समस्या कथाकारों से लेकर बॉलीवुड तक ये है कि पौराणिक कथाओं का गंभीर ऐतिहासिक अनुशीलन कोई नहीं करना चाहता लेकिन उंगली दोनों एक दूसरे को करते हैं।
बॉलीवुड के ड्रग एडिक्ट लेखकों की तो छोड़िए कथाकारों तक को पौराणिक इतिहास की मूल वृत्तियों, भूगोल, शरीर संरचना, वस्त्र सज्जा, परिपाटियों और तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के विषय में न के बराबर मालूम है।
दक्षिणपंथियों के अवचेतन में पौराणिक चरित्र उसी रूप में स्थिर हैं जो गीताप्रेस के चित्रों में है और यह इतना स्थिर हो गया है कि इससे जराभी इधर उधर होते ही उनके अवचेतन पर चोट करता है।
वस्तुतः गीताप्रेस के चित्र स्वयं ही राजा रविवर्मा की कल्पनाजन्य पेंटिंग्स पर आधारित हैं, हालांकि उन्होंने प्राचीन मूर्तियों का अध्ययन भी किया था।
उधर बॉलीवुडिये लेखक चाहे वे सलीम जावेद हों या मनोज मुंतशिर हों, उन्हें प्राचीन आर्य परंपराओं की धेला भर जानकारी नहीं है।
हालांकि मनोज मुंतशिर अपने बॉस का हुक्म भर बजा रहे हैं और उन्हें ट्रोल करने का कोई अर्थ नहीं लेकिन ओम राउत, लेखक मनोज मुंतशिर जो स्वयं को रामकथा स्पेशलिस्ट मानते हैं, उन्हें ये जानकारी होनी ही चाहिए थी कि प्राचीन भारत में कोई भी योद्धा सिर के बालों का कर्तन नहीं कराता था क्योंकि यह घोर अपमानजक पराजय का सूचक होता था।
इसी प्रकार दक्षिणी टोले के तथाकथित विद्वान महामंडलेश्वर मठाधीश आदि श्रीराम व हनुमान जी के चमड़े के कवच आदि पर उंगली उठा रहे हैं जबकि उन्हें नहीं पता कि उस समय भी सुवर्णमंडित लौहकवच और चर्मकवच का प्रयोग करते थे।
राम, लक्ष्मण, कृष्ण अर्जुन जैसे धनुर्धर हाथों में गोह के चमड़े के बने दस्ताने पहनते थे अन्यथा सिर्फ एक घंटे के युद्ध में उँगलियों की हड्डियां बाहर आ जातीं।
सीरियलों में सैनिकों से लेकर राजा तक चकाचक मुकुट पहने रहते हैं जबकि गुम्बद वाला मुकुट अगर कोई और पहने तो राजा उसका सिर उतरवा ले।
वस्तुतः केवल राजा ‘गुम्बद वाला किरीट’ और राजकुमार बिना गुम्बद वाले मुकुट पहन सकते थे। अमात्य गण विशिष्ट उष्णीष अर्थात पगड़ी पहन सकते थे।
राजा या सम्राट सभा में पीपल का स्वर्णमंडित राजदंड लेकर बैठते थे।
कोई भी शिष्य गुरु के सामने जूड़ा बांधे बिना नहीं जा सकता था।
दासियों को कंचुकी पहनने की अनुमति नहीं होती थी वह रानियों का विशेषाधिकार था।
अब दिक्कत यह है कि उन्हें इतनी बारीक बातें बतावें कौन?