Home विषयइतिहास वाल्मीकि रामायण अरण्य काण्ड भाग 50
अगस्त्य जी के आश्रम में प्रवेश करके लक्ष्मण जी ने उनके शिष्य को अपना परिचय दिया और बताया कि ‘महाराज दशरथ के पुत्र श्रीराम अपनी पत्नी सीता के साथ महर्षि का दर्शन करने आए हैं।’
शिष्य ने अग्निशाला में जाकर महर्षि अगस्त्य को इस बात की सूचना दी। श्रीराम के आगमन का समाचार सुनते ही महर्षि बोले, “सौभाग्य की बात है कि चिरकाल के बाद अंततः श्रीराम स्वयं मुझसे मिलने आ गए। मेरे मन में बहुत समय से यह अभिलाषा थी कि वे मेरे आश्रम में पधारें। तुम सम्मानपूर्वक उन तीनों को मेरे पास ले आओ।”
महर्षि का आदेश मिलते ही शिष्य ने लौटकर लक्ष्मण के पास गया और उन्होंने आश्रम के द्वार पर ले जाकर उसे श्रीराम और सीता जी से मिलवाया। तब शिष्य ने उन्हें प्रणाम किया और वह उन तीनों को भीतर ले गया।
महर्षि अगस्त्य का आश्रम शांत स्वभाव वाले हिरणों से भरा हुआ था। वहाँ श्रीराम ने ब्रह्माजी और अग्निदेव के पूजन का स्थान देखा। फिर भगवान विष्णु, शिव, सूर्य, चन्द्रमा, कुबेर, धाता, विधाता, वायु, वरुण, गायत्री, वसु, गरुड़, नागराज, कार्तिकेय तथा धर्मराज आदि के पूजास्थल देखे।
इतने में ही महर्षि अगस्त्य भी अग्निशाला से बाहर निकले। श्रीराम ने तुरंत ही उनके चरणों में झुककर प्रणाम किया। महर्षि ने उन्हें गले से लगा लिया और कुशल-समाचार पूछकर उन्हें बैठने के लिए आसन दिया। फिर महर्षि ने फल-मूल, पुष्प आदि से उनका स्वागत-सत्कार किया।
इसके बाद उन्होंने श्रीराम से कहा, “श्रीराम! आप तीनों इस वन में इतनी दूर तक चलने का कष्ट सहकर भी मुझसे मिलने मेरे आश्रम में पधारे, इससे मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ। यह दिव्य धनुष विश्वकर्मा जी ने बनाया है। इसमें सुवर्ण और हीरे जड़े हुए हैं। यह उत्तम बाण ब्रह्माजी का दिया हुआ है। इन्द्र ने ये दो तरकस दिए हैं, जो सदा तेजस्वी बाणों से भरे रहते हैं, कभी खाली नहीं होते। साथ ही यह तलवार भी है, जिसकी मूठ में सोना जड़ा हुआ है और इसकी म्यान भी सोने की ही बनी है। पूर्वकाल में भगवान विष्णु ने इसी धनुष से असुरों का संहार किया था। आप भी राक्षसों पर विजय पाने के लिए यह धनुष, दोनों तरकस, ये सभी बाण और यह तलवार ग्रहण कीजिए।”
ऐसा कहकर महर्षि ने वे सभी आयुध श्रीराम को दिए।
तब श्रीराम ने हाथ जोड़कर उनसे कहा, “मुनिवर! आपके दर्शन से हम सब आज अनुग्रहित हुए। कृपया आप मुझे कोई ऐसा स्थान बताइये, जहाँ मैं आश्रम बनाकर सुख से निवास कर सकूँ।”
यह सुनकर महर्षि अगस्त्य ने कुछ सोच-विचारकर उत्तर दिया, “श्रीराम! यहाँ से दो योजन की दूरी पर पञ्चवटी नामक एक बहुत सुन्दर स्थान है। वहाँ बहुत-से मृग रहते हैं और फल-मूल तथा जल भी प्रचुरता में है। आप वहीं जाकर आश्रम बनाइये और सुखपूर्वक निवास कीजिए। आपने ऋषियों की रक्षा के लिए राक्षसों के वध की जो प्रतिज्ञा की है, उसे पूरा करने के लिए भी आपको कहीं और जाकर ही निवास करना पड़ेगा क्योंकि राक्षस मेरे आश्रम के आस-आस भी नहीं आते हैं। अतः पञ्चवटी ही सब प्रकार से आपके निवास के लिए उपयुक्त स्थान है।”
“वह स्थान यहाँ से निकट ही गोदावरी नदी के तट पर है। यह जो महुओं का विशाल वन है, आप इसके उत्तर की ओर से जाइए। आगे एक बरगद का वृक्ष मिलेगा, उसके आगे कुछ दूर तक ऊँचा मैदान है। उसे पार करने पर एक पर्वत दिखाई देगा, उससे थोड़ी ही दूरी पर पञ्चवटी का प्रसिद्ध सुन्दर वन है।”
यह सुनकर श्रीराम ने उन्हें प्रणाम किया और जाने की आज्ञा ली। दोनों भाइयों ने पीठ पर तरकस बाँध हाथों में धनुष लिए और सीता के साथ बड़ी सावधानी से उन्होंने पञ्चवटी की ओर प्रस्थान किया।
