Home विषयऐतिहासिक वाल्मीकि रामायण अयोध्या कांड भाग 33
अपने प्रिय भाई की रक्षा के लिए लक्ष्मण को इस प्रकार सारी रात जागते हुए देखकर निषादराज गुह को बड़ा कष्ट हुआ। उन्होंने कहा, “राजकुमार! तुम्हारे लिए यह आरामदायक शैय्या तैयार है, तुम इस पर विश्राम करो। मैं और मेरे सेवक रात-भर यहाँ पहरा देते रहेंगे, अतः तुम निश्चिन्त रहो। मैं सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ कि मुझे श्रीराम से अधिक प्रिय कोई और नहीं है। उनकी कृपा से ही मैं इतना सुखी हूँ। मैं हर प्रकार से उनकी रक्षा करूँगा।”
यह सुनकर लक्ष्मण जी बोले, “बन्धु! तुम यहाँ हम सबकी रक्षा कर रहे हो, इसी कारण हम निर्भय हैं। फिर भी जब स्वयं श्रीराम व माँ सीता भूमि पर शयन कर रहे हैं, तब मेरे लिए किसी उत्तम शैय्या पर विश्राम करना या स्वादिष्ट अन्न खाना कदापि संभव नहीं है।”
“मुझे तो बार-बार अयोध्या का विचार आ रहा है। अन्तःपुर की सब स्त्रियाँ बहुत आर्तनाद करके अब अत्यधिक कष्ट के कारण थककर चुप हो गई होंगी। राजभवन का हाहाकार और चीत्कार अब शांत हो गया होगा। संभव है कि शत्रुघ्न की प्रतीक्षा करते-करते मेरे माता सुमित्रा तो जीवित भी रह जाए, किन्तु श्रीराम से बिछड़ने के बाद अब महाराज दशरथ व रानी कौसल्या कब तक जीवित रह पाएँगे, इसकी मुझे बड़ी चिंता है। क्या हम लोगों के अयोध्या लौटने तक हमारे माता-पिता जीवित रहेंगे? क्या हम लोग वनवास की अवधि पूर्ण करके कभी अयोध्या लौट सकेंगे? ऐसे अनेक विचार मेरे मन में उमड़ते रहते हैं।”
इस प्रकार की बातें करते-करते राजकुमार लक्ष्मण दुःख से विलाप करने लगे। उनकी वह दशा देखकर गुह को भी अत्यधिक व्यथा हुई। उन दोनों की रात ऐसे ही रोते हुए कटी।
प्रातःकाल जब सूर्योदय का समय होने लगा, तब श्रीराम ने लक्ष्मण को बुलाकर कहा, “तात! अब रात्रि व्यतीत हो गई है और सूर्योदय का समय आ पहुँचा है। यह अत्यंत काले रंग का कोकिल पक्षी (कोयल) भी कुहू-कुहू बोल रहा है। वन में मोरों की वाणी भी सुनाई दे रही है। अब शीघ्र ही हमें गंगाजी के पार उतरना चाहिए।”
श्रीराम की यह इच्छा सुनकर लक्ष्मण जी ने गुह और सुमन्त्र को बुलाया तथा उन तीनों को पार उतारने की व्यवस्था करने को कहा। यह आज्ञा पाकर निषादराज ने अपने सचिवों से कहा, “तुम शीघ्र ही घाट पर ऐसी सुन्दर नाव ले आओ, जो मजबूत व सुगमता से खेने योग्य हो। उसमें डाँड़ लगा होना चाहिए और कर्णधार भी बैठा हुआ हो।”
आज्ञा मिलते ही सचिवों ने उसका पालन किया व एक उत्तम नौका उपलब्ध करवा दी। श्रीराम के आदेश पर सब सामान नाव पर चढ़ा दिया गया।
श्रीराम व लक्ष्मण दोनों भाई कवच धारण करके, तरकस व तलवार बाँधकर एवं धनुष हाथ में लेकर सीता के साथ उसी मार्ग से गंगा तट तक पहुँचे, जिससे सभी लोग घाट पर आते-जाते थे।
वहाँ पहुँचने पर सारथी सुमन्त्र ने पूछा, “प्रभु! अब मैं आपकी क्या सेवा करूँ?”
