Home विषयजाति धर्म हानिकारक अतिवाद

अतिवाद सदैव हानिकारक होता है।
अंतत: परशुराम जयंती बीत गयी…
परंतु धीरे-धीरे एक बात स्पष्ट होती जा रही हैं कि हम अतिवाद का शिकार होते जा रहे है और ये अतिवाद हर प्रकार से हमारे लिये हानिकारक सिद्ध होगा।
परशुराम जी की तस्वीरों के साथ रक्त लगा हुआ चमचमाता परशु या फरसा प्रदर्शित तो किया जाता है परंतु उसके साथ क्षत्रिय विनाशक लिखना क्या उचित है?
कितना जानते है आप भगवान परशुराम को? आपने उन्हें उग्र हिंदुत्व का ब्रांड एंबेसडर तो बना दिया है उचित है परंतु जो लकीर आप खींच रहे है वो किसके बीच है? ब्राह्मण शिरोमणि लिखना उचित है परंतु क्षत्रिय विनाशक? आप अपनी जातिगत कुंठा में जिस वर्गीकरण की राह पर जा रहे है वो आपके धर्म को किस अंत पर ले जायेगा क्या आप इतने दूरदर्शी भी नहीं हो सकते?
महापुरुषों और भगवानों का दर्जा प्राप्त दिव्य पुरूषों को आप जाति में बांध कर समाज को भ्रमित और हिंदुत्व को पंगु बनाने पर क्यों तुले हुये है?
ब्राह्मणों को शस्त्र उठाना वर्जित है ये कहां लिखा है? मैं आपको पौराणिक योद्धाओं से लेकर वर्तमान के ब्राह्मण नायको की सूची दे सकता हूं जिन्होंने धर्मार्थ न सिर्फ़ शस्त्र उठाया अपितु वे विधर्मियों का मर्दन करके धर्म पुनर्स्थापना में सफल भी हुये है परंतु क्या मात्र ब्राह्मणों ने ही यह कार्य किया है?
क्षत्रियों ने, वैश्यों ने और शूद्रों ने शस्त्र उठा कर धर्म स्थापना नहीं की? शास्त्रों को प्रसारित नहीं किया? इतना याद रखियें की बिना शास्त्र के शस्त्र का प्रयोग मात्र विनाशकारी त्रास का कारण बनता है और यहीं संदेश हमें भगवान परशुराम ने शताब्दियों पहले दिया था। परंतु हमने क्या किया? हमने उनकी जाति देखी और देखी उनकी विनाशलीला और उसे ही आदर्श बना लिया।
याद रखियें जब भगवान परशुराम सशस्त्र धर्म स्थापना में लगे हुये थे और हर ओर मात्र सनातन ही था और अधर्म फैलाने वाला शत्रु भी सनातन के भीतर ही था जिसका अंत उनके कोप से हुआ। सारे क्षत्रियों का विनाश किया ये तथ्य न जाने कहाँ से चल पड़ा जबकी उन्होंने केवल अत्याचारी राजाओं को नष्ट किया था। उन्होंने अन्य क्षत्रिय राजाओं को ससम्मान अभयदान दिया हुआ था जिसमें अयोध्या और काशी नरेश भी सम्मलित थे और क्षत्रिय भीष्म तो उनके शिष्य ही थे जिनसे वे काशी राजकुमारी अंबा की रक्षा हेतु युद्ध किये थे और सैद्धांतिक रूप से पराजित हुये थे।
वर्तमान परिदृश्य क्या है?
सनातन के शत्रु सनातन में आज भी है परंतु ज्यादा खतरा कहाँ से है भीतर से या बाहर से?
रक्तरंजित परशु का कोप विधर्मी थे न कि क्षत्रिय और वे विधर्मी सदैव सनातन से निकलने वाले हर दिव्य व्यक्तित्व के कोप का भंजन बनते रहेंगे जैसे आज वर्तमान राजनैतिक सत्ता के कोप का भंजन बन रहे हैं क्योंकि हमने अपने गर्व, अपने वैदिक आर्त मत को सुरक्षित करने हेतु ही उन्हें चुना है।
परंतु इन सब के बीच हमारी स्थित क्या है?
“हम अतिवाद का शिकार हो चुके है”
कैसा अतिवाद जानते है?
