हिंदू संसार की एक ऐसी कौम जिसके लोग उसी डालों को काट रहे हैं जिस पर वे बैठे हुए हैं। हिंदुत्व का यह वृक्ष जिसकी प्रत्येक शाखा समान रूप से महत्वपूर्ण है, उन्हें कुछ लोग अपने जातीय अहं की कुल्हाड़ी से काटकर अलग करने पर तुले हैं।
भगवान परशुराम भी इस महावृक्ष की एक ऐसी शाखा हैं जिनके महत्व को जातीय विद्वेष के धुंए में छिपा दिया गया।
ब्राह्मणों के एक वर्ग द्वारा राजनैतिक लाभ के लिए उनके राष्ट्रीय स्वरूप और महानायक की छवि से विपरीत ‘क्षत्रियहंता’ की छवि को उभारा गया जिसकी प्रतिक्रिया जातीय विद्वेष में होनी ही थी जिसके कारण एक ऐसे राष्ट्रीय महानायक का अवमूल्यन हुआ बिना यह तथ्य जाने कि भगवान परशुराम जहाँ विष्णु के आवेशावतार माने गए वहीं सहस्त्रार्जुन को भी सुदर्शन चक्र के रूप में विष्णु का अवतार माना गया है।
क्या जाहिर होता है?
केवल यही कि भगवत्ता उतरने के बाद भी अहंकार पथभ्रष्ट कर सकता है और तब वह भी प्रकृति के दैवीय विधान द्वारा दंडित किया जायेगा।
अस्तु! अभी भगवान परशुराम के कई महान कार्यों में से एक वह कार्य जो दाशराज्ञ के उत्तर में बिखरे हुए राजनैतिक वातावरण में इस राष्ट्र में सांस्कृतिक पुनुरोत्थान के रूप में किया गया था।
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“भगवन! चिंताजनक समाचार है।” दूत ने सामने खड़े भव्य व्यक्तित्व के समक्ष सिर झुकाकर कहा।
श्वेत केशों के उत्तुंग जटाजूट, हिमश्वेत त्वचा, श्वेत श्मश्रु और निर्मल आंखों वाले इस व्यक्तित्व को देखकर सहसा ही पर्वतराज हिमालय का आभास होता था।
आप थे दाशराज्ञ विजेता चक्रवर्ती सुदास के पुरोहित ब्रहर्षि वसिष्ठ।
“बोलो!” गंभीर स्वर में महर्षि ने अनुमति दी।
“चक्रवर्ती सुदास हैहयों का सामना नहीं कर पा रहे हैं। बहुत कम सैन्य बचा है। कल संभवतः…..”, दूत ने सिर झुकाकर कहा।
“ठीक है वत्स, तुम भोजन कर विश्राम करो। ” शांत स्वर में वसिष्ठ ने कहा।
दूत के जाने के बाद वसिष्ठ उद्विग्न होकर टहलने लगे। पिछले वर्षों के घटनाक्रम उनके मस्तिष्क में घूमने लगे।
जन्म के आधार पर वर्ण के निर्धारण के प्रश्न को लेकर उनके विश्वामित्र से गंभीर मतभेद हो गए थे जो इतनी कड़वाहट में बदल गये कि नर्मदा से लेकर हिंदुकुश से परे तक की आर्य व अनार्य जातियां दो पक्ष बनाकर युद्धरत हो गईं।
विश्वामित्र के पिता गाधि के सज्जन स्वभाव के कारण ‘भरत गणसंघ’ की जातियां व अफगानिस्तान की पठान जातियां तो विश्वामित्र के पक्ष में थी हीं, साथ ही उनकी गायत्री महाविद्या से मंत्रपूत होकर आर्यत्व प्रदान करने के कारण शम्बर, यक्ष, शिश्णु, पिशाच आदि अनार्य जातियां भी उनके पक्ष में आ खड़ी हुई थीं।
