लगातार दुहराते हुए जब किसी झूठ को विश्वास में बदल दिया जाता है तो उसका खंडन करके भी निर्मूल नहीं किया जा सकता। हमारी अंतश्चेतना का अंग बन जाने के बाद वह इतना प्रबल हो जाता है कि जब उसका खंडन ऐसे प्रमाणों और तर्कों से किया जाता है, जिनके हम कायल हो जाते हैं वहां भी विश्वास बना रहता है। धर्म, कर्मकांड, पुराण, राजनीतिक प्रतिबद्धता आदि के मामले में इसे देखा जा सकता है। इतिहास में इसे लक्ष्य करना कुछ कठिन होता है, क्योंकि जिन तथ्यों की उपेक्षा या तोड़-मरोड़ के साथ भ्रामक प्रचार किए जाते हैं उनसे हितबद्ध लोग खंडन के बाद भी झूठ को जिलाने के प्रयत्न में रहते है। इस को ध्वस्त करने के लिए, लगातार, कई दिशाओं से, कई अध्येताओं के शोधों से उसका खंडन होने के बाद ही गांठें शिथिल होती हैं, जिसमें कहीं से कोई क्षीण से क्षीण कारण तलाश कर लोग पुराने विश्वास पर लौट आते हैं। इस लेखक ने भाषा से लेकर नृतत्व, पुरातत्व, वेद, उपवेद, पुराण सभी में हस्तक्षेप करने का दुस्साहस और इन सभी की मान्य अवधारणाओं का खंडन करने का साहस यही सोच कर किया और अपने प्रमाणों से उन क्षेत्रों के मूर्धन्य विद्वानों को निरुत्तर तो किया, पर कायल कर सका, इसका दावा केवल पुरातत्वविदों के संदर्भ में ही कर सकता है। मार्क्सवादी इतिहासकारों ने तो निरुत्तर होने के बाद भी खासी फजीहत कराने के बाद आक्रमण का राग अलापना बंद किया। पर खुल कर स्वीकार आज तक नहीं किया। जहां तक जानकारी का प्रश्न है इन अनुशासनों में से कोई ऐसा नहीं है जिसके विषय में मैं अपनी जानकारी को संतोषजनक मान सकूं, पर साथ ही कोई ऐसा भी नहीं जिसमें अपनी समझ को दूसरे किसी से अधिक दुरुस्त होने का दावा करने में संकोच से काम लूं। कारण यह कि वे सभी आर्य आक्रमण की कहानी को वास्तविकता मान कर अपने क्षेत्र के कामों को उसके अनुसार समायोजित करते आए थे। मुझ जैसे अदना और ज्ञान और अनुसंधान के उच्च संस्थानों से विलग रहने वाले अन्वेषक द्वारा उनकी स्थापनाओं के अंतर्विरोधों और असंगतियों को उद्घाटित करना उन दिग्गज लोगों की तुलना में अधिक आसान था, क्योंकि मेरे साथ पद या यश का प्रलोभन नहीं जुड़ा था। निर्णायक प्रमाणों से पुरानी मान्यता का खंडन हो जाने के बाद भी सभी क्षेत्रों के विद्वानों को 45 साल बाद भी इसकी जानकारी तक नहीं है कि ऐसी कोई पुस्तक आ चुकी है और वह विचारणीय भी हो सकती है। परंतु जब उनसे सामना होता तो पहले मेरे विचार सुनकर ठहाका वे लगाते थे और मैं मुस्कुराता रहता था। और जब मैं अपना पक्ष रखता था तो चेहरे का रंग उनका बदलता था और मुझे मुस्कुराने की भी जरूरत नहीं पड़ती थी।
यह तो आज की बात है जब आर्य आक्रमण/ आव्रजन की मान्यता ध्वस्त हो चुकी है। पर संस्कृत, इतिहास के उच्च पदों पर आसीन ऐसे ‘विद्वान’ आज भी मिल जाएंगे जो किसी न किसी प्रसंग में आर्यों के आक्रमण की कहानी दुहराते हुए ही अपनी बात शुरू करते हैं ।
मैंने यह भूमिका इस तथ्य को रेखांकित करने के लिए लिखी कि पार्जिटर जो इतने साहसी थे कि ब्रिटिश सत्ता के हित-अनहित की चिंता किए बिना, दावा किया कि पश्चिमोत्तर से भारत पर कोई भी आक्रमण नहीं हुआ हो सकता । यह असंभव है। यह दावा उन्होंने ग्रियर्सन और हार्नले के तर्कों और प्रमाणों की हास्यास्पदता दिखाते हुए किया था। पर बार बार दुहराए गए असत्य को सत्य सिद्ध करने के लिए जो आक्रामक-आक्रांत के तर्क को सहारा देने के लिए जो प्रमाण गढ़े गए थे उनसे वह भी न बच सके। इसलिए पश्चिमोत्तर से आक्रमण की मान्यता को असंभव मानने वाले पार्जिटर भी प्रस्तावित काल से बहुत पहले मध्य हिमालय के उत्तर से आर्यों या ऐलों के उससे भी अधिक असंभव आक्रमण के शिकार हो गए। उन्हें कल्पित करना पड़ा कि ऐल या आर्य क्षत्रिय