ये जानते हुये भी की शत्रु सामने है और सशक्त है यहां तक की संख्या बल में भी हमसे ज्यादा है, हम एक विचित्र स्थिति को विकराल रूप देते जा रहे है और वह स्थिति है:
‘हिंदू बनाम हिंदू की’
हम स्वयं को लेकर स्पष्ट ही नहीं है कि हमारा शत्रु कौन है? हम जाति के अनावश्यक शोर में उलझ कर अपनी पूर्व पीढ़ियों की उसी गलती को दोहरा रहे जो हमसे एक बार हमारा गौरव, हमारी भूमि, हमारे मंदिर, हमारी परंपरायें यहां तक की बचे भू भाग पर हमारी राजनीतिक सत्ता तक छीन चुकी थी।
जाति का शोर कुछ इस तरह हमें वर्गीकृत कर रहा है की हम इस विमर्श पर ही दो वर्गों में बंट चुके है:
1. जातिवाद के प्रबल समर्थक
2. जातिवाद के प्रबल विरोधी
अब ये दोनो ही प्रकार के लोग हानिकारक है।
पहले बात जातिवाद के अंध समर्थको की करतें है: ब्राह्मणों का महिमामंडन करने के लिए दूसरे वर्ग को अपमानित करना, नीचा दिखाना या कम योग्य दिखाना क्यों आप लोगों को ठीक लगता है?
फिर यही काम क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी करते हैं।
हर जाति अपने से छोटी जाति ढूढ़ कर उसकी अवमानना करती है, उसे अपमानित करती है, उसे अयोग्य बताती है सिर्फ इसलिये की वे किसी तथकथित उच्च जाति मात्र में जन्म ले लिये है?
और जन्म से ही कोई श्रेष्ठ है भी तो भी क्या वो अपने शास्त्रोंक्त निर्धारित कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे है? चलिये पहले ब्राह्मणों की ही बात करतें है।
आद्य शंकराचार्य ने सामवेद की व्याख्या करते हुये वज्रसूचिकोपनिषद लिखा जिसके अनुसार,
“जो आत्मा के द्वैत भाव से युक्त न हो, जाति गुण और क्रिया से भी युक्त न हो, षड उर्मियों और षडभावों आदि समस्त दोषों से मुक्त हो। सत्य, ज्ञान, आनंद स्वरुप, स्वयं निर्विकल्प स्थिति में रहने वाला, अशेष कल्पों का आधार रूप, समस्त प्राणियों के अंतस में निवास करने वाला, अन्दर-बाहर आकाशवत संव्याप्त, अखंड आनंद्वान, अप्रमेय, अनुभवगम्य, अप्रत्येक्ष भासित होने वाले आत्मा का परोक्ष का भी साक्षात्कार करने वाला, काम-रागद्वेष आदि दोषों से रहित होकर कृतार्थ हो जाने वाला, साम दाम आदि से संपन्न, मात्सर्य, तृष्णा, आशा, मोह आदि भावों से रहित, दंभ, अहंकार आदि दोषों से चित्त को सर्वथा अलग रखने वाला हो, वही ब्राह्मण है।
– वज्रसूचिकोपनिषद (सामवेदीय शाखा)
वैसे तो वेद, मनुस्मृति से लेकर उपनिषदों और पुराणों तक चतुर्वर्ण की स्पष्ट व्याख्या है परंतु भगवद्गीता में स्वयं भगवान कृष्ण कहते है :
शमो दमस्तप: शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥
शान्तिप्रियता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहिष्णुता, सत्यनिष्ठा, ज्ञान, विज्ञान तथा धार्मिकता ये सारे स्वाभाविक गुण हैं, ये कर्म ब्राह्मण श्रेणी के कर्ता के होते हैं।
– श्रीमद्भगवद्गीता १८.४२
इसके अतिरिक्त त्रिकाल संध्या, यज्ञोपवित, त्रिपुंड, शिखा और वाग्मी (वेदपाठी अथवा वेदों को उच्चारित करने वाले) इन पांच लक्षणों से युक्त व्यक्ति ही ब्राह्मण कहलाने योग्य है।
परशुराम जी इन्हीं नियमों के कठोरता से पालन के कारण ही ब्राह्मण शिरोमणि कहलाये जिन्हें राम जैसे क्षत्रिय भी आप हमारे पूज्य है कह कर उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लेते हैं।
जो इस शास्त्रादेश का पालन कर रहें है वे निर्विवाद रूप से पूजनीय है परंतु आज के समय की अधिसंख्य आबादी जिसका इन गुणों से कोई सरोकार ही नहीं है उनको काहे का ब्राह्मण होने का अहंकार है भाई? वो क्यों चाहते हैं कि अन्य जाति वर्ग के लोग उन्हें देखते ही उनके पैर छूने दौड़ पड़े?
