अगले दिन प्रातःकाल दोनों भाइयों ने स्नानादि से शुद्ध होकर गायत्री मन्त्र का जाप किया व यज्ञ की दीक्षा लेकर अग्निहोत्र में बैठे महर्षि विश्वामित्र की चरण वंदना की। इसके बाद श्रीराम ने कहा, “भगवन्! हम दोनों यह सुनना चाहते हैं कि वे दो निशाचर किस-किस समय आपके यज्ञ पर आक्रमण करते हैं, ताकि हम उचित समय पर यज्ञ की रक्षा के लिए सावधान रहें।”
श्रीराम की यह बात सुनकर आश्रम के सभी मुनि बड़े प्रसन्न हुए, किंतु विश्वामित्र जी कुछ भी नहीं बोले। आश्रम के एक अन्य मुनि ने दोनों भाइयों से कहा, “मुनिवर विश्वामित्र जी अब यज्ञ की दीक्षा ले चुके हैं। अतः अब वे मौन रहेंगे। आप दोनों सावधान रहकर अगले छः दिनों तक लगातार यज्ञ की रक्षा करते रहें।”
यह बात सुनकर दोनों भाई अगले छः दिन-रातों तक लगातार विश्वामित्र जी के पास खड़े रहकर यज्ञ की रक्षा में डटे रहे। छठे दिन जब यज्ञ पूर्ण होने का समय आया, तो श्रीराम ने भाई लक्ष्मण से कहा, “सुमित्रानन्दन! अब अपने चित्त को एकाग्र करके सावधान हो जाओ।”
तभी अचानक यज्ञ के उपाध्याय, पुरोहित व अन्य ऋत्विजों से घिरी यज्ञ-वेदी सहसा प्रज्ज्वलित हो उठी। वेदी का इस प्रकार अचानक भभक उठना राक्षसों के आगमन का सूचक था। उधर दूसरी ओर विश्वामित्र जी व अन्य ऋत्विजों ने अपनी यज्ञ-वेदी पर आहवन की अग्नि प्रज्वलित की और शास्त्रीय विधि के अनुसार वेद मन्त्रों के उच्चारण के साथ यज्ञ का कार्य आगे बढ़ा।
उसी समय आकाश में भीषण कोलाहल सुनाई दिया। मारीच व सुबाहु दोनों राक्षस अपने अनुचरों के साथ यज्ञ पर आक्रमण करने आ पहुँचे थे। उन्होंने वहाँ रक्त की धारा बहाना आरंभ कर दिया। उस रक्त-प्रवाह से यज्ञ-वेदी के आस-पास की भूमि भीग गई।
यह देखते ही श्रीराम ने भाई लक्ष्मण से कहा, “लक्ष्मण! वह देखो मांसभक्षी राक्षस आ पहुँचे हैं। मैं शीतेषु नामक मानवास्त्र से अभी इन कायरों को छिन्न-भिन्न कर दूँगा।”
ऐसा कहकर श्रीराम ने उस तेजस्वी मानवास्त्र का संधान किया। अत्यंत रोष में भरकर उन्होंने पूरी शक्ति से उसे मारीच पर चला दिया। वह बाण सीधा जाकर मारीच की छाती में लगा और उस गहरे आघात के कारण वह सौ योजन दूर समुद्र के जल में जा गिरा।
इसके तुरंत बाद ही रघुनन्दन श्रीराम ने अपने हाथों की फुर्ती दिखाई और आग्नेयास्त्र का संधान करके उसे सुबाहु की छाती पर चला दिया। उस अस्त्र की चोट लगते ही वह राक्षस मरकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। फिर महायशस्वी रघुवीर ने वायव्यास्त्र का उपयोग कर अन्य सब निशाचरों का भी संहार कर डाला। सभी मुनियों को यह देखकर परम आनन्द हुआ।
सफलतापूर्वक यज्ञ संपन्न हो जाने पर महर्षि विश्वामित्र ने प्रसन्न होकर कहा, “हे महायशस्वी राम! तुम्हें पाकर मैं कृतार्थ हो गया। तुमने गुरु की आज्ञा का पूर्ण रूप से पालन किया है। इस सिद्धाश्रम का नाम तुमने सार्थक कर दिया।”
इसके बाद संध्योपासना करके दोनों भाइयों ने प्रसन्नतापूर्वक विश्राम किया।
अगले दिन प्रातः दोनों भाई पुनः विश्वामित्र जी के समक्ष पहुँचे और उनसे निवेदन किया, “मुनिवर! हम दोनों आपकी सेवा में उपस्थित हैं। कृपया आज्ञा दीजिए कि हम अब आपकी क्या सेवा करें?”
तब महर्षि बोले, “नरश्रेष्ठ! मिथिला के राजा जनक एक महान् धर्मयज्ञ आरंभ करने वाले हैं। उसमें तुम्हें भी हम सब लोगों के साथ चलना है। वहाँ एक बड़ा ही अद्भुत धनुष है, जिसे तुम्हें भी देखना चाहिए। मिथिलानरेश ने पहले कभी अपने किसी यज्ञ के फल के रूप में वह धनुष माँगा था, अतः सभी देवताओं ने भगवान् शंकर के साथ मिलकर वह धनुष उन्हें दिया है। राजा जनक के महल में वह धनुष किसी देवता की भांति प्रतिष्ठित है और अनेक प्रकार के धूप, दीप, अगर आदि सुगन्धित पदार्थों से उसकी पूजा होती है। वह धनुष इतना भारी है कि उसका कोई माप-तौल नहीं है। वह अत्यंत प्रकाशमान व भयंकर है। मनुष्यों की तो बात ही क्या, देवता, गन्धर्व, असुर या राक्षस भी उसकी प्रत्यंचा नहीं चढ़ा पाते हैं। हमारे साथ यज्ञ में चलकर तुम मिथिलानरेश के उस धनुष को व उनके उस पवित्र यज्ञ को भी देख सकोगे।”
इसके बाद महर्षि विश्वामित्र ने वनदेवताओं से जाने की आज्ञा ली। उन्होंने कहा, “मैं अपना यज्ञ पूर्ण करके अब इस सिद्धाश्रम से जा रहा हूँ। गंगा के उत्तर तट पर होता हुआ मैं हिमालय की उपत्यका में जाऊँगा। आप सबका कल्याण हो।”
ऐसा कहकर श्रीराम व लक्ष्मण को साथ ले महर्षि विश्वामित्र ने उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान किया। मुनिवर के साथ जाने वाले ब्रह्मवादी महर्षियों की सौ गाड़ियाँ भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ीं।
आगे जारी है…
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। बालकाण्ड। गीताप्रेस)