शक्ति राघव मिलन

Awanish P. N. Sharma

by Awanish P. N. Sharma
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त्रेतायुग में भगवान राम ने नवरात्र में रावध का वध करने से पहले मां दुर्गा की मिट्टी की मूर्ति बनाकर पूजा की। मां ने साक्षात दर्शन देकर रावध वध का आशीर्वाद दिया। इसके बाद मां दुर्गा की प्रतिमा को भगवान राम ने पानी में विसर्जित किया। मेरी जानकारी में देश के अकेले शहर गोरखपुर में आज भी इस परंपरा को न सिर्फ जीवित रखा गया है बल्कि इस परंपरा निर्वहन का उत्साह आयोजकों से लेकर आमजन तक में अद्भुद रूप से बना हुआ है।

शहर की पश्चिमी सीमा पर राप्ती नदी के पार स्थित बर्डघाट रामलीला जिसकी विधिवत शुरुआत 1946-47 से हुई, में रावण दहन के बाद श्रीराम का रथ शहर के बीच के एक चौराहे बसंतपुर के दुर्गा चौक पर आता है। यहां पर शहर की 125 साल पुरानी (वर्ष 1886) दुर्गा मूर्ति स्थापना के दुर्गाबाड़ी की मां दुर्गा की प्रतिमा के पहुंचने पर बर्डघाट रामलीला से रथ पर सवार होकर आए श्रीराम मां का दर्शन करते हैं। फिर मां की मूर्ति अपनी परंपरागत परिक्रमा सम्पन्न करती है। उसके बाद राघव मां की आरती और तिलक लगाकर पूजा करते हैं। इस तरह शक्ति और राघव के इस मिलन के बाद ही माता विसर्जन के लिए राप्ती नदी के लिए प्रस्थान करती हैं। बर्डघाट से रावण दहन के बाद जब श्रीराम की यह रथयात्रा शहर के कई हिस्सों से गुजरती हुई बसंतपुर चौराहे तक पहुंचती तो रास्ते के घरों के छतों से होते पुष्पवर्षा, घण्टे घड़ियालों की आवाजों और पूरे रास्ते सड़कों पर उमड़े जनसैलाब के जयकारों के मिलन से जो अद्भुद दृश्य और वातावरण बनता है उसे वहाँ मौजूद रह कर ही अनुभव किया जा सकता है। जयकारों में एक स्थानीय जयकारा “प्रेम से बोलो भइया, जय दुर्गा मइया” बोले बिना संभवतः कोई नहीं रह पाता।

बचपन से अपने जीये हुए अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि गोरखपुर में मां की मूर्तियां भी एक अनकहे प्रोटोकॉल का पालन करती हैं जब शहर के बीच के आर्यनगर चौराहा जिससे होकर लगभग सभी मूर्तियाँ विसर्जन के लिए जाती हैं उनमें से दर्जन भर से अधिक मूर्तियाँ सबसे पुरानी दुर्गाबाड़ी की प्रतिमा के पीछे चलती हैं। मेरी याद में हमेशा दुर्गाबाड़ी की प्रतिमा कन्धे पर सवार करके विसर्जन के लिए जाती रही है बाकी अन्य मूर्तियाँ मोटर सवारियों पर चलते हुए भी पैदल जाती प्रतिमा के पीछे पीछे पूरे संयम के साथ चला करती हैं। हालांकि इस साल दुर्गाबाड़ी ने भी अपनी परंपरा बदली और प्रतिमा मोटर पर सवार होकर विसर्जन के लिए गयी।

शहर में दुर्गा पूजा मनाने का इतिहास एक सौ पच्चीस साल पुराना है। बताया जाता है कि बंगाल के बाद पूरे देश में अगर सबसे अधिक दुर्गा प्रतिमाओं की स्थापना कहीं होती है तो वह गोरखपुर शहर ही है। इतिहास देखें तो जिला अस्पताल से शुरू हुआ दुर्गा पूजा पंडाल और मां की प्रतिमा की स्थापना का सिलसिला शहर के हर चौराहे और मोहल्लों में चलता है। बंगाली समिति से जुड़े जिला अस्पताल के तत्कालीन सिविल सर्जन डॉ. जोगेश्वर रॉय ने करीब 125 वर्ष पूर्व यानी वर्ष 1886 में दुर्गा प्रतिमा की स्थापना परिसर के अंदर की थी। 1903 में प्लेग महामारी के प्रकोप में यह बंद रही, लेकिन इसको आगे बढ़ाने का क्रम जारी रहा। जुबली हाई स्कूल के तत्कालीन प्राचार्य अघोरनाथ चट्टोपाध्याय ने स्कूल परिसर में प्रतिमा की स्थापना की। इसका भव्य रूप अब दुर्गाबाड़ी में देखने को मिलता है, जहां पिछले 70 वर्षों से दुर्गा प्रतिमा की स्थापना होती चली आ रही है।

सिर्फ बंगाली समाज ही नहीं शहर का जैन समाज पिछले 40 वर्षों से रामलीला का आयोजन और दीवान बाजार में दुर्गा प्रतिमा की स्थापना करता आ रहा है। समय के साथ इसके स्वरूप और सँख्या में भी बड़ा बदलाव आया है। आज शहर में लगभग तीन हजार मूर्तियों की स्थापना होती है जिनमें लगभग दो हजार भव्य और मझौले पण्डाल बनते हैं। इस सँख्या में जिले के ग्रामीण इलाकों, कस्बों आदि में स्थापित मूर्तियाँ शामिल नहीं है। मूर्तियों की बढ़ती मांग से बंगाली कलाकारों के लिए भी यह क्षेत्र रोजगार का बड़ा साधन होता गया है। महीनों पहले आकर मूर्तिकार यहां मिट्टी की मूर्तियों में मां दुर्गा का अक्स उतारने का काम करते हैं, तो 10 दिनों तक सैकड़ों बंगाली ढाक-ढोल वाले कलाकारों को रोजगार मिलता है। पूरा शहर अपने मोहल्लों और कमेटियों में मूर्ति स्थापित करके न सिर्फ10 दिनों तक पूजा-पाठ से माहौल को भक्तिमय बना देता है बल्कि पण्डाल, सजावट आदि से जुड़े हजारों परिवारों को रोजगार का एक अवसर भी देता आया है।

अपने बचपन से शहर की इस शक्ति-राघव मिलन की परंपरा से न जाने क्यों मेरा बेहद गहरा जुड़ाव रहा है। मित्रों के साथ पैदल, तो फिर सायकिल और फिर साधन से बाकी कहीं पहुँचे या न पहुँचे लेकिन ठीक 8 बजते बजते हम बसन्तपुर चौराहे पर अपनी जगह ले लेते थे और माँ और श्रीराम के इस मिलन दृश्य को देखते हुए बरबस आयी रुलाई से मेरा काम खत्म होता था सालों साल। इस साल विजयादशमी को अपने शहर में नहीं था और अपनी शक्ति और अपने राघव के मिलन से मिलन से वंचित हो कर जो दुख हुआ उसे कह नहीं सकता। हाँ… विजयादशमी के दिन रात 9 के आसपास दूर बैठ कर भी उसी बसबस आयी रुलाई से उस मिलन में शामिल जरूर हो गया।

कितना अजब-गजब देश है ये हमारा और ऐसी न जाने कितनी परंपराएँ न जाने कितने गांवों, कस्बों, शहरों में पसरी हैं उसके क्या ही कहने। बस आज मन हुआ कि अपने बचपन के शहर से आज के अपने शहर गोरखपुर की इस अद्भुद पंरपरा की कथा आप सभी को भी सुना दूँ।

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