तब श्रीराम बोले, “सुमन्त्र जी! अब आप शीघ्र ही पुनः अयोध्या जाइये और वहाँ सावधान होकर रहिये। महाराज की आज्ञा से हमने इतनी दूर तक रथ में यात्रा की है, किन्तु अब हम लोग रथ छोड़कर पैदल ही वन में जाएँगे। अतः अब आप लौट जाइये।”
यह सुनकर सुमन्त्र अत्यंत व्याकुल हो गए। वे श्रीराम को इस प्रकार छोड़कर लौटने को तैयार नहीं थे।
श्रीराम ने उन्हें अनेक प्रकार से समझाया और फिर अपने माता-पिता के लिए उन्हें यह संदेश दिया – “सुमन्त्र जी! आप मेरी ओर से महाराज को प्रणाम करके कहियेगा कि ‘हम लोगों को अयोध्या से निकलना पड़ा या वन में रहना पड़ेगा, इसका मुझे या लक्ष्मण को कोई शोक नहीं है। अतः आप लोग भी शोक न करें। हम चौदह वर्ष समाप्त होने पर पुनः लौट आएँगे और आप सबका दर्शन करेंगे।’
सुमन्त्र जी, आप उनसे यह भी कहना कि ‘भरत को शीघ्र बुलवा लें और युवराजपद पर अभिषिक्त कर दें।’
मेरी माता को आप सन्देश दीजिएगा कि ‘माँ! तुम्हारा पुत्र स्वस्थ एवं प्रसन्न है।’
आप भरत से भी कहियेगा कि ‘तुम्हारी दृष्टि में कैकेयी का जो स्थान है, वही सुमित्रा का व मेरी माता कौसल्या का भी होना चाहिए। उनमें तुम कोई भेदभाव न करना।’”
फिर भी सुमन्त्र नहीं माने। उन्होंने हाथ जोड़कर श्रीराम से कहा, “प्रभु! जब मैं उस अयोध्यापुरी में आपके बिना लौटूँगा, तो न जाने उन सब लोगों की क्या दशा होगी। जिस रथ में उन्होंने श्रीराम को विराजमान देखा था, उसे अब सूना देखकर उनका हृदय छलनी हो जाएगा। मैं किस मुँह से महारानी कौसल्या को बताऊँगा कि ‘मैं आपके पुत्र को वन में छोड़ आया हूँ’? मैं इस प्रकार अयोध्या नहीं जा सकता। अतः आप मुझे अपने साथ वन में आने दीजिए अथवा मैं यहीं अग्नि में प्रवेश करके अपने प्राण दे दूँगा।”
तब श्रीराम ने उनसे कहा, “सुमन्त्र जी! जब आप अयोध्या में लौटेंगे, केवल तभी आपको देखकर माता कैकेयी को यह विश्वास हो सकेगा कि मैं सचमुच वन में चला गया हूँ। अन्यथा वह मेरे पिता पर संदेह करती ही रहेगी। मैं नहीं चाहता कि मेरे वन में चले जाने पर भी कोई मेरे पिता को झूठा कहकर उन पर संदेह करे। अतः आपको अयोध्या वापस जाना ही होगा।”
सुमन्त्र को इस प्रकार समझा-बुझाकर श्रीराम ने अब गुह से कहा, “निषादराज! जिस वन में जनपद के लोगों का आना-जाना रहता हो, उसमें रहना अभी मेरे लिए उचित नहीं है। मुझे अवश्य ही निर्जन वन के आश्रम में जटा आदि धारण करके ही रहना होगा। अतः मेरे केशों को जटा का रूप देने के लिए तुम बड़ का दूध ला दो।” यह सुनकर गुह ने तुरंत ही आज्ञा का पालन किया। तब श्रीराम ने अपनी व लक्ष्मण की जटाएँ बनाईं तथा इस प्रकार वल्कल-वस्त्र एवं जटाएँ धारण करके वे दोनों भाई ऋषियों के समान दिखाई देने लगे।
