Home विषयइतिहास वाल्मीकि रामायण (भाग 3)
महर्षि ऋष्यश्रृंग के मार्गदर्शन में श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने महाराज दशरथ के अश्वमेध महायज्ञ का प्रारंभ किया। वे सभी ब्राह्मण अत्यंत विद्वान थे, अतः यज्ञ के प्रत्येक कर्म को शास्त्रों में वर्णित क्रम के अनुसार व उचित रीति से करने में वे सक्षम थे। सबसे पहले उन्होंने शास्त्रोक्त विधि से प्रवर्ग्य का संपादन किया और फिर उपसद नामक अनुष्ठान किया। इसके बाद कर्मों के अंगभूत देवताओं का पूजन करके सवन किया गया और फिर इन्द्रदेव को विधिपूर्वक हविष्य का भाग अर्पित किया गया। सभी महर्षियों ने अत्यंत शुद्ध स्वर में मन्त्रों का गायन किया और सभी श्रेष्ठ देवताओं का आवाहन किया गया। सभी देवताओं को उनके योग्य हविष्य के भाग अर्पित किए गए। उस यज्ञ में न कोई भूल हुई, न कोई विपरीत या अयोग्य आहुति पड़ी। सभी कर्म निर्विघ्न पूर्ण हुए।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, तापस, श्रमण, बूढ़े, रोगी, स्त्री और बच्चे सभी को उस यज्ञ में यथेष्ट भोजन प्राप्त हुआ। वहाँ कोई भूखा-प्यासा नहीं रहा और सभी लोग भली-भांति तृप्त हुए। यज्ञ का एक सवन समाप्त होने के बाद अगला सवन शुरू होने तक जो खाली समय मिलता था, उसमें उत्तम ब्राह्मण एक-दूसरे से शास्त्रार्थ किया करते थे। वह यज्ञ संपन्न करवाने वाले सभी विद्वान बहुश्रुत तथा व्याकरण के सभी छः अंगों के ज्ञाता थे।
सूत्र-ग्रन्थों में दिए गए वर्णन के अनुसार ठीक माप वाली ईंटें तैयार कराई गई थीं। यज्ञकर्म के कुशल ब्राह्मणों ने अग्नि का चयन किया। उस अग्नि की आकृति गरुड़ जैसी बनाई गई थी।
इस यज्ञ के लिए बेल, खैर, और पलाश के साथ बिल्व के छः छः यूप खड़े किए गए। बहेड़े के वृक्ष का एक यूप खड़ा किया गया और दोनों बाहें फैलाने पर जितनी दूरी होती है, उतनी दूरी पर देवदार के दो यूप खड़े किए गए। यज्ञ की शोभा बढ़ाने के लिए उन सबमें सोना जड़ा गया था। इन सभी इक्कीस यूपों में से प्रत्येक की ऊँचाई इक्कीस अरन्ति (पाँच सौ चार अंगुल) थी और सभी को इक्कीस अलग-अलग कपड़ों से सजाया गया था। ये सब आठ कोणों से सुशोभित थे और उनकी आकृति सुन्दर व चिकनी थी। पुष्प-चंदन से उन सबकी पूजा की गई और उन्हें विधिपूर्वक स्थापित किया गया। उन यूपों में विभिन्न देवताओं के उद्देश्य से शास्त्रविहित पशु, सर्प और पक्षी बांधे गए थे। शामित्र कर्म में यज्ञीय अश्व और कूर्म आदि जलचर जन्तु भी यूपों में बांधे गए थे। सब मिलाकर उन यूपों में तीन सौ पशु बंधे हुए थे।
अश्वमेध का घोड़ा भी वहीं बांधा गया। महारानी कौशल्या ने चारों ओर से उस अश्व का प्रोक्षण आदि संस्कार करके तीन तलवारों से उसे स्पर्श किया। अध्वर्यु और उद्गाता ने राजा की क्षत्रिय महिषी कौसल्या, वैश्य स्त्री वावाता तथा शूद्रजातीय स्त्री परिवृत्ति के हाथों भी उस अश्व का स्पर्श करवाया। अब ऋत्विक ने विधिपूर्वक अश्वकन्द के गूदे को निकालकर शास्त्रोक्त रीति से पकाया। फिर उसे गूदे की आहुति दी गई और महाराज दशरथ को ठीक समय पर वहाँ आकर उस धुएँ की गंध को सूंघने के लिए कहा गया।
