विश्वकर्मन् नमस्तेऽस्तु विश्वात्मन् विश्वसम्भव ।
अपवर्गोऽसि भूतानां पञ्चानां परतः स्थितः ॥
(महा०, शान्ति० ४७/८५)
‘हे विश्वकर्मन् ! यह सम्पूर्ण विश्व आपकी रचना है, आप
समस्त विश्वके आत्मा और उत्पत्तिस्थान हैं तथा पाँचों भूतों से
अतीत होने के कारण नित्यमुक्त हैं, आपको मेरा नमस्कार है।’
प्रजापति विश्वकर्मा वैदिक देवता हैं।
वेदों में इनके महनीय एवं उदात्त चरित्रका वर्णन हुआ है। विश्वकर्मा शब्दकी व्युत्पत्तिमें निरुक्ताचार्यों ने बतलाया है कि संसार के सभी कार्यों का करनेवाला एवं विश्वका रचयिता ही विश्वकर्मा नाम से निर्दिष्ट है। आचार्य स्कन्दस्वामीके अनुसार विश्वकर्मा अन्तरिक्ष स्थानीय या मध्य-स्थानीय देवता हैं, जो वायु एवं वृष्टिके संचालक तथा समस्त प्राणियोंकी चेष्टाओंके प्रेरक हैं।
ऋग्वेदके दशम मण्डल के दो सूक्त (८१-८२) विश्वकर्मा के सूक्त हैं, जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इन सूक्तोंके द्रष्टा
तथा स्तोतव्य देवता भी विश्वकर्मा ही हैं। इस प्रकारकी स्थिति
वैदिक सूक्तोंमें बहुत कम देखने को मिलती है। ऋग्वेदके
भाष्यकर्ता आचार्य सायण तथा वेंकट माधव आदिने इन
सूक्तोंके आध्यात्मिक एवं आधिभौतिक दो-दो अर्थ किये हैं।
एक अर्थमें उन्हें सर्वस्रष्टा देवता दिखाया गया है और दूसरे
भावमें सम्पूर्ण विश्वमें व्याप्त, सर्वद्रष्टा, सर्वकर्ता, अनेक मुख,
बाहु आदिके द्वारा द्यावापृथिवीको उत्पन्न करनेवाला परमात्मा
ही बताया गया है। वे ही सम्पूर्ण विश्व के पति, नियामक,
पालक, सभी यज्ञोंके भोक्ता एवं स्वामी कहे गये हैं। वे समस्त
विद्याओंके स्वामी वाचस्पति तथा कलाओं के आचार्य कहे गये हैं। इनके सभी कर्मोंको अत्यन्त प्रशंसनीय, आश्चर्ययुक्त एवं अलौकिक कहा गया है। इन्हें धाता, विधाताकी संज्ञा दी
गयी है।
ऋग्वेद (१०। ८२ । ३) में उनकी प्रशंसा एवं महिमा के बारेमें कहा गया है कि विश्वकर्मा सम्पूर्ण प्राणियों के उत्पादक, पालक, समस्त देवताओं के निवास स्थान तथा
विश्वके सभी भुवनोंको ठीक-ठीक जाननेवाले एवं उनकी न्यूनता और अधिकता के अनुसार व्यवस्था करनेवाले, सभी
देवताओं के नाम, धाम और स्वरूपके निर्माता, एकमात्र सबके स्वामी तथा सभी प्राणियों के एकमात्र प्राप्तव्य हैं-
यो नः पिता जनिता यो विधाता
धामानि वेद भुवनानि विश्वा ।
यो देवानां नामधा एक एव
तं संप्रश्नं भुवना यन्त्यन्या ।
इसी सूक्तमें पुनः आगे कहा गया है कि जिसके निर्गुण
और सगुण दोनों रूप हैं, जिसमें सारे गुण पर्यवसित होते हैं, जो स्वर्ग से भी ऊपर है, पृथ्वी से परे है तथा देवता और
असुरोंद्वारा दुर्विज्ञेय है, जिसके शरीर में देवतालोग सभी
लोकों को स्थित देखते हैं और जिसे कोई ठीक प्रकार से जान
नहीं पाता, वह विश्वकर्मा सभी प्रकार स्तुत्य है।
वाजसनेयिसंहिता (२९ । ९) के अनुसार इन्हें समस्त संसार
तथा ब्रह्माण्डोंका उत्पादक पिता कहा गया है ‘त्वष्टेदं विश्वं
भुवनं जजान ।’
वेदों में जहाँ एक ओर उन्हें परब्रह्म परमात्मा अव्यक्त तत्त्व
बताया गया है, वहीं दूसरी ओर उन्हें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की रचना
करनेवाले उपास्य तथा आराध्यदेव के रूपमें भी चित्रित किया
