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30 जनवरी 1948 की शाम को दिल्ली के बिड़ला भवन में गोली मारकर गांधीजी की हत्या कर दी गई। पुलिस ने घटनास्थल पर ही नाथूराम गोडसे को गिरफ्तार भी कर लिया। दस दिन पहले भी गांधीजी की एक सभा में ग्रेनेड फेंका गया था। उस मामले में मदनलाल पाहवा की गिरफ्तारी हुई थी। इसके बाद सरकार ने उनकी सुरक्षा के लिए पुलिस का पहरा बढ़ा दिया था। लेकिन प्रार्थना सभा में आने वालों की तलाशी लेने की उन्होंने सहमति नहीं दी थी, इसलिए उनकी हत्या करने के लिए रिवॉल्वर ले जाने में गोडसे को कोई कठिनाई नहीं हुई।

हत्या और साजिश के आरोप में नाथूराम गोडसे के अलावा 8 और लोगों की भी गिरफ्तारी हुई। 27 मई 1948 को अदालत में यह मुकदमा शुरू हुआ और 10 फरवरी 1949 को कार्यवाही पूरी हुई। वीर सावरकर जैसे महान क्रान्तिकारी और स्वतंत्रता सेनानी को भी सरकार ने इस मामले में अभियुक्त बनाया था, लेकिन न्यायालय ने मामले की जाँच के बाद उन्हें सभी आरोपों से मुक्त कर दिया। नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फांसी की सज़ा सुनाई गई। सरकारी गवाह बन जाने के कारण एक अभियुक्त दिगंबर बड़गे को माफ़ी दे दी गई। नाथूराम के भाई गोपाल गोडसे और अन्य अभियुक्तों को उम्रकैद की सज़ा हुई।

इस फैसले के खिलाफ सभी अभियुक्तों ने हाइकोर्ट में अपील दायर की। नाथूराम गोडसे ने हत्या की बात स्वीकार की, लेकिन साजिश के आरोपों से इनकार किया। उनका कहना था कि यह हत्या केवल उन्होंने अकेले की है और न इसमें कोई साज़िश थी, न उनका कोई साथी था। इसलिए केवल उन्हें अकेले को सज़ा दी जाए और अन्य सबको बरी किया जाए। 2 मई 1949 को हाइकोर्ट में यह सुनवाई शुरू हुई थी और 8 नवंबर तक चली। हाइकोर्ट ने दत्तात्रय परचुरे और शंकर किस्तैय्या को बरी कर दिया, लेकिन बाकी सबकी सज़ा कायम रखी।

उस समय तक भारत का नया संविधान तैयार नहीं हुआ था और सुप्रीम कोर्ट की स्थापना भी नहीं हुई थी। हाइकोर्ट के फैसले के खिलाफ लन्दन की प्रिवी काउंसिल में अपील करनी पड़ती थी। गोडसे और आप्टे के परिवारजनों ने इसके लिए अनुमति माँगी। उसे यह कहकर खारिज कर दिया गया कि प्रिवी काउंसिल के पास केवल ढाई माह का कार्यकाल बचा है क्योंकि 26 जनवरी 1950 को भारत का नया संविधान लागू हो जाएगा और सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना भी हो जाएगी। प्रिवी काउंसिल के पास इस अपील को सुनने के लिए पर्याप्त समय नहीं है, इसलिए वे लोग ढाई माह प्रतीक्षा करें और सुप्रीम कोर्ट के गठन के बाद यह याचिका वहाँ ले जाएँ। लेकिन सरकार ने उन्हें उतना समय नहीं दिया। गांधीजी के दो बेटों, मणिलाल और रामदास गांधी ने भी भारत सरकार से अपील की कि फांसी की सज़ा माफ़ कर दी जाए। वह अपील भी खारिज हो गई।

15 नवंबर 1949 को अंबाला की जेल में नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फांसी दे दी गई।

गांधीजी की हत्या से भारत की राजनीति में एक बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ। कांग्रेस के संगठन और भारत की सरकार दोनों पर नेहरू जी का अब पूरा नियंत्रण हो गया। सरकार के लिए गांधीजी का नाम अब अपने ऊपर लगने वाले किसी भी आरोप से बचाव की ढाल भी बन गया। सरकार अपने किसी भी निर्णय को गांधीजी के आदर्शों के नाम पर सही ठहरा सकती थी क्योंकि अब गांधीजी की आलोचना कोई नहीं कर सकता था। नन्दलाल मेहता ने गांधी-हत्या की FIR लिखवाते समय यह दावा किया था कि मरते समय उनके अंतिम शब्द “हे राम!” थे। बाद में भले ही यह दावा गलत साबित हो गया, लेकिन यह बात बिल्कुल सही साबित हुई कि गांधीजी की हत्या के बाद उनका नाम ही कांग्रेस के लिए हर बात का रामबाण इलाज बन गया।

