इस्लाम अधिक से अधिक मजहब है, रिलिजन है और कम से कम एक पॉलिटिकल थॉट है, एक वेंडेटा है। एक आदमी (मुहम्मद, जिसे उसके मानने वाले पैगंबर भी कहते हैं,जैसे बुद्ध को बौद्ध, ईसा को ईसाई, रजनीश को रजनीशाइट्स, आसाराम को उसके भक्त, रामपाल को उसके चाहनेवाले और न जाने दुनिया में कितने सेक्ट और उसके पैगंबर हैं) की एक पर्सनल डायरी है, जिसे उसकी मौत के बाद लिखा गया और अब पूरी दुनिया को उसके मुताबिक चलाने की जिद है।
भाई, इस्लाम का फिलॉसॉफिकस कॉन्टेक्ट्स्ट क्या है, इस्लाम की थियोसॉफी क्या है, उसका मेटाफिजिक्स क्या है, आध्यात्म क्या है, उसकी बुनियाद क्या है? कुछ भी नहीं…क्योंकि इस्लाम इनवेडर्स का इनवेडर्स के लिए इनवेडर्स के द्वारा बनाया गया एक डॉक्ट्राइन है। न कम, न ज्यादा।
हां, जब लगा कि इसको एक मजहब के तौर पर पुख्ता करने की जरूरत है, तो मुहम्मद के मरने के 200 साल बाद हदीसें उतारी गईं, 900 ईस्वी के आसपास ईरान में जबरी रहस्यवादी बातों को उतारा गया, थियोसॉफी की बातें हुईं, आध्यात्म को उतारा गया। उसके बाद सूफियों ने (माने हत्यारे जो सूफियों का बाना धर कर उतरे, चाहे वो निजामुद्दीन हो या अजेमर का हो या जहां कहीं भी कब्रें पूजी जा रही हैं) इस पूरे तंत्र को फैलाया और लोगों को फंसाया।
मजे की बात है कि “छाप तिलक सब छीनी रे ….” वाला खुसरू हिंदवी का पहला कंठ बना, जिन लुटेरों ने हिंदू नरसंहार किया, वे सूफी कहलाए और बाद में वही सेंट यानी संत बने (हत्यारा जेवियर, जिसके नाम पर हजारों स्कूल हैं और जो गोआ इनक्विजन का सबसे बड़ा हरामजादा हत्यारा था, चाहें तो कहीं से देख लें। उसके नाम पर बने स्कूलों में दाखिला पाने के लिए हिंदू किसी का भी तलवा चाटने को तैयार हैं)।
मुद्दा केवल एक है।
इस्लाम पर बात हो।
यह आतंक को फैलाने वाला मजहब है।
कुरान पर बात हो।
उसकी एक-एक आयत पर बात हो।
आतंक की जड़ को खत्म किया जाए।
बस….