Home विषयऐतिहासिक वाल्मीकि रामायण (भाग 5) बाल कांड सारांश
यज्ञ समाप्त होने पर सभी लोग अपने-अपने घरों को वापस लौट गए। राजा दशरथ भी अपनी पत्नियों, सेवकों, सैनिकों आदि के साथ अपने नगर को लौट आए।
यज्ञ की समाप्ति के बाद छः ऋतुएँ बीत जाने पर बारहवें मास में चैत्र के शुक्लपक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र व कर्क लग्न में देवी कौसल्या ने दिव्य लक्षणों वाले एक बालक को जन्म दिया। उस समय पाँच ग्रह (सूर्य, मंगल, शनि, गुरु और शुक्र) अपने उच्च स्थान में थे व लग्न में चन्द्रमा के साथ बृहस्पति विराजमान थे। इस बालक के ओठ लाल, भुजाएँ बड़ी-बड़ी और स्वर गंभीर था।
इसके बाद पुष्य नक्षत्र और मीन लग्न में रानी कैकेयी ने एक बालक को जन्म दिया। आश्लेषा नक्षत्र व कर्क लग्न में रानी सुमित्रा के भी दो पुत्र हुए। उस समय सूर्य अपने उच्च स्थान में विराजमान थे। इस प्रकार महाराज दशरथ के परिवार में चार पुत्रों का जन्म हुआ।
पुत्र जन्म के आनन्द में अयोध्या में एक बड़ा उत्सव मनाया गया। भारी संख्या में लोग उसमें एकत्रित हुए। अयोध्या की गलियाँ और सड़कें लोगों की भीड़ से खचाखच भर गईं। वहाँ हर ओर नट-नर्तक और गाने-बजाने वाले अपनी कलाएँ दिखाकर लोगों को प्रसन्न कर रहे थे। महाराज दशरथ ने भी सूत,
मागध व बंदियों को योग्य पुरस्कार दिए व ब्राह्मणों को विपुल धन तथा सहस्त्रों गाएँ प्रदान कीं।
ग्यारह दिन बीत जाने पर बालकों का नामकरण समारोह आयोजित हुआ। महर्षि वसिष्ठ ने चारों का नामकरण किया। सबसे ज्येष्ठ पुत्र का नाम ‘राम’ रखा गया। कैकेयी के पुत्र का नाम ‘भरत’ हुआ और सुमित्रा के पुत्रों को ‘लक्ष्मण’ तथा ‘शत्रुघ्न’ नाम दिए गए।
समय-समय पर महर्षि वसिष्ठ ने चारों बालकों की आयु के अनुसार उनके लिए उपयुक्त सभी संस्कार भी एक-एक कर पूर्ण करवाए।
राजा दशरथ के ये चारों पुत्र वेदों के विद्वान् एवं शूरवीर थे। इनमें भी श्रीराम सर्वाधिक तेजस्वी और सबसे लोकप्रिय थे। उन्होंने हाथी और घोड़े की सवारी करने तथा रथ चलाने जैसी कलाओं में निपुणता प्राप्त कर ली थी। वे सदा धनुर्वेद का भी अभ्यास करते थे और अपने पिता की बहुत सेवा भी करते थे।
बचपन से ही लक्ष्मण जी के मन में बड़े भाई श्रीराम के प्रति विशेष अनुराग था। जब श्रीराम जी घोड़े पर चढ़कर शिकार खेलने जाते थे, तो लक्ष्मण जी भी धनुष लेकर उनकी रक्षा के लिए लगातार साथ-साथ रहते थे। उसी प्रकार श्रीराम के लिए भी लक्ष्मण जी अपने प्राणों के समान ही प्रिय थे। जब उनके लिए भोजन लाया जाता था, तो वे उसमें से लक्ष्मण जी को भी दिए बिना कभी नहीं खाते थे। लक्ष्मण जी के बिना श्रीराम को नींद भी नहीं आती थी।
ठीक वैसा ही स्नेह भरत और शत्रुघ्न में भी था। भरत जी अपने भाई शत्रुघ्न को देखकर ही प्रसन्न हो जाते थे और शत्रुघ्न भी उन्हें अपने प्राणों से भी अधिक स्नेह करते थे। अपने इन विनयशील, लज्जाशील, प्रभावशाली, तेजस्वी, यशस्वी, सर्वज्ञ एवं दूरदर्शी पुत्रों को देखकर महाराज दशरथ को अतीव प्रसन्नता होती थी।
यज्ञ के कुछ समय बाद जब दशरथ जी की रानियों ने गर्भधारण किया, तो एक दिन ब्रह्माजी ने सभी देवताओं को बुलाकर कहा, “देवगणों! भगवान् विष्णु हम सब लोगों के हितैषी हैं। उस अधम रावण के संहार के लिए वे महाराज दशरथ के पुत्र बनकर अवतार लेने वाले हैं। अतः उनकी सहायता के लिए तुम सब देवता, गन्धर्व, यक्ष, नाग, रीछ, वानर आदि भी अपने ही समान पराक्रमी पुत्रों को जन्म दो। मैंने पहले ही ऋक्षराज जाम्बवान की सृष्टि कर दी है।