चूँकि पाकिस्तान इस्लाम के नाम पर बनाया गया था, इसलिए भारत में भी कुछ संगठन यह माँग उठाते थे कि भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित किया जाए। कांग्रेस को हमेशा यह डर सताता था कि यदि ऐसा हो गया, तो जिस तरह पाकिस्तान की राजनीति में पूरी तरह मुस्लिम लीग का एकाधिकार हो गया है, उसी तरह भारत की राजनीति भी पूरी तरह हिन्दूवादी संगठनों के हाथों में चली जाएगी और कांग्रेस राजनीति से बाहर हो जाएगी। इसी आशंका से कांग्रेस लगातार यह प्रयास करती आ रही थी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और हिन्दू महासभा जैसे संगठनों व सावरकर जी जैसे नेताओं को लगातार दबाया जाए या बदनाम किया जाए। इसी कारण सावरकर जी को गांधी-हत्या में फंसाने का प्रयास किया गया था। स्वयं डॉक्टर आंबेडकर ने सावरकर जी के वकील को यह बात बताई थी कि केवल एक व्यक्ति की जिद के कारण उन्हें अभियुक्त बनाया गया है, लेकिन वास्तव में उनके खिलाफ कोई केस नहीं बनता है और वे इस मामले में पूरी तरह निर्दोष साबित होंगे। अंत में वाकई ऐसा हुआ भी।

जब भारत-विभाजन की बात हुई तो जिन्ना, आंबेडकर, सरदार पटेल सहित लगभग सारे बड़े नेता यही चाहते थे कि जब धर्म के आधार पर देश का विभाजन हो रहा है, तो जनसंख्या की अदला-बदली भी पूरी तरह की जाए। लेकिन काँग्रेस के भीतर ही कुछ नेता इससे असहमत थे। यदि पाकिस्तान बनने के बावजूद भी पर्याप्त संख्या में मुसलमान भारत में ही रुक जाएं, तो उन्हें बहुसंख्यक हिन्दुओं के नाम से डराकर अपना वोट-बैंक बनाया जा सकता है और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के बहाने हिन्दू संगठनों को दबाया भी जा सकता है। आजादी के बाद से आज तक की काँग्रेस की राजनीति को देखें, तो यह बात बिल्कुल साफ दिखाई भी देती है कि काँग्रेस लगातार इसी नीति पर चलती रही है।

जब गांधी हत्या का मुकदमा शुरू हुआ, तो भारत सरकार ने इसकी कार्यवाही आम जनता के लिए खुली रखी थी। लेकिन जिस दिन नाथूराम गोडसे ने अदालत में अपना बयान दिया और गांधी जी की हत्या को सही ठहराने के लिए अपने तर्क रखे, तो उनके प्रति लोगों का समर्थन देखकर सरकार को चिंता हुई। उस दिन के बाद से अदालत की कार्यवाही बंद कमरे में होने लगी और लोगों का जाना प्रतिबंधित कर दिया गया। इस मामले की सुनवाई कर रहे हाइकोर्ट के चीफ जस्टिस जी.डी. खोसला ने बाद में यह लिखा था कि यदि उस दिन गोडसे के बयान को सुनने वाले लोगों को फैसले का अधिकार दिया जाता, तो वे सारे लोग एकमत से गोडसे को निर्दोष करार दे देते!

लेकिन सरकार ने केवल अदालत की कार्यवाही को ही सीमित नहीं किया, बल्कि गोडसे के बयान को छापने पर भी रोक लगा दी। उम्र कैद की सजा पूरी करने के बाद जब उनके भाई गोपाल गोडसे ने 1967 में अपना संस्मरण प्रकाशित किया, तो कांग्रेस सरकार ने तुरंत ही उस पुस्तक पर भी प्रतिबंध लगाकर सारी प्रतियाँ जब्त करने का आदेश जारी कर दिया। अंततः आपातकाल के बाद 1977 के चुनाव में जब कांग्रेस की हार हुई, तब जाकर यह सेंसरशिप हटी।

गांधीजी की हत्या के बाद सरकार ने RSS पर भी प्रतिबंध लगा दिया था। सरकार का दावा था कि गोडसे RSS का स्वयंसेवक है और इस हत्या की साजिश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी शामिल है। लेकिन सरकार यह बात साबित नहीं कर पाई क्योंकि इसमें कोई सच्चाई नहीं थी। एक ही वर्ष में सरकार को वह प्रतिबंध हटाना पड़ा। उसके बाद भी पिछले 75 वर्षों में कई बार राजनैतिक लाभ के लिए यह आरोप दोहराया जाता रहा है, काँग्रेस सरकारों ने जाँच आयोग भी बनाए हैं और अदालतों में मुकदमे भी चले हैं, लेकिन हर जाँच के बाद यही साबित हुआ है कि गांधीजी की हत्या से RSS का कोई संबंध नहीं था। अभी कुछ ही वर्ष पहले 2016 में राहुल गांधी के खिलाफ एक आरोप की सुनवाई के दौरान भी सुप्रीम कोर्ट ने फिर एक बार इस बात की पुष्टि की थी और अपने ऊपर मुकदमा चलने के डर से राहुल गांधी ने RSS को गाँधीजी का हत्यारा बताने की गलती के लिए माफ़ी मांगी थी।

