Home सच्ची कहानियां वाल्मीकि रामायण (भाग 4) बाल कांड सारांश

वाल्मीकि रामायण (भाग 4) बाल कांड सारांश

सुमंत विद्वांस

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यज्ञ में आए सभी देवताओं ने ब्रह्माजी से प्रार्थना की कि वे किसी प्रकार रावण को मारने का उपाय करें और संसार को उस उद्दंड राक्षस के आतंक से मुक्ति दिलाएं।
उनकी बात सुनने पर ब्रह्माजी कुछ सोचकर बोले, ‘देवताओं! उस दुरात्मा के वध का उपाय मेरी समझ में आ गया है। वह मैं आपको बताता हूँ।
उसने मुझसे वरदान मांगते समय कहा था कि ‘मैं गंधर्व, यक्ष, देवता और राक्षसों के हाथों न मारा जाऊं।’ मनुष्यों को वह तुच्छ समझता है, इसलिए उसने वरदान मांगते समय उनका उल्लेख नहीं किया था। अतः अब मनुष्य के हाथों ही उसका वध हो सकता है। इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है।’
यह सुनकर सभी देवता बहुत प्रसन्न हुए।
उसी समय भगवान विष्णु भी अपने गरुड़ पर सवार होकर वहां पहुंचे थे। सभी देवता अब उनके पास विनीत भाव से अपनी याचना लेकर गए।
देवताओं ने भगवान विष्णु से कहा कि ‘हे सर्वव्यापी परमेश्वर! हम तीनों लोकों के हित की कामना से आपके समक्ष यह अनुरोध लेकर उपस्थित हुए हैं कि आप मनुष्य के रूप में प्रकट होकर उस दुष्ट रावण का संहार कीजिए क्योंकि उसकी मृत्यु केवल मनुष्य के हाथों ही संभव है।
वह राक्षस अकारण ही देवता, गंधर्व, सिद्ध, श्रेष्ठ, महर्षियों और अप्सराओं आदि सबको प्रताड़ित कर रहा है। वह रावण बड़ा ही उद्दंड और अत्यंत अहंकारी है। साधुओं और तपस्वियों को वह बड़ा कष्ट देता है और स्त्रियों का अपहरण कर लेता है।
उसने दीर्घकाल तक घनघोर तपस्या करके ब्रह्माजी को प्रसन्न कर लिया था और उनसे यह वरदान मांग लिया कि देवता, राक्षस, यक्ष या गन्धर्व कोई भी उसे मार न सके। मनुष्यों को वह तुच्छ समझता है इसलिए उसने वरदान में मनुष्यों का उल्लेख नहीं किया है। अतः केवल मनुष्य के हाथों ही उसकी मृत्यु संभव है।
हम सब आपके समक्ष याचना लेकर आए हैं कि आप मनुष्य के रूप में अवतार लेकर इस कार्य को संपन्न करें और संसार को इस कष्ट से मुक्ति दिलाएं।’
यह सुनकर करुणानिधान श्री विष्णु भगवान ने कहा, “हे देवताओं! तुम्हारा कल्याण हो। तुम इस भय को अब त्याग दो। पुत्र प्राप्ति की कामना से ही राजा दशरथ इस समय यह यज्ञ यहां कर रहे हैं। अतः मैं इन्हीं को अपना पिता बनाकर स्वयं को चार स्वरूपों में प्रकट करूंगा और तुम सबका हित करने के लिए मैं रावण को उसके पुत्र, पौत्र, अमात्य, मंत्री और बन्धु बांधवों सहित युद्ध में मार डालूंगा। अब तुम लोग इस विषय में निश्चिंत रहो।’
इतना कहकर भगवान विष्णु अंतर्धान हो गए।
उधर पुत्रेष्टि यज्ञ कर रहे राजा दशरथ के यज्ञकुंड से एक विशालकाय पुरुष प्रकट हुआ। उसका पूरा शरीर काले रंग का था। उसने लाल रंग का वस्त्र धारण किया हुआ था और उसके शरीर में इतना प्रकाश था, जिसकी कोई तुलना नहीं है। उसकी आकृति सूर्य के समान थी और वह अग्नि की लपटों के समान चमक रहा था। अपने हाथों में वह सोने की एक बहुत बड़ी परात (थाली) पकड़े हुआ था, जो चांदी के ढक्कन से ढंकी हुई थी।
उसने राजा दशरथ से कहा कि ‘मैं प्रजापति के लोक से और उनकी ही आज्ञा से यहां आया हूं। राजन! तुम देवताओं की आराधना करते हो, इसीलिए तुम्हें आज यह वस्तु प्राप्त हो रही है।
इस बर्तन में देवताओं की बनाई हुई खीर है। तुम इसे ग्रहण करो व अपनी योग्य पत्नियों को भी दो। ऐसा करने पर उनके गर्भ से तुम्हें अनेक पुत्रों की प्राप्ति होगी और इस यज्ञ को करने का तुम्हारा मनोरथ सफल होगा।’
राजा ने प्रसन्नतापूर्वक वह थाल अपने हाथों में लेकर मस्तक पर धारण किया और फिर सम्मान-सहित उस दिव्य पुरुष की प्रदक्षिणा की। इसके बाद वह अद्भुत पुरुष जैसे आया था, वैसे ही अचानक अंतर्धान हो गया।
अब राजा दशरथ वह खीर लेकर अपने अंतःपुर में गए। उस खीर का आधा भाग उन्होंने महारानी कौशल्या को दे दिया। फिर बचे हुए आधे भाग में से आधा उन्होंने रानी सुमित्रा को दिया। उसके बाद जितनी खीर बची थी, उसका आधा भाग उन्होंने रानी कैकेयी को दिया और अंत में जो भाग बचा था, वह भी कुछ सोच-विचारकर उन्होंने सुमित्रा को ही दे दिया।
उचित समय पर उन तीनों रानियों ने गर्भधारण किया। उन्हें गर्भवती देखकर महाराज दशरथ को बड़ी प्रसन्नता हुई।
अंततः उनका मनोरथ सिद्ध होने जा रहा था।
जारी रहेगा अगले भाग में भी….
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। बालकाण्ड। गीताप्रेस)

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