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वैदिक भारत में विश्व में प्रथम बार ‘राज्य’ के लिए ‘सभा और समिति’ के रूप में प्रथम गणतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना के साथ ऋषियों ने पूरे भारत को ‘सर्वसमावेशी गणतंत्र’ के अंतर्गत ‘एक राष्ट्र’ का स्वप्न देखा जिसका संकेत ऋग्वेद के द्वितीय मंडल में कुछ इस प्रकार है-
गणानां त्वा गणपतिं हवामहे
कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम् ।
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत
आ नः श्रीणवन्नूतिभिः सीद भगवानम् ॥(ऋग्वेद 2.23.1)
किसी गणतंत्र के गणाध्यक्ष का किसी धार्मिक विधि को पूरा करने हेतु किया गया यह आह्वान कालांतर में रुद्रगणों के अधिपति विनायक से जोड़ दिया गया ताकि ‘भारतीय राष्ट्र राज्य’ को स्मरण रहे कि भारतीय ऋषियों का मूल उद्देश्य कभी भी राजतंत्र नहीं था क्योंकि वह जानते थे कि राजतंत्र अंततः व्यक्तिपूजा, जन्मना सामाजिक असमानता और संस्थागत भ्रष्टाचार को जन्म देगा।
परंतु ऋषियों की इस पवित्र भावना में एक द्वंद भी निहित था और वह था विचार स्वतंत्रता के साथ-साथ राष्ट्रीय एकता का असंभव स्वप्न।
चूँकि भारत के प्रत्येक गण की अपनी परम्पराएँ ही उनका संविधान थीं और एकीकृत संविधान के अभाव में राष्ट्र की एकता का स्वप्न असंभव था अतः राजतंत्र के लिए स्वतः मार्ग खुल गया।
और इस तरह ‘चक्रवर्तित्व और एकराट’ के आदर्श में गणतंत्रों के स्वरूप को बनाये रखकर राष्ट्रीय एकता को प्रथम बार ऋषभपुत्र भरत ने प्राप्त किया और कृतज्ञ राष्ट्र ने इस भूखंड को नाम दिया ‘भरतखंड’।
ऋषियों के नेतृत्व में यज्ञों की ज्वालाओं के प्रकाश में दक्षिण में सागर तक इस राष्ट्र की सीमा निर्धारित हुई जबकि उत्तर में सम्राट रघु ने वंक्षु नदी को सीमा घोषित किया और इस तरह भरतखंड ‘भारतवर्ष’ के रूप में अपने पूर्ण स्वरूप को प्राप्त हुआ जिसकी उद्घोषणा चक्रवर्ती सम्राट युधिष्ठिर के काल में अर्जुन ने उत्तर कुरु अर्थात अर्थात वर्तमान किर्गिजिस्तान के द्वार पर अपने शंख देवदत्त को फूंक कर की और जिसकी पुष्टि आसेतु चक्रवर्ती सम्राट चंद्रगुप्त ‘विक्रमादित्य’ ने हिंदुकुश पर ‘गरुड़-स्तम्भ’ रोप कर की।
इसके आगे गणतंत्र व्यवस्था युगानुकूल न होने के कारण समाप्त हो गई।
कृष्ण के नेतृत्व वाले महान यदु गणसंघ और लिच्छिवियों के नेतृत्व वाले वज्जि गणसंघ के पश्चात यौधेय-अर्जुनायन गणसंघ भारत का अंतिम गणसंघ था।
उसके पश्चात मध्यभारत के ‘काक’ जैसे समृद्ध गणों की स्मृति केवल कौए ‘काक भुशंडि’ के रूप में और गणसभाओं अर्थात संसदों के अवशेष ‘खांप पंचायतों’ के रूप में रह गयी।
लेकिन ‘गणतंत्र और विचारस्वतंत्रता’ हिंदुओं के खून में थी इसीलिये गणतंत्रों के उत्तराधिकारी राजपूतों में ‘राजा’ को सिर्फ ‘बड़ों में बड़ा’ माना गया और तुर्कों मुगलों की कुसंगति आने के पूर्व अभिवादन में भी राजपूत अपना सिर नहीं झुकाते थे, ‘अन्नदाता’ बोलना तो बहुत दूर की बात थी।
अस्तु! यह भारत का थोड़ा अच्छा भाग्य था कि इस्लाम की गुलाम और राजतंत्री मानसिकता के विपरीत ब्रिटिश जैसी गणतंत्री प्रवृत्ति वाली जाति के हाथों में भारत की सत्ता आई इसीलिये उनके प्रभुत्व के दौर गुजरने के बाद भी उनकी संस्थाओं के प्रभाव के कारण हमने अपने ‘राष्ट्र-राज्य’ के संचालन हेतु ‘गणतंत्री’ व्यवस्था को चुना जिसे मूर्तरूप दिया गया संविधान के रूप में।
आज 26 जनवरी का दिन केवल ‘अम्बेडकर स्मृति’ के लागू होने भर का दिन नहीं है बल्कि अतीत के उन सारे गणतंत्रों को स्मरण करने का दिन भी है जिसने संसार के समक्ष ‘गणतंत्र का आदर्श’ रखा था।
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सन्दर्भस्रोत:-
1)ऋग्वेद
2)महाभारत
3)श्रेण्य युग
4)इंदु से सिंधु तक

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