Home विषयइतिहास वाल्मीकि रामायण अयोध्या कांड भाग 30

वाल्मीकि रामायण अयोध्या कांड भाग 30

सुमंत विद्वांस

516 views
दशरथ जी की आज्ञानुसार तुरंत ही जाकर सुमन्त्र जी उत्तम घोड़ों से जुता हुआ एक स्वर्णाभूषित रथ ले आए।
तब श्रीराम ने हाथ जोड़कर अपनी माता कौसल्या से कहा, “माँ! तुम पिताजी को देखकर यह न सोचना कि उनके कारण तुम्हारे इस पुत्र को वनवास हुआ है। मेरे वनवास की अवधि के ये चौदह वर्ष तो शीघ्र ही बीत जाएँगे तथा तुम मुझे सीता और लक्ष्मण के साथ पुनः सुखपूर्वक देखोगी। अतः तुम मेरे वनवास से दुःखी न होना।”
इसके पश्चात् श्रीराम ने अपनी अन्य साढ़े तीन सौ माताओं से भी हाथ जोड़कर कहा, “माताओं! सदा आप सबके साथ रहने के कारण मैंने जो कुछ कठोर वचन कह दिए हों अथवा मुझसे कोई अपराध हो गए हों, तो आप मुझे क्षमा करें। मैं अब आप सबसे विदा माँगता हूँ।” यह सुनकर उन सबका चित्त व्याकुल हो गया एवं उनके दुःखद आर्तनाद से सारा राजमहल गूँज उठा।
अब श्रीराम, सीता और लक्ष्मण ने हाथ जोड़कर दशरथ जी के चरणों में प्रणाम करके उनकी प्रदक्षिणा की। इसके बाद माता कौसल्या व सुमित्रा के चरणों में प्रणाम किया।
तब माँ सुमित्रा ने अपने पुत्र लक्ष्मण से कहा, “वत्स! तुम श्रीराम के परम अनुरागी हो, इसलिए मैं तुम्हें वनवास के लिए विदा करती हूँ। वन में भी तुम अपने भाई की सेवा में कभी कमी न रखना। ये संकट में हों या समृद्धि में, तुम्हारा कल्याण इन्हीं के साथ है। वनवास में तुम श्रीराम को ही अपने पिता महाराज दशरथ समझना, जनकनन्दिनी सीता को ही अपनी माता सुमित्रा मानना तथा वन को ही अब अयोध्या नगरी समझना।”
अब सुमन्त्र ने हाथ जोड़कर विनयपूर्वक श्रीराम से कहा, “महायशस्वी राजकुमार राम! आपका कल्याण हो। आप इस रथ पर बैठिये। आप जहाँ कहेंगे, मैं वहीं आपको शीघ्रतापूर्वक पहुँचा दूँगा। आपको जिन चौदह वर्षों तक वन में रहना है, उनकी गणना आज से ही प्रारंभ हो जानी चाहिए क्योंकि देवी कैकेयी ने आज ही आपको वन में जाने के लिए प्रेरित किया है।”
तब सीता अपने अंगों में उत्तम अलंकार धारण करके प्रसन्न चित्त होकर उस रथ पर आरूढ़ हुईं। महाराज दशरथ की आज्ञा से उन्हें वनवास के वर्षों की संख्या के अनुसार पर्याप्त आभूषण और वस्त्र दिए गए थे।
उसी प्रकार दोनों भाइयों को भी अनेक अस्त्र-शस्त्र और कवच प्रदान किए गए थे। उन्हें रथ के पिछले भाग में रखकर उन्होंने चमड़े से मढ़ी हुई पिटारी और खन्ती भी उस पर रख दी। इसके बाद दोनों भाई उस रथ पर आरूढ़ हो गए।
उन तीनों को रथ पर आरूढ़ देखकर सारथी सुमन्त्र ने रथ को आगे बढ़ाया।
श्रीरामचन्द्रजी को वनवास के लिए जाता देख समस्त अयोध्या में कोलाहल मच गया। अनेक नगरवासी, सैनिक व अन्य नगरों से आए दर्शक शोक से मूर्च्छित हो गए। इधर-उधर भागते घोड़ों के हिनहिनाने और उनके आभूषणों के खनखनाने की ध्वनि सब ओर गूँजने लगी। मतवाले हाथी कुपित हो उठे। अयोध्या के बच्चे-बूढ़े सभी लोग अत्यंत दुःखी होकर श्रीराम के रथ के पीछे-पीछे ही दौड़ने लगे।
उनमें से कुछ लोग तो रथ के पीछे और अगल-बगल में लटक गए। वे सब श्रीराम को देखने के लिए उत्कंठित थे और उनकी आँखों से आँसूओं की धारा बह रही थी। वे सब उच्च स्वर में सुमन्त्र से कहने लगे, “सूत! घोड़ों की लगाम खींचों, रथ को धीरे-धीरे ले जाओ। हम श्रीराम का मुख देखना चाहते हैं क्योंकि अब उनका दर्शन हम सब के लिए दुर्लभ होने वाला है।”
उसी समय महल में अपनी रानियों से घिरे हुए महाराज दशरथ भी अत्यंत दीन भाव से बोले, “मैं अपने प्यारे पुत्र श्रीराम को देखूँगा” और ऐसा कहकर वे भी महल से बाहर निकल आये।