गया है। कहीं विश्वकर्मा नाम से तथा कहीं त्वष्टा नाम से
अभिहित करते हुए उनके दिव्य स्वरूपका चित्रण किया गया
है। इनका शरीर दिव्य बताया गया है और इनके हाथमें सदा
ही एक लोहेकी तेज धारवाली कुल्हाड़ी (बसूली) विद्यमान
रहती है-
‘वाशीमेको बिभर्ति हस्त आयसीमन्तर्देवेषु निधुविः ।’
(ऋग्वेद ८।२९ । ३)
इसी अयोमयवाशी अथवा कुल्हाड़ी से भगवान् विश्वकर्मा
शत्रुओंका संहार करते हैं तथा तक्षण आदि क्रिया-कलाओंका
समस्त कार्य करते हैं।
ऋग्वेद (६ । ४७।१९) में भगवान् विश्वकर्मा को दो
घोड़ों से युक्त एक दिव्य रथपर वेगसे चलते हुए दिखाया गया है और उनके स्वरूप को सूर्यके समान तेजस्वी बताया गया है।
विश्वकर्मा के हाथ तथा उनका ऊपरी भाग अर्थात् बाहु भी
अत्यन्त तेजस्वी है, इसलिये उनका सुपाणि भी एक नाम है।
ऋग्वेद (१।८५/९) में उन्हें अत्यन्त दक्ष कुशाग्रबुद्धि
तथा कुशल शिल्पी कहा गया है, जो क्षणमात्रमें अनेक दिव्य
अस्त्र-शस्त्रों तथा आभूषण आदिका निर्माण करनेमें दक्ष हैं।
वे चित्रकला, भित्तिकला तथा वास्तुकला में अत्यन्त निपुण तथा इन कलाओं और विद्याओं के प्रवर्तक आचार्य हैं। वे रूपों के निर्माता अथवा रूप (आकार-प्रकार) के निष्पादक हैं।
उन्होंने ही अशेष प्राणियोंको रूपसम्पन्न बनाया है और वे ही
गर्भाशयमें गर्भके विकासक और मानवीय तथा पाशविक
सभी रूपोंके विधायक हैं। उन्होंने सभी प्रकार के प्राणियों का
सर्जन किया है और वे ही उन सबका पालन-पोषण करनेवाले
हैं— ‘देवस्त्वष्टा सविता विश्वरूपः पुपोष प्रजाः पुरुधा
जजान’ (ऋ० ३।५५ । १९ ) ।
वाल्मीकीय रामायण, महाभारत तथा प्रायः सभी पुराणोंमें
विश्वकर्माको अष्टम वसु प्रभासका पुत्र बताया गया है, जो
प्रासाद, भवन, उद्यान, प्रतिमा, आभूषण, तालाब, उद्यान, कूप
आदिके निर्माता हैं तथा देवताओंके शिल्पी और वर्धकि
(बढ़ई) के रूपमें प्रसिद्ध हैं।
शिल्पविद्या में प्रासादशिल्प, आभूषण-घट्टनशिल्प, धातु एवं रंगोंके मिश्रण सम्बन्धी शिल्प, काष्ठशिल्प, उद्यान-रचना-शिल्प, पात्र-शिल्प, शस्त्रनिर्माण-
शिल्प, वायुयान निर्माण-शिल्प, भित्ति-शिल्प आदि सभी
शिल्पों, चित्रकलाओं, स्थापत्यकलाओं तथा वास्तुविद्याओं का
समावेश होता है। भगवान् विश्वकर्मा ही सम्पूर्ण सृष्टिकी रचना
करनेवाले तथा सभी शिल्पोंके आचार्य हैं, इसीलिये ये
प्रजापति कहलाते हैं।
मत्स्यपुराण (अ०२५२) में वास्तुविद्याके भृगु, अत्रि, वसिष्ठ, नारद, भगवान् शङ्कर आदि अठारह आचार्य बताये गये हैं, किंतु उनमें से देवताओंके शिल्पी के रूप में विश्वकर्माकी तथा दानवोंकी शिल्पी के रूप में मयकी विशेष प्रसिद्धि है। भगवान् विश्वकर्मा का ‘विश्वकर्मशिल्पम्’ नामक ग्रन्थ शिल्पशास्त्रका आर्ष ग्रन्थ माना गया है।
प्रायः सभी पुराणेतिहासादि ग्रन्थों में विश्वकर्मा की उत्पत्तिके
सम्बन्धमें यह आख्यान प्राप्त होता है कि देवगुरु बृहस्पति की
बहन अत्यन्त विदुषी एवं योगविद्या में निपुणा थीं। वे प्रायः
तीनों लोकों में अनासक्त भावसे विचरण करती हुई विशुद्ध
ब्रह्मचर्यपूर्वक जीवन व्यतीत कर रही थीं। कालान्तरमें उन्होंने
वसुओंमें अष्टम वसु प्रभास से विवाह कर लिया। प्रजापति