वशिष्ठ के पक्ष में केवल भरत गणसंघ से अलग हुए तृत्सुओं के महत्वाकांक्षी नेता सुदास भर थे।
वसिष्ठ ने उनकी काट के रूप में विश्वामित्र से रुष्ट तत्कालीन देवराज इंद्र और सहस्त्रार्जुन के साथ मध्यएशिया के योद्धाओं का प्रबंध किया।
कई छोटे मोटे युद्धों के बाद रावी के तट पर अंतिम महासंग्राम हुआ।
युद्ध के बीच में इंद्र की देवसेना का निर्णायक प्रहार भरत गणसंघ के सैन्य पर हुआ और वे परास्त हो गए।
विश्वामित्र परास्त हुये पर ब्रहर्षि भी बहुत कुछ समझ गए कि विश्वामित्र के योद्धाओं के विपरीत उनके पक्ष में लड़ने वाले योद्धा उनके सिद्धांत से नहीं बल्कि अपने स्वार्थों से प्रेरित थे।
-सुदास चक्रवर्ती बनना चाहते थे।
-इंद्र विश्वामित्र से निजी खुन्नस निकालने आये थे।
-मध्य एशिया के शक आदि यहाँ जड़ें जमाना चाहते थे
-और हैहय! उनके इरादे तो ब्रहर्षि तब समझ पाए जब युध्द योजना के विपरीत सहस्त्रार्जुन ने भरत गणसंघ पर आक्रमण ही नहीं किया। अगर उसी समय इंद्र की सहायता न मिली होती तो पराजय निश्चित थी।
ब्रहर्षि सहस्त्रार्जुन की योजना समझ गए पर अब देर हो चुकी थी।
सहस्त्रार्जुन तूफान की तरह आगे बढ़ रहा था। उसकी हैहय, यादव, तुण्डिकेरा, शार्यात आदि सेनाएं बाढ़ की तरह उमड़ पड़ीं।
चक्रवर्ती सुदास पराजय व वीरगति की कगार पर थे।
भरत गणसंघ पहले ही पराजित दुर्बल था।
वसिष्ठ उद्विग्नता में कुटीर में चक्कर लगाने लगे। विश्वामित्र सही थे, लेकिन अब देर हो चुकी थी।
शासन के प्रारंभ में विवेकी व दैवीय व्यक्तित्व का सहस्त्रार्जुन मदांध होकर आर्य होते हुए भी आर्य नियमों को तिलांजलि दे चुका था और अब सप्तसिंधु की आर्य संस्कृति उसकी निरंकुश सत्ता द्वारा नष्ट होने वाली थी।
सहसा ब्रहर्षि के मस्तिष्क में बिजली कौंधी।
“राम!”
विश्वामित्र के भानजे भृगुकुल के कुलपति महर्षि जमदग्नि का पांचवा पुत्र राम।
राम- एक चिरविद्रोही असाधारण बालक।
शास्त्रों व शस्त्रों में उसकी समान गति थी लेकिन माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध शस्त्रों में उसकी असाधारण रुचि थी।
बालक राम का समय वेदाध्ययन की तुलना में मातृकुल के इक्ष्वाकुओं और पिता के मामा विश्वरथ के शस्त्रागार में अधिक बीतता था।
पिता चाहते थे कि वह वसिष्ठ व विश्वामित्र की तरह ऋचाओं का दर्शन कर ब्रहर्षि बने पर बालक राम का मन नये शस्त्रों के निर्माण व अनुशीलन में अधिक लगता था ।
जब भृगुकुल का दवाब अधिक बढ़ा तो बालक राम विद्रोह कर कैलाश की ओर चल पड़ा, समस्त अस्त्र शस्त्र और घातक विद्याओं के आदिगुरु महारुद्र शिव से प्रशिक्षण लेने।
अब वह लौट रहा था।
नई विद्याओं के साथ,
नई रणनीतियों के साथ,
नये शस्त्र के साथ,
नये नाम के साथ,