Home हमारे लेखकप्रांजय कुमार कोरोना और जीवन पर उसके दुष्प्रभाव

कोरोना और जीवन पर उसके दुष्प्रभाव

by Pranjay Kumar
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एक अभिभावक एवं प्रबुद्ध व्यक्ति के रूप में मैं बहुविकल्पी परीक्षा-पद्धत्ति को विद्यालय-स्तर पर लागू किए जाने के विरुद्ध हूँ। पता नहीं किनके सुझावों पर सीबीएसई ने यह प्रयोग किया? यह प्रयोग विद्यालयों में बच्चों के समग्र एवं सर्वांगीण विकास के लिए किए जा रहे प्रयासों को बुरी तरह बाधित एवं प्रभावित करता है। न केवल बाधित बल्कि इस पद्धत्ति से हुए टर्म-1 की परीक्षा के बाद लाखों विद्यार्थी चिंता, तनाव और अवसाद में हैं। यह हम सबका दायित्व बनता है कि उनके टूटे हुए मनोबल को सहारा दें।

कोरोना का सर्वाधिक प्रतिकूल प्रभाव शिक्षा, शिक्षण और शिक्षार्थियों पर ही पड़ा है। मार्च 2020 में अचानक बोर्ड-परीक्षा रद्द होने, दो-दो लॉकडाउन लगने, कोरोना की पहली एवं दूसरी लहर के त्रासद परिणामों को देखने-सुनने, ऑनलाइन कक्षाओं के बोझिल दबावों व शरीरिक-मानसिक दुष्प्रभावों को लगातार झेलने तथा तीसरी लहर एवं ओमीक्रोन की वैश्विक आशंकाओं और अफवाहों आदि का चौतरफ़ा शोर सुनते रहने का बाल-मन पर कितना गहरा एवं व्यापक असर पड़ा होगा, इसका अनुमान कोई भी संवेदनशील व्यक्ति सहज ही लगा सकता है! चिंताओं-आशंकाओं का आलम यह है कि मध्य अगस्त-सितंबर से ऑफलाइन कक्षाएँ लगाने की अनुमति मिलने के बाद, आज भी बहुत-से अभिभावक निर्द्वंद्व भाव से अपने बच्चों को विद्यालय भेजने को तैयार नहीं है, परिणामस्वरूप लगभग सभी विद्यालय ऑफलाइन के साथ-साथ ऑनलाइन कक्षाएँ चलाने को बाध्य एवं मजबूर हैं। ऑनलाइन कक्षाएँ कितनी उपयोगी हैं और कितनी औपचारिक, यह सत्य किसी से छुपा नही! ऐसे में जब सीबीएसई ने संपूर्ण पाठ्यक्रम को दो भागों एवं सत्रों में बाँटते हुए प्रथम सत्र की बोर्ड-परीक्षा बहुविकल्पी और द्वितीय सत्र की लिखित व विषयगत (सब्जेक्टिव) रखने की घोषणा की तो शिक्षकों-अभिभावकों-विद्यार्थियों ने खुलकर इसका स्वागत किया। सबको यही लगा कि सत्र देर से प्रारंभ होने तथा कोविड के कारण रोज़ बदलती हुई परिस्थितियों व नित नवीन चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए सीबीएसई बच्चों पर से परीक्षा व पाठ्यक्रम का बोझ कुछ कम करना चाहती है। पर प्रथम सत्र की परीक्षा प्रारंभ होते ही बच्चों के समक्ष सिर मुड़ाते ही ओले पड़ने जैसी स्थिति निर्मित हो गई। अब जबकि बोर्ड-परीक्षा लगभग समापन की ओर है, चारों ओर कोहराम मचा है, क्या विद्यार्थी, क्या शिक्षक, क्या अभिभावक- सभी भारी चिंता, तनाव और अवसाद में हैं।