 

नाथूराम गोडसे का जन्म चितपावन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इसलिए गाँधी हत्या के बाद महाराष्ट्र में इस समुदाय के लोगों को चुन-चुनकर निशाना बनाया गया। सैकड़ों निर्दोष लोग इन हमलों, लूटपाट, तोड़फोड़ और अन्य हिंसक घटनाओं के शिकार बने। काँग्रेस का यही तरीका 1984 में देखने को मिला था, जब इन्दिरा गाँधी की हत्या का बदला लेने के लिए हजारों निर्दोष सिक्खों की हत्याएँ की गई। इसे सही ठहराते हुए राजीव गाँधी ने कहा था कि जब बड़ा पेड़ गिरता है, तो धरती हिलती ही है। 1947 से आज तक ऐसी न जाने कितनी गलत बातों को ऐसे राजनेताओं ने सही ठहराया है!

उसी वर्ष फरवरी 1948 में कलकत्ता में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का अधिवेशन हुआ और बी.टी. रणदिवे इसके नए महासचिव बने। पिछला अधिवेशन 1943 में हुआ था, इसलिए आजादी के बाद यह पार्टी का पहला अधिवेशन था। इस अधिवेशन में यह सवाल उठा कि भारत का संविधान लागू होने पर क्या पार्टी उसे स्वीकार कर ले या भारत के खिलाफ हथियार उठाकर सशस्त्र संघर्ष का मार्ग चुने। पार्टी के पिछले महासचिव पी.सी. जोशी का गुट भारत में काँग्रेस और पाकिस्तान में मुस्लिम लीग से सहयोग करने की नीति का समर्थक था, जबकि बी.टी.रणदिवे का गुट भारत के खिलाफ युद्ध का पक्षधर था। अंत में इस उग्रवादी गुट की जीत हुई।

इस सम्मेलन में कम्युनिस्ट नेताओं ने घोषणा की कि 1947 में भारत को मिली स्वतंत्रता दिखावटी है और काँग्रेस केवल शोषक पूँजीपतियों की पार्टी है। इस समय पूरे विश्व में वामपंथ और साम्राज्यवाद के बीच युद्ध चल रहा है और पार्टी का यह कर्तव्य है कि वह किसान, मजदूर और बुद्धिजीवियों को एकजुट करके भारत के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह करे, जैसा हैदराबाद में हो रहा है। रूस की ऑल यूनियन कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) की विचारधारा को पूरे दक्षिण एशिया में फैलाने की ज़िम्मेदारी उठाने वाले युवाओं की प्रशंसा भी इस सम्मेलन में की गई।

सम्मेलन में पाकिस्तान और कुछ अन्य देशों के प्रतिनिधि भी आए थे। भारत के कम्युनिस्ट नेताओं ने कहा कि भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में ही साम्राज्यवाद समर्थक बुर्जुआ समूह ने सत्ता हथिया ली है और उनसे मुकाबला करना वामपंथियों का कर्तव्य है। इसलिए यह तय हुआ कि पाकिस्तान में भी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की जाए। उसके बाद अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक सज्जाद जहीर को पाकिस्तान कम्युनिस्ट पार्टी का महासचिव घोषित किया गया।

इस सम्मेलन के बाद वामपंथियों ने तेलंगाना, त्रावणकोर, बंगाल, त्रिपुरा और मालाबार में भारत के खिलाफ सशस्त्र आन्दोलन और जोर-शोर से शुरू कर दिया। लेकिन यह केवल डेढ़ वर्ष तक ही चल सका। पार्टी के सदस्यों की संख्या भी तेजी से घटने लगी। उसका सहयोगी संगठन ऑल इण्डिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस भी कमजोर पड़ने लगा। पश्चिम बंगाल की सरकार ने मार्च 1950 में कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके बाद अमृतसर, मणिपुर, हैदराबाद, त्रावणकोर, इंदौर, भोपाल आदि में भी एक-एक करके पार्टी को प्रतिबंधित कर दिया गया। देश-भर में उसके नेताओं की गिरफ्तारी हुई। लगभग ढाई हजार कार्यकर्ता भी जेल भेज दिए गए।