और यदि आप ये कर्म कर भी कर रहे है तो भी किसी से सम्मान पाने की अभिलाषा से आप निर्विकल्प कहां रह गये? यदि आपमें श्रेष्ठता का अहंकार है तो भी आप ब्राह्मण कैसे ही रह गये? फिर पूज्य? जी नहीं।
यदि आप पूज्य होंगे तो समाज में कम से कम अपने ही समाज में निर्विवाद रूप से स्वीकृत होंगे बशर्ते चाटुकारों से आगे भी आपमें देखने और स्वीकार करने की क्षमता हो।
अत: उपाय यहीं है कि अहंकार का त्याग और विनम्रता, इस मूल गुण को अपना कर आप इस असत्य दिवास्वप्न से बाहर आइये और ब्राह्मण से पहले वाले स्तर का आईडी कार्ड पहनियें जहाँ पर आप सबसे पहले सनातनी ही है, हिंदू है।
ठीक इसी प्रकार से क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों के लिये आदेश और नियमावली है जो कि आप पालित नहीं कर रहे अत: आप भी स्वयं को पहले हिंदू होने की स्वीकार्यता को आत्मसात करें।
जातिगत अहंकार और हीनता दोनों ही हिंदुत्व के लिये अतिहानिकारक है जिससे जितना बचा जाये उतना उचित है। बल्कि वर्तमान सामाजिक पारिस्थितिकी को देखते हुये जितना ही समदर्शिताशील, समरसताशील, भेदभाव रहित वातावरण हम बनायेंगे उतना ही हम स्वयं को मजबूत कर लेंगे।
इसमें ब्राह्मणों के साथ क्षत्रियों, वैश्यों और दलितों का बराबर रूप से शामिल होना आवश्यक है क्योंकि भगवान परशुराम सभी के है ठीक वैसे ही जैसे भगवान राम सभी के है, भगवान कृष्ण सभी के है।
श्रीमद्भागवतम् के अनुसार परशुरामजी भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों में से अठारहवें अवतार है परंतु गरूड़ पुराण के अनुसार उनके दस मुख्य अवतारों में से वे छठें अवतार हैं।
वे अन्य अवतारों की तरह सर्वथा पूज्य है और सभी के लिये पूज्य है इसलिए उन्हें जाति के साथ विरूपित करने का प्रयास कुंठित ही कहा जायेगा।
और जातिवाद के प्रबल विरोधी:
जो हिंदुत्व की बात करें और जाति का विरोध करें समझ लीजिये वह शून्य है।
बिना उपनाम के इस समाज की कल्पना भी असंभव है, श्रेष्ठता और हीनता से परे इस समाज का अस्तित्व ही जातियों पर टिका हुआ है।
वर्णाश्रम वेद प्रमाणित है, शंकराचार्य की समस्त व्याख्याओं में समर्थित है और स्वयं श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा स्वीकृत है यह ईश्वर कृत व्यवस्था है:
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥
प्रकृति के तीनों गुणों और उनसे सम्बद्ध कर्म के अनुसार मेरे द्वारा मानव समाज के चार विभाग रचे गये। यद्यपि मैं इस व्यवस्था का स्रष्टा हूँ, किन्तु तुम यह जान लो कि मैं इतने पर भी अव्यय अकर्ता हूँ।
– श्रीमद्भगवद्गीता १३.४
अत: अपनी जाति को अपनी पहचान से अधिक कुछ न बननें दे और उस पर गर्व करें न कि अहंकार। न ही जाति को लेकर कुंठित होने की आवश्यकता है क्योंकि हम जोभी है सबसे पहले हिंदू ही है।
सप्तशती के कवचपाठ में एक श्लोक आता है :
यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम्।
तावत्तिष्ठति मेदिनयां सन्ततिः पुत्रपौत्रिकी॥
जब तक इस वसुंधरा पर वन, पर्वत और नदियां बने रहेंगे तब तक यहाँ पुत्र-पौत्र आदि संतान परम्परा बनी रहेगी।
जो धर्म प्रकृति के भी संरक्षण का भी इतना स्पष्ट संदेश देता हो वह सर्वसमावेशी, सर्वाधिक सहिष्णुताशील धर्म भला जाति के आधार पर द्वेषपूर्ण व्यवहार करने का आदेश देगा यह प्रदर्शित करना ही कितना हास्यास्पद है।
अत: दोनों ही अतिवादियों से निवेदन है कि वे अपनी कुंठाग्रस्त मानसिकताओं को नयी पीढ़ी पर थोपना बंद करें। हमें खंडित जातिगत पहचान नही अपितु बस एक पहचान ही चाहिये की हम समग्र रूप से हिंदू ही है।
हमें न अपने प्रतीक पुरूषों को जाति के कुंठित दायरे में बांधना है न ही स्वयं किसी से भी जाति के आधार पर संबंध बनाने और बिगाड़ने है हमारे लिये सनातन ही सर्वश्रेष्ठ है और सर्वस्वीकृत है।

Related Articles

Leave a Comment