Home लेखक और लेखदेवेन्द्र सिकरवार लिंगपूजा_अतीत_व_वर्तमान_में:एक लघु शोध

भारतीय देवमंडल व धर्म के विकास के इतिहास के विषय में दो बिंदु निर्विवाद सत्य हैं।
1) ऋग्वेद में पिशाचों-दस्युओं की निंदा उनके कई कामों के अतिरिक्त उनके द्वारा की जाने वाली लिंग पूजा के लिए भी की गई है अर्थात पिशाच-दस्यु मनुष्य कबीले ही थे न कि अतिमानवीय पराजीव।
2)वैदिक रुद्र का पौराणिक बहुपूजित महादेव शिव में रूपांतरण व उनके प्रतीक के रूप में लिंग पूजा।
आर्यसमाज व बुद्धिजीवियों के एक वर्ग के साथ नवांकुरित हिंदुत्ववादियों के बीच लिंग के स्वरूप की लेकर बहुत असहजता है और इसके लिए व्याकरण से लेकर लिंगाकृति के अंतरिक्षयान तक की मूर्खतापूर्ण सफाइयां दी जाती हैं।
लेकिन समस्या यह है कि शिवपुराण(मूल), कई मंदिरों में स्थापित लिंग मूर्तियों और अभिलेखों के आधार पर सिद्ध होता है कि अतीत से लेकर वर्तमान काल तक समाज के एक बड़े वर्ग में लिंग को महादेव के प्रतीक के रूप में पूजने की प्रबल परंपरा रही है और जनमानस भी सहज रहा है।
लेकिन मूल प्रश्न अभी भी यही है कि आखिर ऋग्वैदिक ऋषियों ने लिंग पूजा को स्वीकृति कैसे दे दी जबकि वे उसके कठोर आलोचक थे?
इस प्रश्न के उत्तर हेतु मैनें भंडारकर जी के वैष्णव व शैव संप्रदायों के विकास एवं श्रीयुत पी वी काने जी के धर्मशास्त्र का अध्ययन किया जिसमें इनका विशद वर्णन तो किया गया है परंतु लिंग पूजा रुद्र से कैसे जुड़ी इसका कोई विवरण नहीं है।
पुराणों में यह द्वैत अवश्य दिखाई देता है और समाधान के संकेत भी।
शिवपुराण में एक ओर तो लिंग की स्थूल लिंग के पूजन संबंधी कथा देता है जिसमें प्राचीन ऋषियों से लिंग पूजा के बावत रुद्र के संघर्ष का स्पष्ट संकेत मिलता है और जिसका अंकन राष्ट्रकूट राजाओं ने मुंबई के निकट एलिफेंटा की गुफाओं में कराया था वहीं दूसरी ओर इसमें ब्रह्मा व विष्णु के विवाद के बीच लिंग के ज्योतिर्लिंग के रूप में विशद ब्रह्मांडीय अनंतता के प्रतीक के रूप में भी व्याख्या मिलती है।
अतः इन सारे सूत्रों को जोड़कर मैंने लिंगपूजा, चाहे वह स्थूल लिंग पूजा हो या ज्योतिर्लिंग के रूप में, लिंगपूजा के वैदिक रुद्र से जुड़ने के संबंध में एक तार्किक समाधान दिया जिसके अनुसार जब पिशाच-दस्युओं को महारुद्र द्वारा परास्त कर दिया गया तो उनके सामने दो विकल्प थे-
1)वह पिशाचों का उनकी लिंगपूजा सहित समूल नाश कर देते।
2)वह पिशाचों को सुधारने का प्रयत्न करते।
चूँकि महारुद्र विकट पराक्रमी होने के साथ सर्वसमावेशीकरण के पक्षधर भी थे अतः उन्होंने ‘भूतों व पिशाचों’ को अपने गणों में शामिल कर उन्हें अभयदान दिया लेकिन उन्हें उनके मूल क्षेत्र कश्मीर से हटा दिया।
आज ये जातियां अफगानिस्तान में ‘पिशाई’ व उत्तराखंड में ‘भोटिया’ के नाम से जानी जाती हैं।
चूंकि पिशाच लिंगपूजक थे अतः उन्होंने उसे महारुद्र का ही प्रतीक मानकर पूजना शुरू कर दिया।
स्मरण रहे कि उनके श्वसुर दक्ष द्वारा महारुद्र को कहे अपशब्दों में एक यह भी था कि वे भूतों, पिशाचों की संगति करते हैं और (लिंग पूजकों की लिंग पूजा की अवैदिक परंपरा को स्वीकृति देकर) वैदिक परंपरा को भ्रष्ट कर दिया है।
स्पष्टतः आर्यों का एक बड़ा वर्ग लिंगपूजा से तब भी सहमत नहीं था लेकिन रुद्र परंपरा में इसका विस्तार होने से शैव ऋषियों ने इसकी ज्योतिर्लिंग के रूप में परिभाषित किया जिसे आज अधिकतर लोग स्वीकार करते हैं।
‘अनसंग हीरोज:#इंदु_से_सिंधु_तक’ में इस ऐतिहासिक घटनाक्रम का ऋग्वेद, अथर्ववेद, ऐतरेय व शतपथ ब्राह्मण, आरण्यक, महाकाव्यों, अभिलेखों आदि पर आधारित सप्रमाण वर्णन किया है और साथ ही विदेशियों द्वारा प्रतिपादित आर्य आक्रमण सिद्धांत का खंडन किया है जो दस्युओं व पिशाचों को काले आदिवासी ठहराते हैं जबकि वे कश्मीर के गोरे चिट्टे लोग हुआ करते थे।

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