Home हमारे लेखकसुमंत विद्वन्स वाल्मीकि रामायण अयोध्या कांड भाग 39
अयोध्या के दूत शाम को जिस समय गिरिव्रज नगर में पहुँचे, उस समय भरत अपने मित्रों के साथ बैठे हुए थे। पिछली रात जब लगभग बीत चुकी थी और सबेरा होने ही वाला था, तब उन्होंने एक अप्रिय स्वप्न देखा था, जिसके कारण सुबह से ही भरत अत्यंत व्याकुल थे। दिन-भर उनके मित्रों ने वाद्य, संगीत, नाटक आदि अनेक साधनों से उनके मन को प्रसन्न करने का प्रयास किया, किन्तु भरत का मन उस दिन कहीं नहीं लगा।
अंततः एक घनिष्ठ मित्र के पूछने पर उन्होंने बताया, “‘मित्र! मैंने आज स्वप्न में पिताजी को देखा था। उनका मुख मलिन था, बाल खुले हुए थे और वे पर्वत की चोटी से नीचे गिरकर गोबर से भरे एक गंदे गड्ढे में पड़े हुए थे। वे तेल पी रहे थे और हँस रहे थे। फिर उन्होंने तिल और भात खाया। इसके बाद उनके सारे शरीर में तेल लगाया गया और फिर वे सिर नीचे करके तेल में ही गोते लगाने लगे।”
“मैंने स्वप्न में यह भी देखा कि समुद्र सूख गया है, चन्द्रमा पृथ्वी पर गिर पड़ा है, सारी पृथ्वी उपद्रव से ग्रस्त और अन्धकार से आच्छादित है। महाराज की सवारी में उपयोग होने वाले हाथी का दाँत टुकड़े-टुकड़े हो गया है और जलती हुई अग्नि अचानक बुझ गई है।”
“फिर मैंने देखा कि महाराज काले लोहे की चौकी पर बैठे हैं, उन्होंने काला वस्त्र पहन रखा है और काले व भूरे रंग वाली स्त्रियाँ उन पर प्रहार कर रही हैं। लाल रंग के फूलों की माला पहने और लाल चन्दन लगाए हुए महाराज दशरथ गधे से जुते हुए रथ पर बैठकर बड़ी तेजी से दक्षिण दिशा की ओर जा रहे थे। लाल वस्त्र पहनी हुई, विकराल मुख वाली राक्षसी जैसी दिखने वाली एक स्त्री हँसती हुई उन्हें खींचकर ले जा रही थी।’”
“जो मनुष्य स्वप्न में गधे जुते हुए रथ से यात्रा करता हुआ दिखाई देता है, शीघ्र ही उसकी चिता का धुआँ भी देखने को मिलता है। अतः मुझे लगता है कि शीघ्र ही मैं, श्रीराम, राजा दशरथ अथवा लक्ष्मण में से किसी एक की मृत्यु अवश्य हो जाएगी। इसी कारण मैं दुःखी हूँ, मेरा गला सूख रहा है और मन अस्वस्थ हो रहा है। मुझे सहसा ही स्वयं ही घृणा हो रही है, किन्तु मुझे इसका कोई कारण समझ नहीं आता।”
इस प्रकार की बातें चल ही रही थीं कि तभी अयोध्या के दूत नगर में पहुँचे व केकयराज तथा वहाँ के राजकुमार से मिले। फिर उन्होंने अपने भावी राजा भरत को प्रणाम करके कहा, “कुमार! पुरोहितजी तथा समस्त मंत्रियों ने आपसे कुशल-मंगल कहा है। अब आप यहाँ से शीघ्र चलिए क्योंकि अयोध्या में एक अत्यंत आवश्यक कार्य आपकी प्रतीक्षा कर रहा है। आप ये बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण ग्रहण कीजिए तथा अपने मामा को भी दीजिए। इस बहुमूल्य सामग्री में से बीस करोड़ मूल्य के उपहार आपके नाना केकयनरेश के लिए हैं तथा दस करोड़ मूल्य के उपहार आपके मामा के लिए हैं।”
भरत ने वे वस्तुएँ अपने मामा को भेंट कर दीं।
तब भरत ने दूतों से पूछा, “क्या अयोध्या में सब कुशल-मंगल है? क्या महाराज दशरथ, महात्मा श्रीराम और लक्ष्मण सकुशल हैं? क्या सभी माताएँ प्रसन्न हैं?”
