अवतार सिंह भड़ाना ने जैसा बहाना चुनाव न लड़ने के लिए दिया है, उस पर हंसने की कोई वजह नहीं है। आखिर, स्वामी प्रसाद मौर्य ने शोषितों, दलितों की अनदेखी के लिए भाजपा छोड़ी की नहीं, संघमित्र मौर्य ने संस्कार का पाठ पढ़ाया कि नहीं, अखिलेश यादव ने दर-दर भगवान की तलाश की या नहीं?
बहरहाल, किसानों के नाम पर जो अराजकता और तथाकथित आंदोलन पूरे साल भर चला, उसका भी डिविडेंट अखिलेश को नहीं मिलने जा रहा है। दरअसल, मुलायम-सुत अपने असली रंग दिखाना न भूले हैं और उन्होंने तय कर दिया कि वह मुल्लायम-यादव के असली फरजंद साबित हो कर रहेंगे।
पश्चिमी यूपी की जिन सीटों पर जाट जीभ लपलपाते हुए बैठे थे और जिन सीटों को वह अपनी जागीर समझ रहे थे, उसे अखिलेश ने मुसलमानों के हवाले कर दिया। जयंत की हालत खराब है। वह न तो निगल पा रहे हैं, न ही उगल। अखिलेश भूल रहे हैं कि मुजफ्फरनगर के दंगे वह भले भूल जाएं, वहां के जाट कभी नहीं भूलेंगे, कैराना भले सपा के लिए मसला न हो, लेकिन हिंदुओं के लिए वहां से पलायन मसला है।
होली को जुमे के दिन पड़ने की वजह से रोक देना अखिलेश भले भूल गए हों, बनारस के घाटों पर पूरी हिंदू कौम को गाली देनेवाले पोस्टर लगाना सपा के प्रमुख भले भूल गए हों, अपने बाप को भरे मंच पर गाली देना मुलायम-पुत्र भले भूल गए हों, लेकिन जनता ऐसी बातों को भूलती नहीं, कहे या न कहे।
उसको योगीराज के दीए भी याद हैं, कुंभ का आयोजन भी याद है और कांवड़ियों पर हेलीकॉप्टर से फूल बरसाना भी याद है।
अखिलेश और उनके चाटुकार सेकुलर-(कु)बौद्धिक सलाहकार हिंदुओं को जाति में बांटते वक्त यह बेसिक बात भूल जाते हैं कि जब महजहब के आधार पर मारकाट होती है तो भीम-मीम का पाठ भी लोग भूल जाते हैं।
चुनाव के समय जनता इस बेसिक बात को नहीं भूलती है।