इंडियन प्रीडेटर:-द बुचर ऑफ दिल्ली! आयशा सूद ने खूंखार सीरियल किलर चंद्रकांत झा के क्राइम घटनाक्रम को डॉक्यूमेंट्री फॉर्मेट में ओटीटी प्लेटफॉर्म नेटफ्लिक्स के गलियारें में उतारा है। 1998 से 2007 और 2013 के कालखंड में कैद निर्मम हत्याओं की इन्वेस्टिगेशन को स्क्रीन प्ले दिया है। ओरिजनल किरदारों के साथ सिनेमाई लिबर्टी ली गई है।
निःसन्देह डॉक्यूमेंट्री का बीजीएम और थ्रिलिंग व हॉरर यानी भय का वातावरण अच्छे से क्रिएट किया गया है। चंद्रकांत के सीक्वेंसेस में डर की फीलिंग होती है। तीन एपिसोड्स में सीमित क्राइम वारदात दिल्ली से खौफजदा कर जाती है। निर्देशक ने सिनेमाई सीक्वेंसेस और ओरिजनल किरदारों के नैरेशन को ठीक से मैच नहीं किया है। सेट्स, कॉस्ट्यूम में अंतर रहता है। साथ ही चंद्रकांत किरदार में दो कलाकारों का नजर आना भी डिस्टर्ब करता है। बारीकियों पर ध्यान दिया जाता तो यकीनन, ज्यादा बेहतरीन कंटेंट बनता।
आख़िरी एपिसोड में अनिल मंडल के परिवार की जुबानी सुनकर हैरानी होती है कि सिस्टम कितना भ्रष्ट रहा था, कि अनिल मंडल की हत्या हो चुकी थी। उसकी जनाकारी भी पुल्स नहीं दे रही थी, परिवार से पैसे ऐंठकर दौड़ा रही थी। अनिल के बेटे का दर्द भयावह उभर कर सामने आता है।
चंद्रकांत हत्या के बाद लाश को तोहफे स्वरूप पुल्स के लिए तिहार जेल के बाहर फेंकता था। कुछ पार्ट्स अलग अलग जगहों पर फेंके। फ़ोन व चिट्ठी से पुल्स को अपशब्द लिखता था। चुनौती देता कि हिम्मत है तो पकड़कर दिखाओ…खुद को पुल्स का जीजाजी व सीसी कहता ख़ैर।
कभी कभी लगता है दिल्ली इज माइंड ऑफ क्राइम, क्योंकि इससे दो राज्यों की सीमाएं सटी हुई है। क्रिमिनल को भगाने व छिपने का अच्छा मौका मिलता है। 2013 में कोर्ट ने सीरियल किलर चंद्रकांत को तीन मामलों में उम्रकैद व फांसी की सजा मुकर्रर हुई थी। जबकि वही, 2012 दिल्ली की गोद में बर्बरतापूर्ण दरिंदगी हुई और इससे पूरा देश सहम गया था।