं अपनी स्त्री व पुत्रों को वहीं छोड़कर श्रीराम की शरण में आया हूँ। आप लोग शीघ्र जाकर श्रीराम को सूचना दीजिए कि ‘शरणार्थी विभीषण आपकी सेवा में उपस्थित हुआ है।’”
यह सुनकर तुरंत ही सुग्रीव ने जाकर श्रीराम और लक्ष्मण से कहा, “प्रभु! रावण की सेना का कोई बहुरुपिया राक्षस अब अकस्मात हमारी सेना में प्रवेश पाने के लिए आ गया है। जिस प्रकार उल्लू कौओं को मार डालते हैं, उसी प्रकार वह भी अवसर पाते ही हमें अवश्य मार डालेगा।”
“आपको अपने वानर सैनिकों पर अनुग्रह और शत्रुओं का निग्रह करने के लिए उचित-अनुचित का विचार, सेना की मोर्चेबंदी, नीतियुक्त उपायों के प्रयोग तथा गुप्तचरों की नियुक्त आदि के विषय में सदा सतर्क रहना चाहिए। ये राक्षस लोग कोई भी रूप धारण कर सकते हैं और इनमें अंतर्धान होने की शक्ति भी होती है। ये शूरवीर तथा मायावी तो होते ही हैं, इसलिए इनका कभी विश्वास करना ही नहीं चाहिए।”
“संभव है कि यह रावण का ही कोई गुप्तचर हो। यह हम लोगों के बीच घुसकर सेना में फूट पैदा कर देगा अथवा अवसर पाकर धोखे से हम पर प्रहार कर देगा। जो सैनिक शत्रु-पक्ष से मिले हुए हों, उन्हें कभी अपने पक्ष में नहीं लेना चाहिए। यह तो स्वयं को रावण का भाई ही बता रहा है, फिर तो यह साक्षात हमारा शत्रु ही हुआ। इस पर विश्वास करना तो सर्वथा अनुचित है।”
“मुझे कोई संदेह नहीं कि इसे रावण ने ही भेजा होगा। पहले यह आपका विश्वास प्राप्त कर लेगा और जब आप उसकी ओर से निश्चिन्त हो जाएँगे, तो अवसर पाते ही आप पर प्रहार कर देगा। हमें अभी इसे बंदी बनाकर कठोर दंड देना चाहिए।
ऐसा कहकर सुग्रीव चुप हो गया और श्रीराम की ओर देखने लगा।
आगे जारी रहेगा…..
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। युद्धकाण्ड। गीताप्रेस)

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