भारत की स्वतंत्रता के समय देश के विभाजन के साथ-साथ ही सैकड़ों रियासतों के एकीकरण की चुनौती भी आई।
ब्रिटिश राज के दौरान भारत में दो प्रकार की शासन व्यवस्था थी। देश का कुछ हिस्सा अंग्रेजों के सीधे नियंत्रण में था, जिसे ब्रिटिश भारत कहा जाता था। इसका शासन इंग्लैण्ड की संसद के अधीन था। लेकिन इसके अलावा देश में सैकड़ों रियासतें भी थीं। इनके शासक कोई राजा, महाराजा या नवाब आदि होते थे।
सन 1600 में ब्रिटेन की ईस्ट इण्डिया कंपनी व्यापार के लिए भारत आई थी।
लेकिन यहाँ के शासकों की आपसी फूट और कमजोरी को पहचानकर धीरे-धीरे उसने व्यापार से आगे बढ़कर सीधे राजकाज में दखल देना और रियासतों को आपस में लड़वाना शुरू कर दिया। 1757 की प्लासी की लड़ाई के बाद तो उसकी शक्ति भी बहुत अधिक बढ़ गई और धीरे-धीरे कंपनी ही भारत के बहुत बड़े भूभाग की शासक बन गई।
ईस्ट इण्डिया कंपनी ने भारत की रियासतों पर कब्जे के लिए कई तरीके अपनाए थे, जिनमें एक यह था कि यदि किसी रियासत के शासक की मौत हो जाए और उसका कोई पुत्र न हो, तो कंपनी सरकार उसके उत्तराधिकारी को मान्यता नहीं देगी और वह राज्य कंपनी का हो जाएगा। इससे रियासतों में जो असंतोष पनपा, वह भी 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का एक बड़ा कारण था।
इससे घबराई ब्रिटिश सरकार ने 1858 में भारत का शासन कंपनी के हाथों से छीनकर सीधे अपने हाथों में ले लिया। तब ब्रिटिश सरकार ने इन रियासतों को आश्वासन दिया कि उत्तराधिकारी न होने पर रियासत को हथिया लेने की इस नीति का अब उपयोग नहीं किया जाएगा और रियासतों को छीनने का ब्रिटेन का कोई इरादा नहीं है।
लेकिन इस सुरक्षा के बदले रियासतों को ब्रिटिश सम्राट की सर्वोच्चता को स्वीकार करना पड़ता था, जिसका अर्थ यह था कि रियासतें ब्रिटिश ताज के प्रति वफादार रहेंगी और उनके विदेश, संचार और रक्षा विभाग ब्रिटिश शासन के अधीन रहेंगे। इसके अलावा ब्रिटिश सरकार रियासतों के आंतरिक कामकाज में ज्यादा दखल नहीं देगी। लेकिन हर रियासत में एक ब्रिटिश अधिकारी नियुक्त किया जाता था, जो रियासत के कामकाज पर नजर रखता था।
अब 1947 में जब ब्रिटिश भारत की स्वतंत्रता का निर्णय हो गया, तो उसका अर्थ यह भी था कि इन रियासतों ने ब्रिटिश शासन के साथ जो समझौता किया था, वह भी समाप्त हो जाएगा और ये रियासतें अपनी इच्छा से भारत या पाकिस्तान में शामिल होने अथवा स्वतंत्र रहने का निर्णय खुद ले सकती हैं।
ऐसी लगभग 565 रियासतें थीं। इनमें से हैदराबाद और काश्मीर जैसी कुछ रियासतें तो यूरोप के किसी देश के समान बड़ी थीं, जबकि कुछ तो बहुत ही छोटी जागीरें थीं, जिनमें केवल एक-दो दर्जन गाँव आते थे।
इन रियासतों में कोई लोकतंत्र नहीं था, न कोई चुनाव होते थे और न जनता को कोई प्रतिनिधित्व मिलता था। 1920 से ही काँग्रेस यह माँग कर रही थी कि रियासतें भी ब्रिटिश भारत के समान अपनी प्रजा को प्रतिनिधित्व दें।
