कल जब से विधु विनोद चोपड़ा ने अपनी आगामी फिल्म ‘शिकारा’ का ट्रेलर रिलीज किया है तब से ट्विटर और फेसबुक में राष्ट्रवादियों द्वारा उसका स्वागत व समर्थन देने की बाढ़ आई दिख रही है। लेकिन मैं इसको लेकर दुविधा में हूँ। मैं शंकित हूँ और आम लोगो मे इसको लेकर जगे उत्साह से असहज भी हो रहा हूँ।
हालांकि विधु विनोद चोपड़ा का मैं तब से प्रशंसक हूँ जब वह सिर्फ विनोद चोपड़ा थे और पूना इंस्टीट्यूट के छात्र जीवन मे उन्होने एक रोमांचक फ़िल्म Murder At Monkey Hill बनाई थी। इसके लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। उस वक्त मेरे ऐसे फिल्मेरिया के मरीजों के अलावा उनका नाम कोई भी जानता था। उसके बाद उनकी ब्लैक एंड वाइट फ़िल्म ‘सजाए मौत’ आई थी जो हिंदी फिल्म की सर्वश्रेष्ठ सस्पेंस थ्रिलर में से एक है। इस फ़िल्म को बहुत कम लोगो ने देखा होगा लेकिन मैंने इसे दूरदर्शन पर 80 के शुरू के दशक में देखा था। इसके बाद उनकी ‘खामोश’ आई जो और भी बेहतरीन मर्डर मिस्ट्री थी। इस फ़िल्म के बाद मैं विनोद का प्रशंसक हो गया था। इसके बाद तो कुछ अपवादों को छोड़ कर विधु विनोद चोपड़ा ने मुझे चलचित्र की विधा पर कभी भी असंतुष्ट नही किया है। इसके बाद उनकी ‘परिंदा’ और ‘1942 ए लव स्टोरी’ आयी थी। यहां यह महत्वपूर्ण है कि इन सभी फ़िल्म के न सिर्फ वे निर्देशक थे बल्कि निर्माता भी थे। इसकी बाद इनकी अगली दो फिल्मों ‘करीब’ जो फ्लॉप हुई और ‘मिशन कश्मीर’ जो हिट हुई थी ने मुझे निराश किया था। इसके बाद विधु ने निर्देशन छोड़ कर बढ़िया व अतिसफल फिल्मों ‘मुन्ना भाई एम बी बी एस’, ‘परिणीता’, ‘लगे रहो मुन्ना भाई’, ‘3 इडियट्स’, ‘पीके’ इत्यादि निर्माण किया लेकिन उनकी यही फिल्मी यात्रा, मुझको उनकी ‘शिकारा’ सशंकित कर रही है।
विधु विनोद चोपड़ा, भले ही कश्मीर के हो लेकिन 70 के दशक में उनकी फिल्मी यात्रा उन्ही साथियों के साथ शुरू हुई थी जो तब की फिल्मी विधा, कथानक व प्रस्तुतिकरण से विद्रोह कर के नई तरह की फ़िल्म बनाना
चाहते थे। वे ज्यादातर सब आज के, राष्ट्रवादिता व हिंदुत्व के विरोध का नेतृत्व करने वाले वामपंथी, लिबरल और सेकुलरिस्ट है। विधु के साथी नसीरुद्दीन शाह, शबाना आज़मी, ओम पुरी, कुंदन शाह, पंकज कपूर इत्यादि रहे है। मेरी दृष्टि में विधु विनोद चोपड़ा पूरी तरह मुम्बई की फ़िल्म इंडस्ट्री जिसे बॉलीवुड भी कहते है, के प्राणी है। विधु, कश्मीरी से पहले एक सेक्युलर फ़िल्म निर्माता निर्देशक है। फ़िल्म ‘पी के’ का निर्माता कभी भी हिंदुओं की संवेदनाओं के प्रति संवेदनशील नही हो सकता है। विधु विनोद की पत्नी अनुपमा चोपड़ा है, जो न सिर्फ फिल्मों पर लिखने वाली प्रसिद्ध लेखिका और आलोचक है बल्कि पूरी तरह बॉलीवुड की परंपरानुसार सेक्युलर है। आज वह ट्विटर पर जेएनयू के देशद्रोहियों से मिलने पर दीपिका पादुकोण का समर्थन करती दिख रही है।
आज विधु ‘शिकारा’ लेकर आरहे है जब जम्मू कश्मीर से 370 हट चुकी है। उनके पास कश्मीर को लेकर गम्भीर फ़िल्म बनाने का पहले भी अवसर था लेकिन उन्होंने इसकी 2000 में ‘मिशन कश्मीर’ बनाकर, जान बूझ कर के उपेक्षा की थी। उन्होंने उस फिल्म में सत्य दिखाया ही नही! वह पूरी फिल्म, जलते कश्मीर के बीच एक पुलिस गोलीबारी के शिकार और उस पुलिस अफसर के बीच व्यक्तिगत द्वंद्व की कहानी कहती है। इसमे सिर्फ मुस्लिम ही चरित्र है। पटकथा से कश्मीरी पंडित और उनका नरसंहार पूरी तरह से गायब है। मैं तो मानता हूँ कि कश्मीर के नाम पर यह फ़िल्म बना कर चोपड़ा ने बौद्धिक बेईमानी की थी। वो इस फ़िल्म की कहानी को कश्मीर की जगह कही भी रख देते, तब भी उनकी कहानी सिर्फ, उस पुलिस अफसर और उसकी गोलीबारी के शिकार की ही कहानी कहती।
वैसे तो मेरी इच्छा यही है कि मेरी शंकाएं निर्मूल सिद्ध हो और परिवर्तित वातावरण में विधु विनोद चोपड़ा, अपनी अंतरात्मा को विशुद्ध कर, एक बार सत्य देखने और दिखाने का प्रयास कर सके। लेकिन क्या करे, मुझे अब बॉलीवुड का नमक खाये व्यक्ति पर जल्दी विश्वास नही होता है।