यह सब देखकर श्रीराम ने सुमन्त्र से कहा, “आप रथ को तेजी से आगे बढ़ाइए।”
एक ओर श्रीराम रथ को तेजी से हाँकने को कह रहे थे और दूसरी ओर जनसमुदाय रथ रोकने को कह रहा था। इस दुविधा में पढ़कर सुमन्त्र न तो रथ को तेजी से बढ़ा सके और न ही उसे पूर्णतया रोक सके।
अयोध्या की अपनी सारी प्रजा को इस प्रकार दुःखी देख महाराज दशरथ अत्यंत दुःख से व्याकुल होकर सहसा भूमि पर गिर पड़े। यह देखकर भीड़ में पुनः कोलाहल मच गया। उसे सुनकर श्रीराम ने पीछे घूमकर देखा, तो उन्हें अपने विषादग्रस्त पिता व शोक के सागर में डूबी हुई माता कौसल्या दोनों ही मार्ग पर अपने पीछे-पीछे आते हुए दिखाई दिए।
अपने माता-पिता को इस दुःखद अवस्था में देखना श्रीराम के लिए असह्य हो गया। उन्होंने पुनः सुमन्त्र को रथ और तेज गति से चलाने को कहा। यह देखकर माता कौसल्या भी और तेज गति से रथ की ओर दौड़ने लगीं। वे ‘हा राम! हा सीते! हा लक्ष्मण!’ पुकार रही थीं और आँखों से आँसू बहाती हुईं रथ के पीछे भाग रही थीं। महाराज दशरथ भी बार-बार ‘सुमन्त्र! ठहरो!’ कहते जा रहे थे और उधर श्रीराम रथ को और शीघ्रता से आगे बढ़ाने को कह रहे थे। इस समय सुमन्त्र जी की दशा दो पाटों के बीच फँसे मनुष्य के जैसी हो रही थी।
तब श्रीराम ने उनसे कहा, “यहाँ अधिक विलम्ब करना मेरे और पिताजी के लिए भी केवल दुःख का ही नहीं, अतीव दुःख का कारण बनेगा, अतः अब रथ को तीव्रता से आगे बढ़ाइए। जब आप हमें छोड़कर लौटेंगे, तब यदि महाराज उलाहना दें, तो आप कह दीजियेगा कि रथ चलाते समय अत्यधिक कोलाहल के कारण आपको उनकी आवाज सुनाई नहीं दी थी।” अंततः श्रीराम की इस आज्ञा को मानकर सुमन्त्र ने घोड़ों की गति बढ़ा दी।
उधर राजा दशरथ से भी उनके मंत्रियों ने कहा, “राजन! जिसके शीघ्र लौट आने की इच्छा हो, उसके पीछे बहुत दूर तक नहीं जाना चाहिए। अतः अब आप महल को लौट चलिए।”
राजा दशरथ का शरीर पसीने से भीग गया था। वे विषाद से पीड़ित हो गए थे। मंत्रियों की यह बात सुनकर वे वहीं खड़े रह गए और अत्यंत दीन भाव से अपने पुत्र को जाता हुआ देखने लगे।
श्रीराम के चले जाने से पूरी अयोध्या उदास हो गई।
उस दिन अग्निहोत्र बंद हो गया, गृहस्थों के घर भोजन नहीं बना, दुःखी प्रजाजनों ने कोई काम नहीं किया, हाथियों ने चारा छोड़ दिया, गौओं ने बछड़ों को दूध नहीं पिलाया और अपने पुत्र को जन्म देने वाली कोई माता भी उस दिन प्रसन्न नहीं हुई। पति अपनी स्त्रियों को, बालक अपने माता-पिता को व भाई अपने भाइयों को भूल गए। सब कुछ छोड़कर लोग केवल श्रीराम का ही स्मरण करने लगे।
श्रीराम के चले जाने से सूर्यदेव भी अस्ताचल को लौट गए; त्रिशंकु, मंगल, गुरु, शुक्र, शनि आदि सब ग्रह भी दारुण होकर वक्रगति से चन्द्रमा के पास पहुँच गए। नक्षत्रों की कान्ति फीकी पड़ गई। समस्त दिशाएँ व्याकुल हो उठीं और घने बादलों के कारण आकाश में भीषण अन्धकार छा गया।
श्रीराम के सब मित्र तो अपनी सुध-बुध ही खो बैठे। शोक से आक्रान्त हो जाने के कारण उनमें से कोई भी रात-भर सो नहीं पाए। सभी अयोध्यावासी शोक संतप्त होकर राजा दशरथ को कोसने लगे। सड़कों पर कोई भी मनुष्य प्रसन्न नहीं था, सबकी आँखें आँसूओं से भीगी हुई थीं और वे सब दुःख से व्याकुल हो गए थे।
वन की ओर जाते हुए श्रीराम के रथ की धूल जब तक दिखाई देती रही, तब तक महाराज दशरथ एकटक उसी ओर देखते रहे। जब रथ बहुत दूर निकल गया और उसकी धूल भी दिखना बंद हो गई, तो अत्यंत आर्त एवं विषादग्रस्त होकर सहसा वे पृथ्वी पर गिर पड़े।
आगे जारी रहेगा…
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस)

Related Articles

Leave a Comment