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वाल्मीकि रामायण सुन्दरकांड भाग 77

सुमंत विद्वांस

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समुद्र पार करके हनुमान जी लंका के त्रिकूट पर्वत पर उतरे और नगर में प्रवेश करने से पहले उसका अवलोकन करने लगे। वहाँ से उन्हें चीड़, कनेर, खजूर, चिरौंजी, नींबू, कुटज, केवड़े, पिप्पली, अशोक आदि अनेक प्रकार के वृक्ष दिखाई दिए, जिन पर बहुत-से पक्षी बैठे हुए थे। उन्होंने अनेक जलाशय भी देखे। लंका के चारों ओर सुरक्षा के लिए गहरी खाई खुदी हुई थी और हाथों में धनुष, शूल और पट्टिश लिए हुए भयंकर राक्षस निरंतर वहाँ पहरा देते थे।
तब हनुमान जी विचार करने लगे कि ‘यदि वानर-सेना यहाँ तक आ भी जाए, तो भी सब व्यर्थ ही होगा क्योंकि लंका इतनी अधिक सुरक्षित है कि देवता भी उस पर विजय नहीं पा सकते। ऐसा लगता है कि इससे दुर्गम स्थान तो कोई है ही नहीं। परन्तु पहले मुझे यह पता लगाना चाहिए कि विदेहकुमारी सीता जीवित भी हैं या नहीं। उसके बाद मैं आगे की बातों पर विचार करूँगा।’
तब वे मन में सोचने लगे कि ‘भयभीत, अविवेकी अथवा स्वयं को अत्यधिक बुद्धिमान समझने वाले दूत के कारण ही कई बार राजा के काम बिगड़ जाते हैं। अतः मुझे कुछ ऐसा करना होगा, जिससे मुझे घबराहट या अविवेक न हो जाए और श्रीराम का काम न बिगड़े। अन्यथा समुद्र को पार करके इतनी दूर तक आना भी व्यर्थ हो जाएगा।’
‘इस नगरी में ऐसा कोई स्थान नहीं दिखाई देता, जहाँ राक्षसों से छिपकर जाना संभव हो। यहाँ तक कि मैं यदि राक्षस रूप में भी जाऊँ, तो भी उनकी दृष्टि से बचा नहीं जा सकता। तो फिर किस प्रकार यह कार्य किया जाए, जिससे एकांत में जानकी जी से भेंट भी हो जाए और श्रीराम का कार्य भी न बिगड़े?’
इस विषय में बहुत विचार करने के बाद उन्होंने निश्चय किया कि ‘मैं इस रूप में लंका में प्रवेश नहीं कर सकता क्योंकि राक्षस मुझे पहचान लेंगे। अतः यही उचित है कि मैं रात्रि के समय नगर में प्रवेश करूँ और ऐसा रूप बना लूँ, जिसे देख पाना कठिन हो। मैं अपने इसी रूप में छोटा-सा शरीर धारण करके लंका में प्रवेश करूँगा।’
ऐसा निश्चय करके वीर हनुमान जी सूर्यास्त की प्रतीक्षा करने लगे। सूर्यास्त हो जाने पर उन्होंने अपने शरीर को बहुत छोटा बना लिया। अब उनका आकार बिल्ली के बराबर हो गया था। प्रदोष-काल में अपने इस लघु-रूप में हनुमान जी फुर्ती से उछलकर उस रमणीय नगरी के परकोटे पर चढ़ गए। वहाँ से वे लंकापुरी का निरीक्षण करने लगे।
लंका की चारदीवारी और प्रवेश-द्वार सोने के बने हुए थे। उन सब पर हीरे, मोती, नीलम आदि जड़े हुए थे। उन द्वारों का ऊपरी भाग चाँदी का बना होने के कारण श्वेत दिखाई देता था। प्रत्येक द्वार पर रमणीय सभा-भवन बने हुए थे, जिनकी सीढ़ियाँ नीलम की थीं और फर्श को भी मणियों से सजाया गया था।
