Home राजनीति एक थे कांशीराम!
ये एक ऐसा आदमी था जिससे मैं बेहद नफरत और बेहद सम्मान एक साथ करता रहा।
नफरत इसलिये क्योंकि यह बाबा साहेब की वैचारिकी को तोड़कर हिंदुओं में विखंडन करवा रहा था।
सम्मान इसलिये कि पिछले एक हजार साल में हिंदू समाज के बीच यह अकेला राजनेता था, जिसकी वैचारिकी एकदम स्पष्ट और निर्भ्रान्त थी।
वह खुलकर बोलता था, ‘ब्राह्मण, ठाकुर बनियाँ मेरी सभा से उठकर चले जाएं, मुझे उनके वोटों की कोई जरूरत नहीं।’
बसपा का पतन उसी दिन तय हो गया था जब उसने सत्ता के लिए अपने मूल सिद्धान्त को त्यागकर ब्राह्मणों से समझौता किया था।
मायावती ने सोचा था कि वह ब्राह्मणों का उपयोग कर लेंगी लेकिन ब्राह्मणों ने ही उसका उपयोग कर फैंक दिया।
एक समय पूरे देश में अपनी उपस्थिति तेजी से बढ़ाने वाली बसपा आज परिदृश्य में कहीं नहीं बल्कि उसका कोर वोटर चमार भी हताश होकर बिखर गया।
हिंदुओं में पिछले हजार वर्षों में एक भी शासक ऐसा पैदा नहीं हुआ जो खुलकर कहे कि मुझे मुस्लिमों के समर्थन की जरूरत नहीं और अगर इधर आना है तो मेरी शर्तों पर आओ जबकि मुस्लिमों में एक शासक ऐसा नहीं हुआ जिसने ‘इस्लाम फर्स्ट’ की नीति को छोड़ा हो।
सारा फर्क यहाँ है।
हिंदुओं का राजनैतिक नेतृत्व इस्लाम के सामने जाते ही वेश्या की तरह अदाएं दिखाकर उसे रिझाने में जुट जाता है।
अगर राणा राजसिंह को छोड़ दें तो हिंदुत्व ने इस्लाम के सामने आज तक एक ‘पुरुष शासक’ पैदा नहीं किया है।
काश हिंदुत्व भी कांशीराम जैसा स्पष्ट वैचारिकी का कोई नेता पैदा करता।

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