ब्रह्माजी के आदेश का सभी ने पालन किया।
देवराज इन्द्र ने वानरराज वाली को जन्म दिया। वह महेन्द्र पर्वत के समान विशाल व बलिष्ठ था। भगवान सूर्यदेव ने सुग्रीव को जन्म दिया। बृहस्पति ने तार नामक एक महाकाय वानर को जन्म दिया। वह सभी वानर सरदारों में परम बुद्धिमान व श्रेष्ठ था। कुबेर ने तेजस्वी वानर गंधमादन को और विश्वकर्मा ने नल नामक एक महान वानर को जन्म दिया। अग्निदेव का पुत्र नील नामक वानर था, जो अग्नि के समान ही तेजस्वी भी था। अश्विनीकुमारों ने मैंद व द्विविद को जन्म दिया। वरुणदेव ने सुषेण नामक वानर को जन्म दिया और महाबली पर्जन्य ने शरभ को जन्म दिया।
लेकिन वायुपुत्र हनुमान इन सब वानरों में सबसे बलशाली, पराक्रमी व तेजस्वी थे। वे सभी श्रेष्ठ वानरों में सर्वाधिक बुद्धिमान भी थे। उनका शरीर वज्र के समान दृढ़ था और उनकी चाल गरुड़ के समान तेज थी।
इस प्रकार कई हजार वानरों का जन्म हुआ और रावण वध के लिए आवश्यक सारी तैयारी हो गई।
इधर अपने बालकों की उचित आयु हो जाने पर महाराज दशरथ उनके विवाह के संबंध में विचार करने लगे। एक दिन वे अपने पुरोहितों, बन्धु-बांधवों व मंत्रियों के साथ बैठकर इसी विषय में चर्चा कर रहे थे। तभी अचानक राज दरबार में द्वारपाल दौड़े हुए आए। उन्होंने कहा, “महाराज! कुशिकवंशी गाधिपुत्र महर्षि विश्वामित्र आपसे मिलने के लिए पधारे हैं।’
उन्होंने मेरी यज्ञवेदी पर रक्त व माँस की वर्षा कर दी और लगभग समाप्त हो चुके उस अनुष्ठान में अंतिम समय पर विघ्न पड़ जाने के कारण मेरा सारा परिश्रम व्यर्थ हो गया।
उस यज्ञ का नियम ही ऐसा है कि यज्ञ आरंभ कर देने के बाद किसी पर क्रोध नहीं किया जा सकता और न किसी को शाप दिया जा सकता है। अतः मैं उस नियम को तोड़कर उन पर क्रोध नहीं करना चाहता और उन्हें शाप भी देना नहीं चाहता।
इन राक्षसों को मारने के लिए आप कृपया अपने सत्य पराक्रमी, शूरवीर, ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम को मेरे साथ भेज दें। अपने बल का घमण्ड करने वाले वे दोनों निशाचर अब काल के पाश में बंध चुके हैं और श्रीराम के हाथों उनकी मृत्यु निश्चित है। मेरे संरक्षण में रहकर श्रीराम अपने दिव्य तेज से उन विघ्नकारी राक्षसों का विनाश करने में पूर्णतः समर्थ हैं। उन राक्षसों को मारने का श्रेय पाकर वे तीनों लोकों में विख्यात हो जाएँगे, इसमें मुझे तनिक भी संशय नहीं है।
महाराज! आप पुत्र के मोह को अपने कर्तव्य के बीच मत आने दीजिए। पराक्रमी श्रीराम क्या हैं, इस बात को मैं भली-भांति जानता हूँ। महातेजस्वी वसिष्ठ जी व अन्य तपस्वी भी उस सत्य को जानते हैं। अतः आप कृपया शीघ्रता कीजिए, ताकि मेरे यज्ञ का समय बीत न जाए। अपने मन से शोक और चिंता को हटाकर आप श्रीराम को मेरे साथ जाने की अनुमति दीजिए।”
महर्षि विश्वामित्र के ऐसे वचन सुनकर महाराज दशरथ को अतीव दुःख हुआ। पुत्र वियोग की आशंका से पीड़ित होकर वे काँप उठे और अचानक बेहोश हो गए। थोड़ी देर बाद होश आने पर वे पुनः भयभीत होकर विषाद करने लगे। अपने इसी व्यथा के कारण विचलित होकर वे कुछ समय बाद पुनः बेहोश हो गए। लगभग दो घड़ी तक वे संज्ञाशून्य ही रहे।
जारी रहेगा अगले भाग में भी….
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। बालकाण्ड। गीताप्रेस)

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