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मसाला खिचड़ी है एटली की जवान

by ओम लवानिया
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जिस प्रकार खिचड़ी में चावल की मात्रा अधिक रहती है ठीक उसी प्रकार शाहरुख खान का प्रस्तुतिकरण रखा है और बाक़ी अन्य चीज़ें थोड़ी थोड़ी डाली हुई है। एटली ने जवान में जो छौंक लगाया है बिगिल वाला ही फॉर्मूला प्रयोग में लिया है। जैसा ट्रेलर के वक्त लिखा था। मसाले में राष्ट्रीय सुरक्षा, हेल्थ, किसान और भ्रष्टाचार डाला है। स्क्रीन प्ले पौने तीन घण्टे इन्ही पॉइंट्स को सॉल्व करने निकलता है। शुरुआती फ्रेम्स मनी हेस्ट की याद ताजा करती है तो वही थोड़ा आगे बढ़ते ही गब्बर इज बैक और हालिया रिलीज जेलर वाली फील देती है, फ़िर एटली की पुरानी फिल्मों की थीम प्रतीत होती है। ऐसे ही खिचड़ी तैयार की गई है। कुछ कॉमिक सिचुएशन ठीक है। कुछ इमोशन रखे है लेकिन कनेक्टिविटी कतई न है। कोई फीलिंग्स जनरेट न होती है।

पहला हाफ फिर भी कुछ कनेक्ट करता है दूसरा तो कूड़े में डालने लायक है। लेकिन विक्रम राठौर वाला एक्शन सीक्वेंस बढ़िया है।
डायलॉग भी नॉर्मल है, बाप-बेटे वाला समीर वानखेड़े घटनाक्रम के बाद रखा है।
शाहरुख खान को एटली कुमार ने वाक़ई एक्शन फॉर्मेट में पेश किया है, चाहे एक्शन सीक्वेंस बॉडी डबल ने शूट किए हो। बाप-बेटे शेड्स को शाहरुख ने ठीक बॉडी ट्रांसफॉर्मेशन दिया है। साउथ वाला पूरा स्वैग निकला है। गंजा और राठौड़ वाले शेड्स उम्दा रहे है।
विजय सेतुपति फ़िल्म में है जरूर, किरदार भी ग्रे शेड में है। परंतु स्क्रीन प्रिजेंस इतनी न है प्रभाव दिखा सके। थोड़ा दम दिखता है तो सारुक आ जाते है। क्योंकि एटली अपनी फिल्मों में हीरो पर ध्यान केंद्रित करते है। दरअसल, वे हीरो को ही ड्यूल किरदार पकड़ा देते है। उन्हें स्क्रीन देने के बाद ज्यादा स्क्रीन टाइम बचता ही नहीं है। सेतुपति को जवान में भी कैप्सूल दिए है लेकिन “विक्रम” वाली फील न है। एटली ने विक्रम रखा है विक्रम राठौर…तो विजय के कैप्सूल बेकार चले जाते है।
नयनतारा, खूबसूरत है तो नजर भी आई है। शुरू के दो घटनाक्रम में प्रभावी है। उसके बाद डाउन होती चली जाती है क्योंकि बाप-बेटे सारुक स्क्रीन पर आ पहुँचते है। सॉरी थोड़े वक्त के वास्ते दीपिका पादुकोण भी आती है।
प्रियामनी, सान्या मल्होत्रा, रिद्धि डोगरा, सुनील ग्रोवर आदि भी है। दिखाई भी देंगे। संजय दत्त का जबरन कैमियो रखा गया है साउथ में ऐसे कैमियो आवश्यक है।
मेरी आँखें योगी बाबू को तलाशती है लेकिन उन्हें सिर्फ़ तमिल वर्जन में रखा है। हिंदी में कास्टिंग डायरेक्टर मुकेश छाबड़ा नजर आएं है।
बीजीएम ठीक है, गीत-संगीत इतने प्रभावी न है। एडिटिंग में फ़िल्म की लेंथ कम की जा सकती थी। मास टेरेटरी में फ़िल्म जबर करेगी, क्योंकि सिंगल स्क्रीन्स में ऐसे मास मसाला खिचड़ी पसंद की जाती है।
मुझे बेहद औसत फ़िल्म लगी है, डाई हार्ड के लिए अमृत रहने वाली है। ट्रेड की हरकतों में भौकाल या कहे सुनामी है।

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