यह भी एक तथ्य है कि अशराफ ने ऐसा नैरेटिव बनाया है कि मुस्लिम समाज, इतिहास के क्रूर बादशाहों और आज के गुंडे बदमाश माफिया को ही अपना हीरो (नायक) मानता रहा है। यूं तो मुस्लिम समाज में समाज सुधारक पैदा नहीं होते हैं और अगर कोई इक्का दुक्का हुआ भी तो उसे विलेन (खलनायक) मानता रहा है।
अशराफिया तबके द्वारा तैयार किये गये इस माहौल में देश के कथित सेकुलर और लिबरल लोग भी ताल से ताल मिलाते नजर आये। क्या सेक्युलर लिबरल और क्या मजहबी मौलाना, सब एक सुर में अतीक को कौम का रहनुमा, मुसलमानों का मसीहा, सरकार के अत्याचार से पीड़ित साबित करने में लग गए। एक तथाकथित सेकुलर लिबरल बड़ी महिला पत्रकार ने तो अतीक की जाति तक ढूंढ निकाली और प्रधानमंत्री की पसमांदा नीति पर ही सवाल उठाते हुए विवेचना प्रस्तुत कर दी कि एक ओर प्रधानमंत्री पसमांदा को जोड़ने की बात कर रहे हैं और दूसरी ओर पसमांदा की हत्या हो रही है। ये वही लोग हैं जो मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय के सवाल पर आंखें चुराते हुए मुस्लिम समाज के जातिगत विभेद को नकारते रहे हैं।
जबकि अतीक प्रकरण को सामान्य कानून व्यवस्था के लिहाज से ही देखना चाहिए। इस पर कानूनी रूप से जो सवाल उठाये जा सकते हैं वो उठाये जा रहे हैं। स्वयं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने न्यायिक जांच बिठा दी है जो अपनी जांच कर रही है। लेकिन जो सवाल मुस्लिम समाज के सामने है वह यह कि क्या वह अपराधीकरण को अपनी मुख्यधारा मानकर चलेगा? क्या अतीक अहमद जैसे माफिया और अपराध जगत से जुड़े लोग ही उसके कौमी लीडर होंगे? अतीक अहमद वैसे ही अपराध और राजनीति का एक मिला जुला उदाहरण था जैसे दूसरे कई और माफिया यूपी बिहार में पाये जाते रहे हैं। हिन्दी बेल्ट विशेष रूप से बिहार और उत्तर प्रदेश में 70 के दशक से ही सरकारी ठेकों को हासिल करने और उससे अत्यधिक लाभ कमाने के लिए असर रसूखदार एवं दबंग लोग छोटे छोटे गैंग बनाकर सरकारी ठेकों को हासिल करने में एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करने लगे। फिर शुरू हुआ वर्चस्व स्थापित करने के लिए एक दूसरे गैंग के लोगों की हत्याओं का न थमने वाला सिलसिला। इन अपराधिक कार्यों में ये लोग बहुत सेकुलर रुख अपनाया करते थे। स्वयं की गैंग के विरोधी को बिना धर्म जाति का भेदभाव किए ठिकाने लगा देते थे।
याद करिए मुन्ना बजरंगी को। वह किस धर्म का था और किसके लिए काम करता था? अगर वह धर्म जाति देखता तो मुख्तार अंसारी के इशारे पर कृष्णानंद राय की हत्या करता? स्वाभाविक है माफियाओं की दुनिया में उनके अपने उसूल होते हैं। जो उनके साथ है वह उनका अपना भाई है, जो विरोधी है माफिया उसके लिए कसाई है। अगर धर्म का इतना ही रोल होता तो अतीक चांद बाबा की हत्या करके अपनी आपराधिक यात्रा क्यों शुरु करता? इसलिए माफिया का धर्म देखना या उसे कौम का लीडर बताना मुस्लिम कौम के साथ धोखा है। अतीक अहमद ने भी अपना आर्थिक साम्राज्य बढ़ाने के लिए अपराध से लेकर राजनीति तक सबका सहारा लिया। उसने जो भी किया अपना आर्थिक साम्राज्य बढ़ाने के लिए किया, कौम की भलाई के लिए नहीं किया।
अत: ऐसी बेतुकी बयानबाजी से मुस्लिम कौम को भटकाने का काम बंद होना चाहिए कि अतीक अहमद की हत्या कौम के लीडर के हत्या है। पसमांदा आंदोलन का इस प्रकरण में यह स्पष्ट मानना है कि यह पूरी तरह कानून व्यवस्था और लोकतांत्रिक राजनीति के सुधार से जुड़ा मुद्दा है और इसे किसी भी स्थिति में मुस्लिम सांप्रदायिकता का मुद्दा नहीं बनने देना चाहिए।