मैंने 2012 चुनाव मे भाजपा से टिकट मांगी थी। कोई भी चीज हो, मांगना अपने आप मे गलत टर्म है पर टिकट सम हाउ मांगी ही जाती है।
टिकट मांगना वाकई कष्ट कारक होता है। वजह यह होती है कि टिकट मांगने के पूरे प्रोसेस मे आप के दसियों लाख रुपये खर्च होते हैं, उससे भी ज्यादा आपकी जिंदगी का एक महत्वपूर्ण समय चौबीस घंटे राजनीति मे वह भी पार्टी के प्रचार प्रसार, आज फलाने नेता आ रहे हैं, कल यह सम्मेलन, परसों रैली मे भीड़ ले जाना आदि मे जाता है।
यदि आपने राजनीति से पैसा बनाया है / बना रहे हैं तो समस्या नहीं होती, पर यदि आप बाहर से मेहनत कर राजनीति मे पैसा खर्च करते हैं तो कष्ट होता ही है। फिर उसके पश्चात टिकट के लिए आप जब किसी बड़े नेता से मिलिये तो नेता तो नहीं पर उसके pa आदि आपसे ऐसे बेहैव करेंगे, जैसे आपने उनकी किडनी मांग ली हो। और निःसंदेह चमचा गिरी भी करनी पड़ती है। प्रायः संगठन / संघ से गए लोग इसमें पारंगत नहीं होते, तो स्वाभिमान भी हर्ट होता है।
टिकट न मिलने पर असंतोष होता है, व्यक्तिगत निराशा होती है, क्रोध भी आता है। भाजपा जैसे दलों मे इस असंतोष को मैनेज कर लिया जाता है। शायद ही कोई ऐसी सीट हो जहां भाजपा से नाराज टिकट मांगने वाले भाजपा के खिलाफ खड़े हो जाएँ। नाराजगी स्वाभाविक है, पर पार्टी के प्रति आस्था ऐसी होती है कि उसके खिलाफ नहीं खड़े होते।
वहीं समाजवादी पार्टी का आलम यह है कि लखनऊ की लगभग सभी सीटों पर समाजवादी पार्टी के चर्चित चेहरे निर्दलीय खड़े हैं। वैसे इनमें प्रायः हैं वही लोग जो यदि सपा के सिंबल पर खड़े होते तो अच्छी टक्कर देते, पर उनकी भैय्या जी से व्यक्तिगत सेटिंग न थी। सरोजनी नगर मे शारदा शुक्ल, btc मे राजेन्द्र यादव, मोहन लाल गंज से पुष्कर, मलिहाबाद से इंदर रावत – यह सब नेता पूर्व विधायक हैं, निर्दलीय जीत भले ही न पायें, पर अपने दम पर सपा को हराने की ताकत जरूर रखते हैं। मैं बहुत पहले से बोल रहा हूँ कि अखिलेश का टिकट बंटवारा बहुत गलत है, जैसे जैसे चुनाव नजदीक आता जा रहा है, सपा मे टिकट वितरण से उपजी समस्याएं शांत नहीं हो रही हैं उलटे बढ़ती ही जा रही हैं।
आज की तारीख मे इन्हीं सपा के बागी प्रत्याशियों की वजह से लखनऊ की सभी सीटों पर भाजपा पहले से मजबूत है।