पंचवटी के मार्ग में थोड़ा आगे जाने पर उन्हें एक विशालकाय गिद्ध मिला, जो अत्यंत पराक्रमी लग रहा था। दोनों भाइयों ने उसे राक्षस ही समझ लिया था, किन्तु परिचय पूछने पर उसने कोमल स्वर में कहा, “बेटा! तुम मुझे अपने पिता का मित्र ही समझो।”
ऐसा कहकर उसने उन्हें सृष्टि के समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का क्रम बताया और अंत में कहा, “मैं विनतानन्दन अरुण तथा माता श्येनी का पुत्र जटायु हूँ और मेरे बड़े भाई का नाम सम्पाति है। मैं इस वन में आपका सहायक हो सकता हूँ। यहाँ अनेक राक्षस रहते हैं। यदि आप कभी लक्ष्मण के साथ अपनी पर्णशाला से बाहर चले जाएँ, तो मैं देवी सीता की रक्षा करूँगा।”
यह सुनकर श्रीराम ने जटायु को गले लगा लिया और प्रसन्नतापूर्वक जटायु का सम्मान किया। फिर वे जटायु को भी अपने साथ ही लेकर पंचवटी की ओर आगे बढ़े।
अनेक प्रकार के सर्पों, हिंसक जंतुओं और मृगों से भरी हुई पंचवटी पहुँचकर श्रीराम ने भाई लक्ष्मण से कहा, “सौम्य! मुनिवर अगस्त्य ने जैसा वर्णन किया था, उस स्थान पर हम लोग आ पहुँचे हैं। देखो यहाँ कितने सुन्दर पुष्प खिले हुए हैं। अब तुम चारों ओर दृष्टि डालो और कोई ऐसा स्थान ढूँढ निकालो, जो जलाशय के निकट हो, जहाँ सीता का भी मन लगे और हम दोनों भी प्रसन्नतापूर्वक रह सकें तथा जिसके आस-पास ही समिधा, फूल, कुश और जल की सुविधा हो।”
तब लक्ष्मण ने विनम्रता से कहा, “प्रभु! मैं तो आपका सेवक हूँ और केवल आपकी आज्ञा के ही अधीन रहता हूँ। अतः कृपया आप स्वयं ही कोई उपयुक्त स्थान चुनकर मुझे बताएँ कि ‘तुम यहाँ आश्रम बना दो’।”
यह सुनकर श्रीराम ने स्वयं ही एक स्थान चुना और फिर लक्ष्मण ने वहाँ आश्रम का निर्माण किया।
यह आश्रम एक अत्यंत विस्तृत पर्णशाला के रूप में बनाया गया था। सबसे पहले लक्ष्मण ने वहाँ मिट्टी एकत्र करके दीवार खड़ी की, फिर उसमें सुन्दर और सुदृढ़ खम्भे लगाए। इसके बाद उन खम्भों के ऊपर बड़े-बड़े बाँस तिरछे करके रखे। फिर उन पर शमी के वृक्ष की शाखाएँ बिछा दीं और उन्हें मजबूत रस्सियों से कसकर बाँध दिया। इसके बाद कुश, कास, सरकंडे और पत्ते बिछाकर उन्होंने पर्णशाला को छा दिया तथा नीचे की भूमि को समतल कर दिया।
इसके बाद लक्ष्मण ने गोदावरी के तट पर जाकर स्नान किया और कमल के फूल तथा फल लेकर लौटे। फिर शास्त्रीय विधि के अनुसार देवताओं की पूजा तथा वास्तुशान्ति करके उन्होंने अपना बनाया हुआ वह आश्रम श्रीराम को दिखाया।
श्रीराम उसे देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने हर्षित होकर लक्ष्मण को कसकर गले लगा लिया। श्रीराम ने उस सुन्दर आश्रम को बनाने के लिए लक्ष्मण की अत्यंत प्रशंसा की। उस आश्रम में वे तीनों सुखपूर्वक निवास करने लगे। प्रतिदिन वे लोग नियमपूर्वक हवन-पूजन आदि करते थे। अनेक बड़े-बड़े ऋषि-मुनि उनसे मिलने के लिए उस आश्रम में आते रहते थे।
इस प्रकार उन लोगों के वहाँ रहते-रहते शरद ऋतु बीत गई और प्रिय हेमन्त ऋतु का आगमन हुआ, जब ठण्ड बढ़ने लगती है, दिन छोटे हो जाते हैं और सूर्यदेव दक्षिणायन में चले जाते हैं। इस ऋतु में शीतकाल के कारण रातें लंबी हो जाती हैं और दिन में धूप बहुत अच्छी लगती है। ऐसी हेमन्त ऋतु में एक दिन श्रीराम, सीता और लक्ष्मण गोदावरी में स्नान करके अपने आश्रम में लौटे। श्रीराम और लक्ष्मण कुछ बातचीत कर रहे थे कि तभी अकस्मात एक राक्षसी वहाँ आ पहुँची।
वह दशानन रावण की बहन शूर्पणखा थी।
आगे जारी रहेगा…
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अरण्यकाण्ड। गीताप्रेस)

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