लोग प्रायः भारत में अमीरों व सरकारों पर तंज कसते हैं, किसानों व गरीबों की आत्महत्या का उत्तरदायी मानकर।
किसी ने कुछ कर्ज के कारण तो किसी ने गरीबी के कारण आत्महत्या कर ली।
पर क्या यही सच है?
अगर ये सच है तो प्राचीन भारत में गुप्त काल के स्वर्णयुग में भारत में आत्महत्याओं की उच्च दर जलसमाधि के रूप में क्यों थी जिसे रोमिला टाइप इतिहासकार और पंत जैसे कवि अपने चिरपरिचित अंदाज में सर्वहारा वर्ग की दुर्दशा के रूप में चित्रित करते हैं जबकि प्रामाणिक रूप से भारत के समस्त नागरिक अपने इतिहास में इतने धनी कभी नहीं रहे।
अगर ये सच है तो जापान और स्विट्जरलैंड जैसे देश जिन्होंने अपने नागरिकों के लिए अपने देशों को सर्वसुविधा युक्त साक्षात स्वर्ग में बदल रखा है, वहाँ आत्महत्याओं की आपेक्षिक दर ज्यादा क्यों है?
क्योंकि आत्महत्या के पीछे मनोविज्ञान है और परिस्थितियां उसे केवल एक्सीलरेट करती हैं।
मूल कारण है जीवन की एकरसता से उत्पन्न ऊब,भय,अहं।
यह ऊब आर्थिक कष्ट के कारण हर रोज की किचकिच के कारण से भी हो सकती है और अत्यधिक धन व संपन्नता के कारण भी।
भय दूसरा कारण है जिसका कारण आर्थिक कठिनाइयों की दुष्कल्पना, प्रेम को खो देने पर घायल अहं व साथी के बिना अकेलेपन का भय आदि भारत जैसे देशों में है।
जापान व पश्चिमी देशों में यह सुख से उत्पन्न ऊब व चेतना को सही दिशा न मिलने के कारण होती है।
हिंदू ऋषि दो विषयों में बहुत सतर्क थे-
प्रथम, विज्ञान के दैनिक जीवन में उपयोग को लेकर जिसके कारण उन्हें प्रकृति के संतुलन के बिगड़ने का भय था, जो आज सत्य सिद्ध हो रहा है।
द्वितीय, अर्थ व काम को निगलेक्ट करना या उसके अतिरेक के दुष्प्रभाव, जिसकी अंतिम परिणिती आत्महनन में ही हो सकती थी।
पूरब और पश्चिम दोंनों ही इस असंतुलन के शिकार हैं।
इसके लिए उपचार था धर्म व मोक्ष।
जब तक अर्थ व काम, धर्म द्वारा नियंत्रित न होंगे और आपको इस ग्रह पृथ्वी पर आने का लक्ष्य पता न होगा, दुःख रहेंगे ही रहेंगे।
विडंबना यह है कि दुःख के आर्यसत्य को पहचानने वाले तथागत बुद्ध ने उसका जो उपाय बताया उसने स्वयमेव ही इस असंतुलन को सबसे ज्यादा बढ़ाया।
विडंबना यह है कि बुद्ध का देश भारत भी भौतिकतावाद व उपभोक्तावाद के चरम पर है।