बिहार में सत्ता को बदलने की नहीं बल्कि व्यवस्था बदलने की लड़ाई लड़नी होगी। सत्ता ने जंगलराज के दौरान जो घाव दिया था व्यवस्था को अब पक कर नासूर बन चुका है।
यह लड़ाई किसी के लिए आसान नहीं रह
ने वाली है क्योंकि जो लोग बिहार में रह गए, वे टूट गए है। उन्होंने किसी बदलाव की उम्मीद खो दी है। वे अपराधियों और माफियाओं की जयकार में लगे हुए हैं। ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि अपने गांव और मोहल्ले के सड़क छाप गुंडों का जैसा महिमा गान मैने बिहार में देखा है, वह कहीं और नहीं है।
जो ‘गांव’ का जितना गिरा हुआ आदमी है, पूरे गांव में उसका उतना ही अधिक सम्मान है।
बिहार के लिए थोड़ी रोशनी कहीं नजर आती है, तो उन लोगों की तरफ से जिन्होंने छोटी उम्र में ही बिहार छोड़ दिया लेकिन अपने अंदर एक छोटा सा बिहार लेकर आज भी एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश, या फिर विदेश दर विदेश भटक रहे हैं।
चंपारण में ब्रेवो फर्मा के राकेश पांडेय की सक्रियता देखते ही बनती है। वे बाहर ही रहे और अपनी मिट्टी से उनका जुड़ाव उन्हें वापस अपने शहर लेकर आया है। ऐसे ही मनोज वाजपेयी हों या फिर पंकज त्रिपाठी, ऐसा लगता है कि इनके अंदर हमेशा इनका गांव भी यात्रा कर रहा होता है।
देश और दुनिया में ऐसे अनगिनत लोग हैं जो बिहार में व्यवस्था परिवर्तन चाहते हैं। उन्हें भी तलाश है एक ईमानदार पहल की। जो काम कम से कम प्रशांत किशोर जैसे अति महत्वाकांक्षी या फिर पुष्पम प्रिया चौधरी की तरह मौसमी मददगारों से होने वाला नहीं है।
ऐसे लोग बड़ी संख्या में हैं जो अपने अपने स्तर पर पटना, चंपारण, सासाराम, दरभंगा, मुजफ्फरपुर, बक्सर, पूर्णिया और दूसरे शहरों में काम कर रहे हैं। यदि ये सारी कोशिशें एक मंच पर आ जाएं तो हम बिहार में एक बड़ी संभावना को फलीभूत होता देख सकते हैं।
बहरहाल, बिहार में बीपीएससी से लेकर चारा चोरी तक की कहानियां इसी तरह लिखी जाती रहेंगी। धड़—पकड़ और गिरफ्तारी भी होगी लेकिन इससे बिहार में कोई बड़ा परिवर्तन आएगा, मुझे तो नहीं लगता।
उपसंहार : कुछ लोग ‘बिहार लोक सेवा आयोग’ को ‘बिहार लीक सेवा आयोग’ भी लिख रहे हैं।