अब श्रीराम के आदेश पर लक्ष्मण ने पहले सीता जी को नाव पर बिठाया, फिर स्वयं भी उस सवार हुए और अंत में श्रीराम भी नाव पर आरूढ़ हुए। तब उन्होंने सुमन्त्र एवं निषादराज गुह से विदा ली तथा मल्लाहों को नाव चलाने का आदेश दिया।
जब नाव गंगाजी की बीच धारा में पहुँची, तब साध्वी सीता ने हाथ जोड़कर गंगाजी से यह प्रार्थना की – “देवी गंगे! महाराज दशरथ के ये पुत्र अपने पिता की आज्ञा से वन में जा रहे हैं। आप ऐसी कृपा कीजिए कि वन में सुरक्षित रहकर ये अपने पिता का वचन पूरा कर सकें एवं चौदह वर्षों तक निवास करके अपने भाई के तथा मेरे साथ पुनः सुखपूर्वक अयोध्या को लौटें।”
“हे देवी! जब श्रीराम वन से सकुशल वापस लौटकर अपना राज्य प्राप्त कर लेंगे, तब मैं पुनः यहाँ आकर आपको प्रणाम करुँगी। मैं ब्राह्मणों को एक लाख गौएँ, उत्तम वस्त्र एवं बहुत-सा अन्न भी प्रदान करुँगी। अयोध्या लौटने पर मैं एक सहस्त्र घड़ों में सुरा का तथा चावल के साथ पकाए गए माँस का भोजन भी अर्पित करुँगी।”
(मूल संस्कृत श्लोक “सुराघटसहस्रेण मांसभूतोदनेन च; यक्ष्ये त्वाम् प्रयता देवि पुरीम् पुनरुपागता” है। गीता प्रेस के संस्करण में इसका अनुवाद “सहस्त्रों देवदुर्लभ पदार्थों से तथा राजकीय भाग से रहित पृथ्वी, वस्त्र और अन्न के द्वारा आपकी पूजा करूंगी” दिया गया है, लेकिन अन्य सभी संस्करणों में “सुराघटसहस्त्रेण मांस भूतोदनेन च” का अनुवाद “एक सहस्त्र घड़ों में सुरा का एवं चावल के साथ पके मांस का भोजन अर्पित करूंगी” है। मुझे यही वाला अधिक तर्कसंगत लगता है, पर आपकी जानकारी के लिए मैं दोनों दे रहा हूं।)
आगे सीता ने कहा, “आपके किनारों पर जो-जो देवता, तीर्थ एवं मन्दिर हैं, मैं उन सबका पूजन करुँगी।”
शीघ्र ही वे लोग नदी के दक्षिणी तट पर जा पहुँचे। अब उन्होंने नाव छोड़ दी व आगे की ओर प्रस्थान किया।
तब श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण से बोले, “सुमित्राकुमार! अब तुम वन में सीता की रक्षा के लिए सावधान हो जाओ। तुम आगे-आगे चलो, सीता तुम्हारे पीछे चले और मैं तुम दोनों की रक्षा करता हुआ सबसे पीछे चलूंगा।”
“अपनी वास्तविक कठिनाइयां आज ही से आरंभ हो रही हैं। आज विदेहकुमारी को वनवास के वास्तविक कष्ट का अनुभव होगा। इस वन में न मनुष्यों के आने-जाने का कोई चिह्न दिखाई देगा, न धान आदि के खेत होंगे, न टहलने के लिए बगीचे। यहां ऊंची-नीची भूमि होगी और गड्ढों में गिरने का भय रहेगा।”
श्रीराम जी की यह बात मानकर वे लोग उसी प्रकार आगे बढ़े।
इस प्रकार गंगा नदी को पार करके वे लोग समृद्ध वत्सदेश (प्रयाग) में आ पहुंचे।
आगे जारी रहेगा….
स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस

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