थे। ब्राह्मण, जिनके संस्कृत पर एकाधिकार के कारण विलियम जोंस ने यह समझा या इसकी आड़ लेकर यह समझाने का कुतर्क तैयार किया था कि उस भाषा का व्यवहार करने वाले बाहर से आए होंगे, जिसने एक एक कदम बढ़ते हुए असभ्य और दुर्दांत आर्यों के लिए आक्रमण अथवा आव्रजन का रूप लिया था, उसे पार्जिटर ने उलट दिया। आक्रमणकारी युयुत्सा के अनुरूप क्षत्रिय हो गए। ब्राह्मण इसी देश के मूल निवासी हो गए। आक्रमण का आधार ही खंडित हो गया, फिर भी आक्रमण को जारी रखना ही होगा। मुझे लगता है कि पार्जिटर की इसी मान्यता को शिरोधार्य करके कोसंबी ने अपनी वह स्थापना दी होगी जिसके प्रति अपना असंतोष मैंने इसी पुस्तक में अन्यत्र व्यक्त किया है, “ उनकी सूझ से वर्ग संघर्ष दो ऊपरी वर्णों की श्रेष्ठता की प्रतिस्पर्धा बन जाता है, जिसमें आर्थिक पक्ष ही गायब है। जिन ब्राह्मणों के बीच सीमित रह जाने के आधार पर विलियम जोन्स ने यह सुझाया था कि यह भाषा भारत से बाहर कहीं और बोली जाती थी और ब्राह्मण इसे अपने साथ लेकर भारत में घुसे होंगे, और जिसके साथ इतना भयानक और सदियों चलने वाला वैचारिक बवंडर खड़ा हुआ जो आज तक जारी है, उन ब्राह्मणों को कोसंबी ने सैंधव नगरों का पुरोहित बना दिया फिर भी भारत पर एक पर एक कई आक्रमण कराते रहे। एक लंगड़ी मौलिकता अपने सहारे के लिए दूसरी लंगड़ी मौलिकता को जन्म देती है और कोसंबी ने और उन्हीं की नकल में मार्क्सवादी इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास को लंगड़ी मौलिकताओं की लड़ी बना दिया और इसके बावजूद मैदान में जमे रहने के लिए दूसरे सभी इतिहासकारों को पाठ्यक्रम से ही नहींं सभी मंचों से बाहर कर दिया और अपने गोबेलियन रट से उनको सामान्य पाठकों के बीच भी निषिद्ध करते हुए इतिहास और संस्कृति के सत्यानाश का वह काम भी पूरा कर दिया जो कलाकृतियों, देवालयों, विद्यालयों, पुस्कालयों को ध्वस्त और राख करने वालों से छूट गया था।“ यदि कोसंबी ने अपने इस दृष्टिकोण को प्रकट करते हुए पार्जिटर का हवाला दिया होता तो इस मूर्खता के लिए मैं उनको उत्तरदायी नहीं मानता। वह व्यस्त थे और जो कुछ पढ़ा था उसे संभवतः व्यवस्थित ढंग से नोट नहीं किया था, इसलिए
जिनको उनका अपना विचार माना जाता है उनमें से अनेक के लिए उन पर चोरी का आरोप लगाया जा सकता है, क्योंकि लिखते समय वह अपनी रौ में रहते थे, विचार दूसरों के हैं, पर उनको रास आ गए तो वह उन्हें अपने विचार या खोज के रूप में पेश कर दिया करते थे।
इस समय हम पार्जिटर के आर्यों और उनके विरोधी ब्राहमणों पर विचार कर कर रहे हैं इसलिए पार्जिटर के इन अंशों पर ध्यान दें:
परंपरा ने इस प्रकार आरोप लगाया कि प्रारंभिक समय में पूरे भारत में सभी राजा और प्रमुख, दो अपवादों को छोड़कर, मनु के वंशज एक सामान्य स्टॉक के थे; और यह ऐसा दुगना कहता है, क्योंकि यह घोषणा करता है, पहला, उसके पुत्रों के संबंध में कि उसने पृथ्वी (अर्थात, भारत) को उनके बीच विभाजित किया, और दूसरा, उसके पुत्र इक्ष्वाकु के वंश के संबंध में कि वे पूरे राज्य में राजा थे दिए गए दोनों संस्करणों के अनुसार भारत का (पृष्ठ 257)। 288
पूर्वोद्धृत, पृ. 2.
आर्य लंबे और कठिन युद्ध के बिना भारत में खुद को स्थापित नहीं कर सकते थे। अपने से पहले देश पर कब्जा करने वाली शत्रुतापूर्ण जातियों में न केवल असभ्य जनजातियाँ थीं, बल्कि सभ्यता की उच्च अवस्था वाले समुदाय भी थे (अध्याय XXV)। आर्यों ने न केवल उन्हें अपने अधीन कर लिया, बल्कि धीरे-धीरे देश के अधिकांश भाग को वनों से भी मुक्त कर दिया, जो इसकी सतह के एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया था, ताकि इसे अपने, अपने मवेशियों और अपनी खेती के लिए उपयुक्त बनाया जा सके। पृ. 3