कोविड-काल से ठीक पूर्व बोर्ड-परीक्षाओं के दौरान व्यापक पैमाने पर होने वाले नकल एवं कदाचार की वायरल तस्वीरें हमारी स्मृतियों में आज भी जिंदा होंगीं। सत्य है कि सामाजिक जागृत्ति के बिना नकल और कदाचार पर पूरी तरह नकेल कस पाना किसी व्यवस्था के लिए कदाचित संभव नहीं। पर जाने-अनजाने व्यवस्था द्वारा ही ऐसे छिद्रों व संभावनाओं को खुला छोड़ देना सर्वथा अनुचित है। नई परीक्षा पद्धत्ति में ऐसे तमाम छिद्र छोड़ दिए गए हैं। इसमें शिक्षण-संस्थाओं के नाम पर नकल का ठेका लेने वालों, डमी स्कूल्स और कोचिंग-संस्थान चलाने वालों के पौ-बारह हैं। बहुविकल्पी प्रश्नों पर आधारित यह परीक्षा कोचिंग संस्थाओं की कार्यप्रणाली एवं तैयारी कराने के तौर-तरीकों के अनुकूल है। कम समय में अधिकतम प्रश्न हल कराने का रूढ़, बद्ध एवं मशीनीकृत(मैकेनाइज्ड) पैटर्न इसमें अधिक कारगर है। यह विद्यालयों में विद्यार्थियों के समग्र, सर्वांगीण, मौलिक एवं नैसर्गिक विकास के लिए किए जाने वाले विविध एवं बहुपक्षीय प्रयासों को बाधित एवं प्रभावित करता है। इसमें एक परीक्षार्थी के लिए एक से अधिक ओएमआर शीट निकालने, परीक्षा-कक्ष का निरीक्षण करने, ओएमआर शीट का मूल्यांकन करने, मूल्यांकित शीट को अपलोड करने जैसी सारी जिम्मेदारी संबंधित विद्यालय पर ही छोड़ दी गई है। उसी शहर या निकट के किसी विद्यालय से किसी शिक्षक को ‘ऑब्जर्वर’ नियुक्त किया गया है। तमाम परीक्षा-केंद्रों पर विषय-विशेषज्ञों के बजाय, किसी से भी ओएमआर शीट का निरीक्षण कराया जा रहा है। ऐसे में नकल व कदाचार को भरपूर प्रोत्साहन मिल रहा है और ईमानदारी से परीक्षा लेने वाले विद्यालय और देने वाले परीक्षार्थियों का भविष्य अंधकारमय दिख रहा है।
कोढ़ में खाज सीबीएसई द्वारा तैयार प्रश्नपत्र भी हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि सीबीएसई ने ये प्रश्रपत्र शिक्षकों से नहीं, अपितु प्रतियोगी परीक्षा कराने वाली एजेंसियों से बनवाए हों। प्रश्नपत्र बनाने के क्रम में कोरोना से उत्पन्न प्रतिकूल परिस्थितियों, विलंबित सत्र, अनियमित कक्षाओं, प्रश्न हल करने के लिए दी गई समय-सीमा, निर्धारित पाठ्यक्रम, बोर्ड द्वारा जारी प्रतिदर्श प्रश्नपत्रों, पूर्वाभ्यास, कक्षानुसार कठिनाई-स्तर, विषयगत विविधता आदि की घनघोर उपेक्षा की गई है। प्रश्नपत्र का स्तर (स्टैंडर्ड) इतना ऊँचा और कठिन रखते हुए सीबीएसई ने कोविड से उत्पन्न व्यवधानों, अनियमित कक्षाओं और विद्यालयों के शैक्षिक स्तरों का बिलकुल भी ध्यान नहीं रखा। परीक्षा संबंधी उसके तमाम निर्णयों और प्रश्नपत्रों को देखकर यही लगता है, जैसे वह इस कठिन कोविड-काल में बच्चों के साथ प्रयोग-दर-प्रयोग कर रही हो। सनद रहे कि बच्चे कोई प्रयोगशाला या उत्पाद नहीं हैं कि एक प्रयोग विफल रहने के बाद दूसरा, फिर तीसरा..चौथा… प्रयोग आजमाए जायँ! और यदि सीबीएसई को ऐसे प्रयोग करने ही थे तो उसे स्थितियाँ सामान्य होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए थी, नवीं और ग्यारहवीं से इसकी शुरुआत कर बच्चों को मानसिक तौर पर पहले तैयार करना चाहिए था। बारहवीं बोर्ड के परिणाम पर ही बच्चों का भविष्य और कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में प्रवेश निर्भर करता है। सीबीएसई की अनिश्चितता, ढुलमुल नीति एवं लापरवाही का दुष्परिणाम बच्चे क्यों भुगतें!