इसके लिए काँग्रेस ने ऑल इण्डिया स्टेट पीपल्स कान्फ्रेंस बनाकर इन रियासतों को साथ जोड़ने का प्रयास भी किया गया। 1947 में इसके अध्यक्ष भी नेहरू जी ही थे। वे इनमें से अधिकांश रियासतों और उनके शासकों से सख्त नफरत करते थे। बदले में लगभग सारी रियासतों के शासक भी नेहरूजी को उतना ही नापसंद करते थे।
ब्रिटिश सरकार के समय रियासतों का कामकाज देखने के लिए एक पॉलिटिकल डिपार्टमेंट होता था। जून 1947 में उसे हटाकर एक नया राज्य विभाग बनाया गया और इन रियासतों से निपटने की जिम्मेदारी सरदार पटेल को सौंपी गई। इस काम में वीपी मेनन उनके सहायक थे। अपनी पुस्तक “इंटीग्रेशन ऑफ़ इण्डियन स्टेट्स” (भारतीय रियासतों का एकीकरण) में मेनन ने इन रियासतों के भारत में विलय का पूरा विवरण बहुत विस्तार में लिखा है।
भारत सरकार में सचिव जैसे बड़े पदों पर सामान्यतः आईसीएस अफसरों की ही नियुक्ति होती थी। लेकिन मेनन ने अपना करियर क्लर्क के छोटे-से पद से शुरू किया था और अपने अच्छे काम के कारण वे धीरे-धीरे उस पद तक पहुँचे थे। वे कई वायसरॉयों के अधीन काम कर चुके थे और अब वे माउंटबेटन के सहायक थे। भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम का मसौदा तैयार करने में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। अब राज्य विभाग में आकर वे सरदार पटेल के अधीन काम करने लगे।
उस वर्ष सरदार पटेल ने कई शानदार पार्टियों का आयोजन किया, जिनमें इन रियासतों के राजा-महाराजाओं को बुलाया गया। पटेल ने उन्हें समझाया कि अब भारत की स्वतंत्रता का समय लगभग आ ही चुका है और अंग्रेज़ों के जाने पर काँग्रेस ही सत्ता संभालेगी। इसलिए समझदारी इसी में है कि वे उनकी बात मानकर काँग्रेस के साथ समझौता कर लें और संविधान सभा में अपने प्रतिनिधि भेजकर भारत का संविधान बनाने में काँग्रेस की मदद करें।
कई रियासतों को भी यह समझ आ गया था कि अंग्रेज़ों के जाने के बाद काँग्रेस से बैर रखना उनके लिए बहुत भारी पड़ेगा। एक तो प्रजा में उनकी तानाशाही के विरुद्ध भारी असंतोष था। दूसरा इनमें से अधिकांश रियासतें चारों ओर से ब्रिटिश भारत से घिरी हुई थीं, जिसका नियंत्रण अब काँग्रेस के हाथों में आने वाला था। दो-तीन रियासतों के अलावा न तो किसी के पास कोई समुद्र-तट था और न बाहरी मदद के बिना उनकी अर्थव्यवस्था चल सकती थी।
जिन सीमावर्ती रियासतों ने सैकड़ों वर्षों तक बाहरी हमलावरों को झेला था, उन्हें यह डर भी था कि पाकिस्तान बनने के बाद अपनी सीमाओं को पाकिस्तानी हमलों से सुरक्षित रख पाना उनके बस की बात नहीं थी। इसलिए भारत में शामिल होने में ही उन्हें समझदारी दिखी।
कुछ की यह भी राय थी कि मुगल काल हो या ब्रिटिश शासन, दिल्ली में जिसका राज है उसकी अधीनता को स्वीकार करना उनकी परंपरा रही है। इसलिए अब अगर दिल्ली में काँग्रेस का शासन आने वाला है, तो उसकी अधीनता स्वीकार की जाए।
सरदार पटेल और मेनन ने मिलकर इन रियासतों के लिए एक विलय-पत्र तैयार किया। इसमें यह कहा गया था कि ये रियासतें अपने विदेशी मामले, संचार और रक्षा विभाग को अब काँग्रेस सरकार को हस्तांतरित कर दें और भारतीय संघ में विलीन हो जाएँ। 5 जुलाई को सरदार पटेल ने रियासतों से अपील की कि वे जल्दी इस विलय-पत्र पर हस्ताक्षर करें क्योंकि देश-हित में सरकार का सहयोग न करने का अर्थ है अराजकता को आमंत्रित करना। 25 जुलाई को माउंटबेटन ने भी नरेन्द्र मण्डल (चेंबर ऑफ प्रिंसेज) में अपने भाषण में यही अपील की।
