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पत्थरो के एक पहाड़ की कल्पना “शिव अनन्त है”

Zoya Mansoori

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पत्थरो के एक पहाड़ की कल्पना करिए जो पूरी तरह बर्फ से ढका है। वहाँ सब कुछ स्थिर है। पहाड़ की सबसे ऊंची चोटी पर एक योगी बिल्कुल स्थिर बैठे है। उनकी आंखें बंद है और पूरा शरीर भभूत से ढका हुआ है। बाजू मे उनकी पत्नी और दो बेटे बैठे हैं। चारों तरह सिर्फ बर्फ और हाड़ कंपा देने वाले ठंडक। गर्मी का एक अंश भी नहीं है, वातावरण की सारी गर्मी उस योगी के भीतर है। यह शिव और कैलाश की परिकल्पना है।

कैलाश पर ठंड इतनी है कि वनस्पति का नामोनिशान नहीं है। वहाँ एक हृष्ट पुष्ट बैल है, नंदी। कैलाश पर वनस्पति नहीं है तो वो खाता क्या है? वहां एक बाघ सिंहामुखम भी है, जो देवी पार्वती की सवारी है। बाघ का भोजन है माँस, लेकिन वह नंदी को नही खाता। तो फिर क्या खाता है? वहाँ शिव के गले मे एक साँप वासुकी भी है। साँप का भोजन है चूहा।

गणेश के पास उनका वाहन एक चूहा क्रोंच हैं, लेकिन सर्प वासुकी, चूहे क्रोंच को नहीं खाता, तो फिर वह क्या खाता है? वहां कार्तिकेय के पास एक मोर सुरापदम्न है। मोर का भोजन है, साँप लेकिन वह शिव के गले में स्थिर साँप को नहीं खाता, तो फिर वह क्या खाता है? कोई किसी को नहीं खाता क्योंकि कैलाश पर भूख नहीं है। शिव संहारक है, भूख के, काम के, वैभव के, अहंकार के।

पेड़ो को भूख लगती है, तो वो अपनी डाल और पत्तियां सूर्य की तरफ और जड़े जमीन में पानी की तरफ दौड़ा देता है। शेर को भूख लगती है तो वह जानवरों के पीछे दौड़ता है, चूहे को भूख लगती है तो वह अनाज के पीछे दौड़ता है। शिव में भूख नहीं है, उन्होंने भूख का संहार कर दिया है इसलिए वह स्थिर हैं। योग वह क्रिया है जिसके द्वारा भूख का संहार किया जाता है। जो भूख का संहार कर वह योगी।

शिव का प्राथमिक प्रतीक एक अनकार्व्ड पत्थर है, शिवलिंग। पत्थर को भूख नहीं लगती, उसे खाना खिलाने की कोई आवश्यकता नहीं। शिव भी भोग की आशा नहीं रखते। पत्थर को भूख नही होती तो वह गतिशील भी नही होता। जहाँ स्थिरता होती है, वहाँ प्राण नही होता, न तो जीवन पनपता है और न ही आगे बढ़ता है। जीवन वहाँ होता है जहाँ गतिशीलता होती है। इसलिए गौरी चाहती है कि शिव कैलाश से उतर कर काशी में आएं।

शिव नहीं जाते, क्योंकि उन्हें दक्ष प्रजापति ने यज्ञशाला में आमंत्रित नहीं किया था। यज्ञ में देवों का आह्वान किया जाता है। यज्ञ में देवों को नैवेद्य अर्पण किया जाता है, स्वाहा अर्पित किया जाता है क्योंकि देवों में भूख होती है। जब उनकी भूख शांत होगी तभी वो बदले में तथास्तु देंगे। शिव को देवों की तरह भूख नहीं लगती इसलिए वो देवों के देव महादेव हैं। देवों और महादेव में यही फर्क है, महादेव को भोग की आवश्यकता नहीं, उन्हें किसी वस्तु की भूख नहीं है।

जब आपको कुछ चाहिए ही नहीं तो यजमान आपको यज्ञशाला में आमंत्रित क्यों करेगा, जहाँ देवों को भोग अर्पण किया जा रहा है? जब शिव को किसी भोग की लालसा ही नहीं है तो दक्ष प्रजापति को उन्हें क्यों आमंत्रित करना चाहिए था? कथा कहती है कि दक्ष प्रजापति शिव से नफरत करते थे। इसलिए नहीं कि शिव के पास कुछ नहीं था बल्कि इसलिए क्योंकि उन्हें कुछ चाहिए ही नहीं था। शिव को किसी सांसारिक वस्तु के बजाय अपना तप, अपनी स्थिरता प्रिय थी।