सीबीएसई के तौर-तरीकों एवं प्रश्नपत्रों की वास्तविक स्थिति का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उसे अपने ही द्वारा बनाए गए दसवीं के अंग्रेजी और बारहवीं के समाजशास्त्र विषय के प्रश्नपत्र के लिए दो-दो बार सार्वजनिक माफ़ी तक माँगनी पड़ी। दसवीं के हिंदी, अंग्रेजी, गणित व विज्ञान तथा बारहवीं के अंग्रेजी, गणित, फ़िजिक्स, एकाउंट्स, हिंदी आदि विषयों के प्रश्नपत्र अपेक्षानुरूप नहीं आए। अधिकांश विषयों में उत्तर के रूप में दिए गए विकल्प बहुत मिलते-जुलते, एक जैसे एवं भ्रमात्मक थे। जैसे – बारहवीं में हिंदी-कोर विषय के अंतर्गत पूछे गए प्रश्न संख्या 57 में दिए गए विकल्पों को देखें – ”(b) पिता की जिम्मेदारियों का भार उठाने के लिए, (d) अपने पिता के कामों में हाथ बँटाने के लिए।” हिंदी समेत कई विषयों में पाठ्येतर प्रश्न पूछे गए। कक्षा बारहवीं के ‘एकॉन्ट्स’ विषय में तो ठीक परीक्षा वाले दिन प्रश्नपत्र का पैटर्न बदल दिया गया। 16 दिसंबर और उसके बाद की परीक्षाओं के ओएमआर शीट मूल्यांकन के लिए बोर्ड मंगवाए गए, जबकि उससे पूर्व के मुख्य एवं कठिन विषयों के ओएमआर शीट्स विद्यालयों में ही निरीक्षित किए गए। सीबीएसई को यह भी बताना चाहिए कि गणित और भौतिकी जैसे विषयों में 0.8 या 1अंक के प्रश्नों के लिए एक-एक पृष्ठों में हल किए जा सकने वाले जटिल प्रश्नों को पूछना कितना व्यावहारिक एवं न्यायसंगत था? इतना ही नहीं ऐसे प्रश्नों के लिए सही चरणों (स्टेप्स) पर कोई अंक न देना, सीखने की चरणबद्ध प्रक्रिया के एकदम विपरीत है। नई पद्धत्ति की परीक्षा में भाषा एवं सामाजिक-विज्ञान के प्रश्नों में मौलिक चिंतन, रचनात्मक दृष्टि, आलोचनात्मक विश्लेषण या अभिव्यक्ति-कौशल के आकलन-अवलोकन का कोई स्थान व अवसर ही नहीं रखा गया। भाषागत दक्षता एवं अभिव्यक्ति-कौशल में लगातार दर्ज की जा रही गिरावट के बावजूद ऐसी परीक्षा-पद्धत्ति का औचित्य समझ से परे है। हिंदी-अंग्रेजी में बहुविकल्पी प्रश्नों के अंतर्गत कवि की मनःस्थिति, शब्दों के प्रतीकार्थ, कविता के संदेश जैसे तमाम प्रश्न पूछे गए, जिनमें स्वतंत्र एवं भिन्न विवेचना-व्याख्या की गुंजाइश तो सदैव बनी ही रहती है। इस प्रकार की परीक्षा-पद्धत्ति से तो रटकर वमन करने की परिपाटी व अंकों की गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा को ही बल मिलेगा
नई परीक्षा-पद्धत्ति की तमाम त्रुटियों, न्यूनताओं, छूटे छिद्रों को ध्यान में रखते हुए सीबीएसई को टर्म-1 की परीक्षा का अंक-भार (वेटेज) कम करना चाहिए, टर्म-2 की परीक्षा के आधार पर ही उनका मूल्यांकन करना चाहिए और उसका पाठ्यक्रम, प्रश्नपत्र का पैटर्न, परीक्षा की समयसारिणी आदि की शीघ्रातिशीघ्र घोषणा करनी चाहिए। ग़ौरतलब है कि समय से घोषणा न किए जाने के कारण टर्म-1 की परीक्षा के प्रारूप, पाठ्यक्रम, अंक-विभाजन, प्रतिदर्श प्रश्न-पत्र, समयसारिणी आदि को लेकर अंत-अंत तक बच्चे, शिक्षक और विद्यालय तीनों भ्रमित रहे। बोर्ड परीक्षार्थियों के टर्म-1 के बुरे अनुभवों से बच्चों को उबारना समाज व व्यवस्था की नैतिक जिम्मेदारी है। याद रहे, चाहे वह बोर्ड की परीक्षा हो या ज़िंदगी की, हारे हुए मन व टूटे हुए मनोबल से कदापि उत्तीर्ण नहीं की जा सकती।

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