1980 के दशक तक भारत में फुटबॉल और फुटबॉलर्स की ठीकठाक पूछ थी. तब मनोरंजन भट्टाचार्य, सुदीप चटर्जी और भास्कर गांगुली हाउसहोल्ड नाम हुआ करते थे. लोग बाग ईस्ट बंगाल और मोहन बागान के मैच ईडन गार्डन में देखने छुट्टी लेकर जाया करते थे. तब नेहरू गोल्ड कप के नाम से एक इंटरनेशनल फुटबॉल टूर्नामेंट भी हुआ करता था जिसमें रूस, रूमानिया और उरुग्वे जैसे देशों की दूसरे तीसरे दर्जे की टीमें आया करती थीं. तब हमारी टीम के खिलाड़ी भी छोटे मोटे स्टार्स हुआ करते थे. लोगबाग उनके ऑटोग्राफ भी लिया करते थे और वे ऑटोग्राफ देने में नखरे भी किया करते थे.
और तब खेल को अधिक लोकप्रिय बनाने के लिए 1985 में टाटा ने स्पॉन्सर करके जर्मनी से एक टीम मंगाई थी जिसने भारत में अलग अलग टीमों के साथ कुछ मैच खेले थे. टीम थी बोखम क्लब, जो जर्मन फुटबॉल लीग की सेकंड डिवीजन की टीम थी. और इस टीम ने हमारी फुल स्ट्रेंथ नेशनल टीम को ईडन गार्डन में छह गोल से हराया नहीं, बुरी तरह बेइज्जत किया था. मैच देखकर लग रहा था कि शायद वे बारह गोल से जीते होते, लेकिन उनका और गोल करने में इंटरेस्ट नहीं बच गया था.
उसके अगले साल, 1986 में पहली बार मैक्सिको वर्ल्ड कप फुटबॉल का भारत में लाइव प्रसारण किया गया. फुटबॉल को पॉपुलर बनाने के लिए लिया गया यह निर्णय भारतीय फुटबॉल के ताबूत की कील साबित हुआ. पहली बार भारतीय दर्शकों ने देखा कि फुटबॉल क्या होता है…हमने माराडोना, जीको, सोक्रेट्स और प्लाटिनी को खेलते देखा, रूमेनिगा और लीनेकर को, टोनी शुमाखेर और जोएल बैट्स को देखा और सोचने लगे… अगर फुटबॉल यह होता है तो आज तक हम जो मोहन बागान और ईस्ट बंगाल को खेलते देख रहे थे, वह क्या था?
आज एमेजॉन प्राइम और नेटफ्लिक्स की वजह से, टेलीग्राम पर और टॉरेंट पर दुनिया भर का सिनेमा उपलब्ध है. आप विलियम वायलर, कुरोसावा और विटोरियो डी सिका से लेकर स्पीलबर्ग, जेम्स आइवरी और कैमरून की फिल्मे देखते हैं. ऑड्रे हेपबर्न और ग्रेगोरी पेक, इंग्रिड बर्गमैन और हम्फ्रे बोगार्ट से लेकर टॉम हैंक्स और मेग रयान का जादू देखते हैं, क्लिंट ईस्टवुड और मोर्गन फ्रीमैन के व्यक्तित्व पर मुग्ध होते हैं… और तब कोई दो कौड़ी का टिंगू या हकला किसी हॉलीवुड क्लासिक की घटिया कॉपी लेकर आता है तो सोचते हैं…अब इसका क्या करना है? अगर सिनेमा “कैसाब्लैंका” और “रेन मैन” जैसा हो सकता है तो यह “पीके” और “दबंग” क्या है? अगर सिनेमा “फॉरेस्ट गम्प” हो सकता है तो कोई “लाल सिंह चड्ढा” कैसे झेल सकता है?
इंटरनेट और ओटीटी प्लेटफॉर्म्स ने हमें बताया है कि सिनेमा क्या होता है, क्या हो सकता है…और सिनेमा के नामपर हम आजतक क्या कचड़ा देखते आए हैं. वर्ल्ड सिनेमा से परिचय बॉलिवुड का वही हाल करेगा जो 1986 के मैक्सिको वर्ल्ड कप ने भारतीय फुटबाल का किया था.