इसके बाद दशरथ जी ने दक्षिणा के रूप में होता को अयोध्या से पूर्व की दिशा का सारा राज्य दे दिया। अध्वर्यु को पश्चिम दिशा, ब्रह्मा को दक्षिण दिशा व उद्गाता को उत्तर दिशा की सारी भूमि दे दी। इस प्रकार विधिपूर्वक यज्ञ पूरा करके राजा दशरथ ने सारी भूमि ऋत्विजों को दान कर दी।
इस पर उन ऋत्विजों ने कहा कि ‘महाराज! केवल आप ही इस पृथ्वी की रक्षा करने में समर्थ हैं। हम सदा वेदों के अध्ययन में लगे रहते हैं और हमें इस भूमि से कोई प्रयोजन नहीं है। अतः इस भूमि की रक्षा आप ही करें और इसके बदले में हमें कोई और दक्षिणा दे दें।’ तब महाराज दशरथ ने उन्हें दस लाख गाएँ, दस करोड़ स्वर्ण-मुद्राएँ और चालीस करोड़ चांदी के सिक्के दान में दिए। उन ऋत्विजों ने वह सारा धन महर्षि ऋष्यश्रृंग व कुलगुरु वसिष्ठ को सौंप दिया। उन दोनों से उसका उचित बँटवारा करके न्यायपूर्वक सभी के बीच उसे बाँट दिया। सभी लोग इससे बहुत प्रसन्न हुए।
अब दशरथ जी ने हाथ जोड़कर मुनि ऋष्यश्रृंग से कहा, “मुनीश्वर! अब आप वह कर्म करें, जो मेरी कुल परम्परा को आगे बढ़ाने वाला हो।’ तब ‘तथास्तु’ कहकर मुनि थोड़ी देर तक ध्यानमग्न हो गए। कुछ समय बाद ध्यान से विरत होकर उन्होंने कहा, “राजन! आपको पुत्र की प्राप्ति कराने के लिए मैं अथर्ववेद के मन्त्रों से पुत्रेष्टि नामक यज्ञ करूँगा। वेदोक्त विधि के अनुसार अनुष्ठान करने पर यह यज्ञ अवश्य सफल होगा और आपका मनोरथ पूर्ण होगा। आपके चार पुत्र होंगे और वे इस कुल का भार वहन करने में सर्वथा सुयोग्य होंगे।”
ऐसा कहकर उन तेजस्वी ऋषि ने पुत्रेष्टि यज्ञ का आरंभ किया और श्रौत विधि के अनुसार अग्नि में आहुति डाली। यज्ञ में देवताओं का आवाहन किया गया और विधि के अनुसार अपना-अपना भाग ग्रहण करने के लिए देवता, सिद्ध, गंधर्व और महर्षिगण उस यज्ञ में एकत्र हुए।
वहाँ एकत्रित देवता अन्य लोगों की दृष्टि में अदृश्य थे। उन सभी देवताओं ने वहाँ ब्रह्माजी से निवेदन किया कि ‘भगवन्! आपसे वरदान पाकर रावण नाम का राक्षस हम सब लोगों को बहुत कष्ट दे रहा है। आपने प्रसन्न होकर उसे वर दे दिया है, लेकिन उस वरदान की शक्ति से वह अत्यधिक उद्दंड हो गया है और उसने तीनों लोकों में हाहाकार मचा दिया है। वह जिस किसी को भी अच्छी स्थिति में देखता है, उससे द्वेष करने लगता है। वह देवराज इन्द्र को भी परास्त करने की अभिलाषा रखता है।
ऋषियों, यक्षों, गन्धर्वों, असुरों व ब्राह्मणों को वह बहुत पीड़ा देता है और सबका अपमान करता फिरता है। वह देखने में भी बड़ा भयंकर है। हमें उसे देखकर बहुत भय होता है, किन्तु अपने पराक्रम से उसे दबाने की शक्ति हमारे पास नहीं है। अतः आपको ही उसके वध का कोई न कोई उपाय करना चाहिए।’
यह सुनकर ब्रह्माजी कुछ सोचकर बोले, ‘देवताओं! उस दुरात्मा के वध का उपाय मेरी समझ में आ गया है। वह मैं आपको बताता हूँ।’
(आगे अगले भाग में…)
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(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। बालकाण्ड। गीताप्रेस)
(नोट: वाल्मीकि रामायण में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है। मैं बहुत संक्षेप में केवल उसका सारांश ही लिख रहा हूँ। पूरा ही ग्रन्थ जस का तस यहाँ नहीं लिखा जा सकता, लेकिन अधिक विस्तार से जानने के लिए आप मूल ग्रन्थ को भी अवश्य पढ़ें।)

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