क्या दक्ष प्रजापति वाकई शिव की कथा में एक विलेन थे? क्या इस पर इस एंगल से चर्चा करना शिव का अपमान होगा? क्या इसके लिए आप मेरा सिर काट देंगे? महाभारत में हीरो पाण्डव और विलेन कौरव थे। ऐसा वेदव्यास ने नहीं कहा, ऐसा महाभारत पढ़ते हुए हम सोचते है। लेकिन कथा के अंत मे स्वर्ग कौरवों को भी मिलता है। लेकिन क्यों? कौरव विलेन थे तो उन्हें स्वर्ग क्यों मिला इसका जवाब महाभारत में ही छिपा है।

क्या वजह जानने का प्रयास करने पर पांडवों का अपमान होता है? क्या इस पर सवाल पूछने वालों को पत्थरों से पीट पीट कर मार देना चाहिए? उत्तर रामायण में सीता के निष्कासन की कहानी है जो राम को विलेन और सीता को विक्टिम बनाती है। इस पर हज़ारो वर्षों से बहस हो रही है। कभी हम कहते है, उत्तर रामायण बाद में जोड़ी गई, कभी हम राम के पक्ष में तर्क देते हैं कभी सीता के पक्ष में। क्या इससे राम का अपमान होता है?

बलदेव हल से रोमहर्षणा की जीभ चीर कर उनका वध कर देते है। उन्हें ब्रह्म हत्या का दोषी करार दिया जाता है। बलदेव इस अपराध को स्वीकार करते हुए क्षमा मांगते है और प्रयाश्चित भी करते है लेकिन उन्होंने कभी नही बताया कि उन्होंने रोमहर्षणा का वध क्यों किया, जबकि वह वेदव्यास के परम शिष्य और पुराणवेक्ता थे। कभी चर्चा होती है कि उन्हें इसलिए मारा गया क्योंकि वह सूतपुत्र थे तो कभी कहा जाता है कि वो पुराणों का मूल सन्देश देने के बजाय, रटी रटाई कहानियां सुनाकर लोगों को प्रसन्न करने में यकीन करते थे। सच किसी को नही पता इसलिए सच की तलाश में इस पर आज भी चर्चा हो रही है।

चर्चा से वो डरते हैं, जो नहीं चाहते कि सच उन्हें पता चले। चर्चा से वो डरते हैं, जो पहले ही स्वीकार कर लेते हैं कि उनका इष्ट विलेन है। जो चर्चा से डरते हैं वो ईशनिंदा कानून बनाते हैं। वो दूसरों पर ये कानून थोपते हैं। चर्चा करने वालों पर ईशनिंदा के नाम पर मुकदमे दर्ज करवाते हैं, उनके गले काटते हैं। सनातन में ईशनिंदा का कोई कॉन्सेप्ट नहीं है। संस्कृत में एक भी शब्द ईशनिंदा या इसका समानार्थी नहीं है।

सनातनी स्थिरता में यकीन नहीं करते। गौरी शिव को स्थिरता से गति की ओर लाना चाहती थी, इसके लिए उन्होंने यज्ञकुंड में कूदकर प्राण त्याग दिए। सच की तलाश में वो किताबे वो कहानियां बार बार पढ़ी जाती है। ध्यान दें, पढ़ी जाती हैं, रटी नहीं जाती। जो किताबे कम्प्लीट होती हैं, वो अलमारी के कोने में पड़ी धूल खाती हैं। जो परम्परा स्थिर होती है, वो रुके हुए पानी की तरह बदबू मारने लगती हैं।

जो कहानियां अंतिम होती हैं उन पर कभी चर्चा नहीं होती और वक्त के साथ वो गुम हो जाती हैं। जीवन स्थिरता का नाम नहीं है, जीवन वही है जो गतिशील हो। चर्चा करना स्थिरता से गतिशीलता की ओर प्रस्थान का परिचायक है, जीवन का परिचायक है। हम हज़ारों साल से चर्चा कर रहे हैं, ईश्वर पर भी, इसलिए तो सनातन बहती नदी है। इसलिए तो सनातन सनातन है।

सनातन में ईष्ट भेड़ बकरी नही होता कि कोई भी घर मे बैठकर कान ऐंठ दे और उनका अपमान हो जाए। आप जबरन ईशनिंदा के नाम पर बहती नदी का रास्ता रोकेंगे तो नदी की प्रतिक्रिया में आप भी उसके साथ बह जाएंगे। मोहम्मद जुबैर इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। जुबैर ने वही काटा जो उसने बोया। जिस ईशनिंदा कानून का वो हिमायती था, उस कानून के बहुत हल्के कानून के तहत उसे गिरफ्तार किया गया।

अगर देश मे ईशनिंदा लागू होता और उसे उसी कानून के तहत पकड़ा जाता तो? अब तक मुंडी लटक कर ढाई बिलोंग लम्बी हो गई होती। आपने ऐसा करने पर सनातनियों को मजबूर किया वरना सनातन तो बहती नदी है। ऐसी नदी जो सम्मान अपमान से परे सिर्फ ज्ञान की बात करता है, सच की तलाश में हर चर्चा को स्वीकार करता है।

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