दूतों ने उत्तर दिया कि ‘सब कुशल हैं, किन्तु अब आपको शीघ्र ही रथ में बैठकर निकल चलना चाहिए’।
तब भरत ने अपने नाना केकयराज अश्वपति से अयोध्या लौटने की आज्ञा माँगी। केकयराज ने उन्हें उपहार में अनेक उत्तम हाथी, सुन्दर कालीन, मृगचर्म, बड़ी-बड़ी दाढ़ों और विशाल काय वाले कई कुत्ते, सोलह सौ घोड़े और दो हजार स्वर्णमुद्राएँ आदि देकर आशीर्वाद सहित विदा किया। उन्होंने अपने अभीष्ट, विश्वासपात्र एवं गुणवान मंत्रियों को भी उनके साथ जाने की आज्ञा दी। भरत के मामा ने उन्हें इरावान पर्वत और इन्द्रशिर नामक स्थान के आस-पास उत्पन्न होने वाले अनेक सुन्दर हाथी एवं तेज चलने में प्रशिक्षित अनेक खच्चर उपहार में दिए।
भरत इस समय बहुत चिंतित हो रहे थे क्योंकि एक तो उन्होंने पिछली रात वह दुःस्वप्न देखा था और अभी-अभी अयोध्या से आए दूत भी तुरंत ही वापस चलने की जल्दी मचा रहे थे। अतः भरत ने सब लोगों से विदा ली और शत्रुघ्न के साथ तेजी से अपनी यात्रा आरंभ की। ऊँट, बैल, घोड़े और खच्चर से जुते हुए सौ से अधिक रथ उनके पीछे-पीछे चल रहे थे।
अयोध्या से आते समय दूत जिस मार्ग से आए थे, यह वापसी का मार्ग उससे भिन्न था। राजगृह से निकलकर भरत पूर्व दिशा की ओर बढ़े। सबसे पहले उन्होंने सुदामा नदी को पार किया। इसके बाद वे ह्रदिनी नदी (संभवतः सिन्धु नदी?) के तट पर पहुँचे, जिसका पाट बहुत दूर तक फैला हुआ था। उसे पार करने के बाद उन्होंने पश्चिम दिशा में बहने वाले शतद्रु (सतलज) नदी को पार किया।
वहाँ से आगे बढ़कर वे अनेक ग्रामों, नदियों व पर्वतों को पार करते हुए चैत्ररथ नामक वन में पहुँचे। ततपश्चात उन्होंने सरस्वती नदी को पार करके वीरमत्स्य राज्य में प्रवेश किया और उससे भी आगे बढ़कर वे यमुना के तट पर पहुँचे। वहाँ विश्राम करके आगे बढ़ते-बढ़ते अंततः आठवें दिन वे अयोध्या पहुँचे।
सुनसान अयोध्यानगरी को देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने अपने सारथी से पूछा “सारथे! अयोध्या नगरी आज इतनी उदास क्यों प्रतीत हो रही है? यहाँ न गीत-संगीत का कोई स्वर सुनाई दे रहा है, न लोग प्रसन्नचित्त हैं, न कहीं से चन्दन की सुगंध आ रही है। मुझे अनेक अपशकुन दिखाई पड़ रहे हैं। ऐसा लगता है कि मेरे प्रियजन अवश्य ही किसी संकट में हैं।”
यह सब देखकर वे और भी व्याकुल हो गए। अब उन्हें विश्वास हो गया कि अवश्य ही कुछ दुःखद हुआ है, इसी कारण इतनी उतावली में उन्हें अयोध्या बुलाने के लिए दूत भेजे गए थे। यह सब सोचते-सोचते भरत ने दुःखी मन से अयोध्या में प्रवेश किया और वे अपने पिता को प्रणाम करने उनके महल में गए। लेकिन उन्हें पिता कहीं दिखाई नहीं दिए। तब वे अपनी माता कैकेयी से मिलने उसके भवन में गए। भरत को देखते ही कैकेयी अत्यंत हर्षित हो गई और अपने स्वर्णमय आसन को छोड़कर तुरंत उठ खड़ी हुई।
घर में प्रवेश करने पर भरत ने देखा कि सारा घर श्रीहीन हो गया है। उन्होंने अपनी माँ को प्रणाम किया। कैकेयी ने भरत का व अपने मायके का कुशल-क्षेम पूछा।
वह सब बताने के बाद भरत ने कैकेयी से पूछा, “माँ! मुझे यह बताओ कि यह भवन आज इतना सूना क्यों दिखाई पड़ रहा है? महाराज कहाँ हैं? कोई परिजन आज प्रसन्न क्यों नहीं दिख रहे हैं?”
यह सुनकर कैकेयी बोली, “बेटा! तुम्हारे पिता महाराज दशरथ बड़े महान और तेजस्वी थे। सब जीवों की एक दिन जो गति होती है, वे भी अब उसी अवस्था को प्राप्त हो गए हैं।”
यह सुनते ही भरत समझ गए कि पिता की मृत्यु हो गई है। वे अचानक भूमि पर बैठ गए और अपने हाथों को पटक-पटककर अत्यंत दुःख से विलाप करने लगे। इस प्रकार बहुत देर तक भरत रोते रहे।
कैकई ने उन्हें उठाया और सांत्वना की अनेक बातें कहकर उन्हें समझाने का प्रयास किया।
तब भरत बोले, “माँ! मैं तो यह सोचकर हर्षित मन से आया था कि संभवतः श्रीराम का राज्याभिषेक होने वाला है, इसी कारण महाराज ने मुझे इतनी शीघ्रता से अयोध्या बुलवा लिया है। यहाँ आकर पता चला कि मेरे प्रिय पिताजी ही मुझे छोड़कर चले गए। मुझे बताओ माँ, उन्हें कौन-सा रोग हो गया था, जिसने उनके प्राण ले लिए? धन्य हैं श्रीराम, जिन्होंने पिताजी का अंत्येष्टि-संस्कार किया होगा। मैं अभागा तो उनके अंतिम दर्शन भी न पा सका।”
“माँ! तुम मुझे बताओ कि पिताजी ने अपने अंतिम समय में क्या कहा था? मेरे लिए उनका जो अंतिम सन्देश था, मैं उसे सुनना चाहता हूँ।”
तब कैकेयी बोली, “भरत! तुम्हारे श्रेष्ठ पिता ने अत्यंत शोकपूर्वक ‘हा राम! हा सीते! हा लक्ष्मण!’ कहते हुए अपने प्राण त्यागे थे। अपने अंतिम क्षण में वे यह कहकर विलाप कर रहे थे कि जो लोग सीता के साथ लौटने पर श्रीराम को व लक्ष्मण को देखेंगे, वे ही कृतार्थ होंगे।
यह सुनकर भरत को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा, “माँ! पिताजी के अंतिम क्षण में उन्हें छोड़कर श्रीराम, लक्ष्मण व सीता कहाँ चले गए थे?”
आगे जारी रहेगा….

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