विश्वकर्माकी उन्हीं से उत्पत्ति हुई।
विश्वकर्मा आरम्भसे ही बहुत तीक्ष्ण बुद्धिके थे और शिल्प-कलाके प्रति इनकी विशेष अभिरुचि थी।
माता-पिताके ज्ञान के प्रभाव से ये शिल्प विद्यामें अग्रणी हो गये और सभी प्रकारकी कलाओं में पारङ्गत हो गये। तबसे लेकर देवताओंके सभी अस्त्र, शस्त्र, आभूषण, अलङ्कार, सभी विमानों तथा श्रेष्ठ प्रासादोंके निर्माता हो गये। आचार्य
विश्वकर्माद्वारा प्रदत्त शिल्पविद्याका ही आश्रय ग्रहणकर
बहुत-से मनुष्य अपना जीवन निर्वाह करते हैं-
बृहस्पतेस्तु भगिनी वरस्त्री ब्रह्मचारिणी ।
योगसिद्धा जगत्कृत्स्नमसक्ता विचरत्युत ॥
प्रभासस्य तु सा भार्या वसूनामष्टमस्य तु ।
विश्वकर्मा महाभागस्तस्यां जज्ञे प्रजापतिः ॥
कर्ता शिल्पसहस्त्राणां त्रिदशानां च वर्धकी।
भूषणानां च सर्वेषां कर्ता शिल्पवतां वरः ॥
यः सर्वेषां विमानानि देवतानां चकार ह ।
मनुष्याश्चोपजीवन्ति यस्य शिल्पं महात्मनः ॥
(विष्णु० १ । १५/११८-२१)
शिल्पकला, वास्तुकला, स्थापत्य तथा चित्रकला आदिके
आद्य आचार्य होनेके कारण देवलोककी प्रासाद, उद्यान आदि
सभी रचनाएँ उन्हींकी हैं और उन्हींकी कृपासे लोकमें प्रसृत हुई हैं तथा उन्हींसे काष्ठकला, तक्षण-कला, मूर्तिकला, कांस्यकला, धातुकला एवं मृद्भाण्डनिर्माण, वस्त्रनिर्माण,
प्रासादनिर्माण आदि अनेकों कलाओंका जन्म हुआ।
अतः सभी कलाओंके प्रवर्तकके रूपमें इनकी प्रसिद्धि
सर्वविश्रुत है।
इनकी विशिष्ट कृतियों में भगवान् श्रीकृष्ण की द्वारका
नगरी, इन्द्रकी अमरावती, धर्मराज युधिष्ठिर का राजभवन तथाइन्द्रप्रस्थनगरी, वृन्दावन, यमसभा, वरुणसभा, अर्जुन के रथकीध्वजा-पताका, इन्द्रकी सुधर्मा सभा, विजय नामक ध्वज और वज्र, शिवका दिव्य रथ एवं देव-मुनियोंके भव्य प्रासाद आदिमुख्य हैं। त्रिकूटमें स्थित कुबेरकी राजधानी लंका भी इनकेद्वारा निर्मित कही गयी है। इन्होंने एक ऐसे दिव्य पात्र का निर्माण किया था, जिसमें सदा अन्नादि दिव्य भोज्य पदार्थ भरेरहते थे और प्रयोग करनेपर भी रिक्त नहीं होते थे। देवताओं केअलंकरणों आदिका ये क्षणभरमें निर्माण कर देते थे। भगवती दुर्गा देवीके समस्त आभूषणों, चूडामणि, कटक, केयूर, हार,वस्त्र, उपवस्त्र, नूपुर, कमल तथा समस्त अस्त्र आदिकानिर्माणकर विश्वकर्मा ने ही इन्हें प्रदान किया था।
विश्वकर्माकी पूजा-उपासना भगवान् विश्वकर्मा (त्वष्टा) की पूजा-उपासना, हवन आदिका वेदोंमें उल्लेख प्राप्त होता है।
वाजसनेयिसंहिता(२९ । ९) के अनुसार अनेक लोगोंने इनकी उपासनासे अनेक दिव्य अस्त्र-शस्त्रों तथा शीघ्रगामी अश्वोंको प्राप्तकिया है। ये संततिको भी प्रदान करनेवाले हैं। अतः पुत्रकामी भी इनकी उपासनासे यथेष्ट लाभ प्राप्त कर सकते हैं। इनका विशेष पूजन सूर्य की कन्या-संक्रान्तिपर किया जाता है, जो विश्वकर्मा-जयन्ती भी कही जाती है। वास्तुपूजन तथा गृहनिर्माणादि में भी इनका पूजन किया जाता है। समस्त
विश्वकी संरचना करनेवाले तथा पोषक देवताके रूपमें, काष्ठ
एवं यन्त्रनिर्माण और प्रासादकलादिके अधिष्ठाता देवके रूपमें
भक्त, साधक तथा शिल्पीलोग आज भी श्रद्धा-भावसे इनकी
आराधना करते हैं।
Written By : Akansha Ojha