लंका नगरी में चौड़े-चौड़े विशाल राजमार्ग थे। उनके दोनों ओर प्रासादों की पंक्तियाँ दूर तक फैली हुई थीं। सुनहरे खंभों और सोने व मोतियों की जालियों से सजी वह नगरी बड़ी रमणीय दिखाई देती थी। उन्होंने अनेक ऊँचे-ऊँचे महलों को देखा, जिन्हें वन्दनवारों से सजाया गया था। यह सब देखते हुए हनुमान जी ने सीता की खोज के लिए अब लंका में प्रवेश किया।
हनुमान जी को देखते ही लंका नगरी स्वयं ही राक्षसी के रूप में उनके सामने आकर खड़ी हो गई। उसका मुँह बड़ा विकट था। बड़े जोर से गर्जना करते हुए उसने पूछा, “वनचारी वानर! तू कौन है और यहाँ किस कार्य से आया है? अपने प्राण बचाना चाहता है, तो सब ठीक-ठीक बता दे। रावण की सेना इस नगरी की चारों ओर से सुरक्षा करती है। तेरा यहाँ प्रवेश करना असंभव है।”
यह सुनकर हनुमान जी बोले, “क्रूर नारी! तेरे प्रश्नों का उत्तर मैं बाद में दूँगा। पहले तू यह तो बता कि मुझ पर इस प्रकार क्रोध करके मुझे डाँटने वाली तू कौन है?’
तब कुपित होकर लंका ने कहा, “वानर! मैं स्वयं लंका नगरी हूँ। मेरी अवहेलना करके यहाँ प्रवेश करना असंभव है। मैं रावण की सेविका हूँ और यहाँ की रक्षा करती हूँ।”
तब हनुमान जी बोले, “मैं तो केवल इस सुन्दर नगरी की अट्टालिकाओं, परकोटों, नगरद्वारों, वनों, उपवनों, उद्यानों आदि को देखने आया हूँ। इस नगरी को देखने के लिए मेरे मन में बड़ा कौतूहल है।”
इस पर क्रोधित होकर लंका ने पुनः कठोर वाणी में कहा, “दुष्ट वानर! तू मुझे परास्त किए बिना इस नगरी में प्रवेश नहीं कर सकता।”
हनुमान जी ने उसे समझाया, “भद्रे! इस लंकापुरी को देखकर मैं चुपचाप लौट जाऊँगा। तू मुझे इसमें प्रवेश करने दे।”
लेकिन अचानक ही लंका ने भयंकर गर्जना करते हुए एक जोरदार थप्पड़ हनुमान जी को मार दिया। इससे क्रोधित होकर उन्होंने भीषण सिंहनाद किया और अपनी बायीं अंगुलियों को मोड़कर मुट्ठी बाँध ली। लंका स्त्री थी, इस कारण उन्होंने अपने क्रोध को बहुत नियंत्रण में रखा और उस पर केवल एक हल्का-सा ही प्रहार किया।
लेकिन इतने भर से ही वह निशाचरी व्याकुल होकर भूमि पर गिर पड़ी और क्षमा माँगती हुई बोली, “कपिश्रेष्ठ! शास्त्रों में स्त्री को अवध्य बताया गया है, अतः आप मेरे प्राण मत लीजिए। आपने अपने पराक्रम से मुझे परास्त कर दिया है। मैं आपको एक सच्ची बात बताती हूँ। ब्रह्माजी ने मुझसे कहा था कि ‘जब कोई वानर आकर अपने पराक्रम से तुझे परास्त कर दे, तो तू समझ जाना कि राक्षसों पर बड़ी भारी विपत्ति आ चुकी है।’”
“अब आपको देखकर मैं समझ गई हूँ कि वह समय आ चुका है एवं सीता के कारण दुरात्मा रावण तथा समस्त राक्षसों का विनाश होने वाला है। अतः आप निर्बाध रूप से इस नगरी में प्रवेश कीजिए।”
तब हनुमान जी ने निर्भय होकर लंकापुरी में इस प्रकार प्रवेश किया, मानो उन्होंने शत्रु के सिर पर ही अपना बायाँ पैर रख दिया हो।
(स्रोत: वाल्मीकि रामायण। सुन्दरकाण्ड। गीताप्रेस)
आगे जारी रहेगा….

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