इस भीषण विफलता के कारण रूसी कम्युनिस्ट पार्टी बहुत नाराज हुई। जून 1950 में बी.टी.रणदिवे को हटाकर सी. राजेश्वर राव को पार्टी का महासचिव बनाया गया। रूसी कम्युनिस्ट पार्टी के सूचना विभाग (कॉमिन्फॉर्म) ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को अपनी नीतियाँ बदलने का आदेश दिया। उसी के अनुसार भारत के वामपंथियों ने अपनी भाषा बदल ली और अब वे भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में निष्ठा के दावे करने लगे। 1951 में भारत का पहला लोकसभा चुनाव हुआ। कम्युनिस्ट पार्टी अपने नए महासचिव अजय घोष के नेतृत्व में इस चुनाव में उतरी और 16 सीटें जीतकर वह सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी बन गई।

आजाद भारत का पहला बड़ा घोटाला भी 1948 में ही हुआ था।

जब पाकिस्तान ने जम्मू-काश्मीर पर हमला किया, तो युद्ध में भारतीय सेना को अतिरिक्त वाहनों की आवश्यकता पड़ रही थी। नेहरू जी के सबसे भरोसेमंद साथी वी.के. कृष्ण मेनन उस समय लन्दन में भारत के उच्चायुक्त थे। उन्होंने सारे नियम और प्रोटोकॉल तोड़कर एक गुमनाम विदेशी कंपनी को 2000 पुरानी जीपों का ऑर्डर दे दिया। उस गुमनाम कंपनी के पास केवल 605 पाउंड की पूँजी थी, लेकिन बिना कोई जाँच-पड़ताल किए मेनन ने उस कंपनी से 80 लाख रूपये का सौदा कर लिया, जबकि उतनी ही कीमत में अमरीका या कनाडा से नई जीपें खरीदी जा सकती थीं। मेनन ने इस बात पर भी सहमति दे दी थी कि एक भी जीप की जाँच किए बिना ही 65% राशि एडवांस में कंपनी को दे दी जाएगी और कुल 2000 जीपों में से केवल 10% का ही इन्स्पेक्शन किया जाएगा। इतनी छूट मिलने के बावजूद भी वह कंपनी केवल 155 जीपों की ही डिलीवरी दे पाई। उनमें से एक भी जीप उपयोग के लायक नहीं थी। रक्षा मंत्रालय ने इन जीपों को लेने से इनकार कर दिया और कंपनी ने भी और जीपों की डिलीवरी करने से मना कर दिया। इसके बाद वह कंपनी भी गायब हो गई और मेनन कभी उससे संपर्क नहीं कर पाए।

अब मेनन ने एस.सी.के. एजेंसीज नामक एक और कंपनी से 1007 जीपों का नया सौदा किया। इसके अनुसार कंपनी हर माह 68 जीपें भारत सरकार को देगी और पिछली कंपनी के साथ हुए सौदे में सरकार को जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई भी करेगी। अब इस नए सौदे में एक जीप की कीमत लगभग 458 पाउंड थी, जबकि पिछले सौदे में वह राशि 300 पाउंड की थी। यह सौदा भी सरकार को महंगा पड़ा क्योंकि इस नई कंपनी ने भी 1007 में से केवल 49 जीपों की ही डिलीवरी दी और उसमें भी दो साल लगा दिए। उसके बाद वह सौदा भी डूब गया।

जब इस मामले पर हंगामा मचा, तो सरकार ने अप्रैल 1951 में एक जाँच समिति बना दी। संसद की लोक लेखा समिति ने भी इस पर संज्ञान लिया और उच्च-न्यायालय के दो न्यायाधीशों से इस मामले की जाँच करवाने का सुझाव दिया। लेकिन सरकार ने सारी जाँच और रिपोर्ट कूड़े में डाल दी और कोई कार्यवाही किये बिना सितंबर 1955 में इस मामले की फ़ाइल बंद कर दी गई। जब संसद में हंगामा हुआ, तो गृहमंत्री गोविन्द वल्लभ पन्त ने विपक्ष से कह दिया कि सरकार इस पर कोई कार्यवाही नहीं करेगी, विपक्ष यदि चाहे तो इसे चुनावी मुद्दा बना ले।

अगले वर्ष 1956 में नेहरू जी ने मेनन को अपने मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया। 1957 में उन्हें भारत का रक्षामंत्री बना दिया गया। नेहरू जी के इस गलत फैसले का परिणाम देश को 1962 के भारत-चीन युद्ध में भुगतना पड़ा। उस युद्ध के कारण अंततः मेनन को रक्षामंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ा। लेकिन नेहरू जी ने फिर भी उन्हें बचाने का प्रयास करते रहे। मेनन को पहले रक्षा उत्पाद मंत्री बनाया गया और फिर बिना विभाग का मंत्री बनाकर नेहरू जी उनको बचाने में लगे रहे।

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