कहा जाता है कि सौंदर्य देखने वालों की आँखों में होता है और शायद यह सत्य भी है इसलिये सौंदर्य के मानक व्यक्तिगत होते हैं
लेकिन फिर भी आर्य मान्यता के अनुसार देशकाल, वातावरण, संस्कृति और सबसे बढ़कर स्वयं की प्रकृति ही सौंदर्य का निर्माण करती है।
शायद इसीलिए स्त्रीसौंदर्य के संदर्भ में भारतीय मानक पश्चिम के तनिक अलग रहे हैं।
पश्चिम में स्त्री के सुनहरे बाल और मेदरहित मर्मर देहयष्टि प्रमुख तत्व रही है जबकि भारत में कृष्णवर्णी सघन केशराशि व संतुलित मांसलता पुरुषों का आकर्षण रही है।
भारत में अलग-अलग युग में अलग-अलग नारियां स्त्रीसौन्दर्य का प्रतीक रही हैं लेकिन वैदिक पौराणिक युग में उर्वशी, महाभारत युग में पांचाली द्रौपदी, राजपूत युग में पद्मिनी और उत्तर-मध्य युग में मस्तानी अधिक प्रसिद्ध रहीं।
आधुनिक युग में कहा जाता है कि जयपुर की महारानी गायत्री देवी और ग्वालियर की राजमाता विजयाराजे सिंधिया का सौंदर्य कुलीन भारतीय स्त्री सौंदर्य के मानक के रूप में विश्व भर में प्रतिष्ठित था।
सिनेमाई क्षेत्र में मधुबाला अपनी मृत्यु के बाद भी भारतीय पुरुषों के मन में लंबे समय तक बसी रहीं यहां तक कि पोपले मुँह वाले बुज़ुर्ग आज भी उन्हें शिद्दत से याद करते हैं लेकिन चाहे उनकी मु स्लिम पृष्ठभूमि हो या ‘मुगल ए आजम’ में निभाये ‘अनारकली’ के पात्र का प्रभाव, उनकी छवि एक ‘दासी के सौंदर्य’ से अधिक नहीं बन सकी।
नरगिस दत्त ‘मदर इंडिया’ की छवि पा गईं और हेमामालिनी स्त्रीपारखी राजकपूर से ‘स्वप्न सुंदरी’ की उपाधि लेकिन प्रेमिका, पत्नी, भाभी, माँ के समस्त रूपों में विशुद्ध भारतीय स्त्री के प्रतीक का आना अभी बाकी था।
और फिर उस छवि का आगमन हुआ दक्षिणी सिनेमा के माध्यम से,
सत्यजीत रे ने कहा उसे ‘स्क्रीन पर भारतीय स्त्री का सुंदरतम रूप’।
#जयाप्रदा
एक ऐसी तारिका जिसे वह स्थान कभी मिला ही नहीं जिसकी वह अधिकारिणी थी।
उनका सौंदर्य ही उनकी प्रगति में बाधक बन गया क्योंकि उनके गरिमामय सौंदर्य में खोए भारतीय स्त्रीत्व के आदर्शों से इतर उन्हें किसी अन्य रूपों में स्वीकार कर ही नहीं पाते थे।
उनके स्त्री शरीर में आनुपातिक रूप से स्थूल कटि और वक्ष काव्यशास्त्र की नायिका के प्रतिमान के अनुरूप भले न हों लेकिन उनके मुखमंडल का सौंदर्य पुरुष को किसी और अंग की ओर झाँकने की अनुमति देता ही नहीं था क्योंकि वह पुरूष ह्रदय को भावों के जाल में उलझा देता था।
ओष्ठ के बाँयी ओर का तिल बसंत का पुष्प बन जाता था और तीखी नसिका व उत्फुल्ल अधर अनंग का अदृश्य प्रहार करते थे।
मृणाल बाँहें और नितम्बचुम्बी सघन केशराशि किसी भी पुरुष ह्रदय को बांध लेती थी और मंद स्मित नंदनवन की सृष्टि करता था लेकिन…
आँखे!
आँखें एक ऐसी प्रहेलिका की रचना करती थी जो पुरुष ह्रदय को अबूझ भाव से भर देती थी क्योंकि करुणायुक्त आँखों से बरसते मातृत्व के सम्मुख कामभाव तिरोहित हो जाता था।
इसी विरोधाभास के कारण उनका चेहरा भारतीय स्त्री का ही नहीं स्त्रीत्व का भी रहस्यमय प्रतीक बन गया।
उनका रहस्यमय विरोधाभासी सौंदर्य उनकी शक्ति भी था और कमजोरी भी।
यही कारण था कि उनका सौंदर्य एक मिथक तो बना परंतु कैरियर में उनके रोल पूरी तरह आदर्श पत्नी, आदर्श भाभी, आदर्श बहू व आदर्श माँ के रोल तक सिमट गये।
लेकिन भारतीय जनमानस में सिनेमाई माध्यम से उन्होंने भारतीय स्त्रीत्व व स्त्री सौंदर्य की जो छवि पाई वह उनके कैरियर से बड़ी…. बहुत बड़ी उपलब्धि है।
सिनेमाई ही सही लेकिन भारतीय स्त्री के सौंदर्य को उन्होंने जिस रूप में स्थापित किया था वही गरिमामय सौंदर्य भारतीय पुरुष के मन में रचा बसा है, काम्य है और उसी की पूजा करता है।