उस भाषण के बाद रियासतों के लिए भी यह स्पष्ट हो गया कि 15 अगस्त के बाद अंग्रेज उनकी कोई मदद नहीं करेंगे। वैसे भी उनके प्रतिरक्षा, विदेश और संचार विभाग पहले भी उनके अधीन नहीं थे, इसलिए अब अंग्रेज़ों की बजाय इन्हें काँग्रेस के हवाले कर देने में रियासतों को बहुत आपत्ति भी नहीं थी। काँग्रेस ने भी उनसे यह वादा किया था कि इन तीन विभागों के अलावा रियासतों के आंतरिक मामलों में सरकार कोई दखल नहीं देगी। अतः 15 अगस्त तक अधिकांश रियासतों ने इस विलय-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए।
लेकिन यह बहुत अच्छा हुआ कि अंग्रेज़ों के जाने के बाद काँग्रेस अपने इस वादे से मुकर गई।
अब रियासतों में पूर्ण लोकतांत्रिक सरकार के गठन की माँग को लेकर आन्दोलन शुरू गए। मैसूर, काठियावाड़ और उड़ीसा की कई रियासतों में आन्दोलनकारियों ने जेलों, अदालतों और सरकारी कार्यालयों को भी अपने अधिकार में ले लिया।
अब फिर एक बार सरदार पटेल और मेनन ने रियासतों के शासकों को समझाया कि वे अपना शासन कायम रखने की जिद छोड़ दें और रियासतों को पूरी तरह भारत में विलीन कर दें। इसके बदले उन शासकों को अपनी पदवियां, उपाधियाँ, महल और अन्य निजी संपत्ति अपने पास बनाए रखने की इजाजत मिलेगी और सरकार आजीवन उन्हें पेंशन भी देगी। इसे ‘राजभत्ता’ (या अंग्रेजी में प्रिवी पर्स) कहा जाता है। इसकी धनराशि रियासत के क्षेत्रफल, राजस्व, ऐतिहासिक महत्व आदि से तय होनी थी और यह पाँच हजार से लेकर लाखों रुपये तक हो सकती थी।
इस प्रस्ताव को न मानने का सीधा अर्थ यह था कि प्रजा का असंतोष और भारत सरकार का असहयोग रियासतों के शासकों को पूरी तरह असहाय बना देगा और वे इसमें अपना सब-कुछ गवां देंगे। इसलिए समझदारी दिखाते हुए उन्होंने इस प्रस्ताव को मानना स्वीकार कर लिया।
लेकिन उन्हें प्रिवी पर्स की रकम के बारे में गारंटी चाहिए थी।
सरदार पटेल ने सुझाव दिया कि इस गारंटी को संविधान में ही शामिल कर लिया जाए। मेनन ने भी हिसाब लगाया कि यह फायदे का सौदा है क्योंकि सारी रियासतों के एकीकरण के बदले सरकार जितनी रकम इन शासकों को प्रिवी पर्स में देगी, उसकी दस गुना राशि इन राज्यों से राजस्व के रूप में सरकार को कुछ ही वर्षों में वापस मिल जाएगी।
सरदार पटेल और मेनन की इस सूझबूझ और कुशलता के कारण स्वतंत्रता के बाद केवल दो वर्षों में ही इन 500 से ज्यादा रियासतों का अस्तित्व पूरी तरह समाप्त हो गया और उनका पूरा भूभाग चौदह नई प्रशासनिक इकाइयों में बाँट दिया गया। यह हर दृष्टि से एक महान उपलब्धि थी, जिसका श्रेय सरदार पटेल और वीपी मेनन की दृढ़ता, दूरदर्शिता और कार्यकुशलता को जाता है।
लेकिन कुछ ऐसी रियासतें भी थीं, जिन्होंने बहुत समस्या खड़ी की। उनके बारे में अगले भाग में…