Home राजनीति मध्यवर्ग का मान मर्दन समारोह

दिल्ली नगर निगम चुनावों में मतदान प्रतिशत कम रहा और इसके साथ ही मध्य वर्ग को गरियाने का महोत्सव शुरू हो गया।

न-न, आपको परेशान होने की जरूरत बिलकुल नहीं। हमें गरियाने वाले भी कोई दूसरे नहीं, हम खुद ही होते हैं।थोड़े दिनों पहले तक एक जुमला इतना तेज चलने लग गया था कि उसे मुहावरे की मान्यता दे देने का मन करने लगा था – खाया पिया अघाया मध्य वर्ग। इस तथाकथित अघाये मध्यवर्ग को फ़रियाने की कोई जरूरत महसूस नहीं की गई। कितने निम्न, कितने उच्च। यह मुहावरा देने वाले कोई दूसरे नहीं, उसके अपने ही लोग थे। मध्यवर्ग का वह हिस्सा जिस बेचारे को पार्टी के आदेश पर खुद अपने ही लिए गालियां गढ़नी पड़ती हैं।

इस मध्यवर्ग की हालत यह है कि उम्मीदें सबकी इसी पर टिकी हैं। लेकिन, खुद इसके लिए, किसी के पास है कुछ नहीं, सिवा कोरे झुनझुने के। अगर कभी झुनझुने के तौर पर गलती से कुछ थोड़ा बहुत टैक्स रिलेक्सेशन दे भी दिया गया तो वास्तविक बनने से पहले ही रोक दिया जाता है। मतलब यह कि दाएं हाथ से देकर बाएँ हाथ से उसका दोगुना ले लिया जाता है।

यह सभी जानते हैं कि सरकार बदलने, यानी पुरानी सरकार को निपटाने और नई सरकार बनाने में, सबसे बड़ा हाथ इसी मध्यवर्ग का होता है। इसके बावजूद मतदान प्रतिशत घटने का सारा ठीकरा इसी के सिर फोड़ा जाता है। हमेशा, हर बार।

कभी यह सोचने की जरूरत महसूस ही नहीं की जाती कि मध्यवर्ग अगर मतदान करने नहीं निकला तो क्यों। आखिर क्यों वह घर में दुबका रहा? क्या उसे सरकार बनने-न बनने या गलत हाथों में जाने वाले नुकसान की समझ नहीं है?

ऐसा बिलकुल नहीं है। बस एक बात है। तंत्र से उसकी नाराजगी नारेबाजी और धरने-प्रदर्शन के रूप में नहीं दिखाई देती। वह दिखती है सबसे पहले तंत्र के प्रति उदासीनता के रूप में। निष्क्रियता के रूप में।

मध्यवर्गीय मतदाता का घर से बाहर न निकलना उसकी नाराजगी का पहला फेज है।
गौर से मूल्यांकन करिए, आपने क्या दिया उसे जिसके लिए वह आपके साथ खड़ा हो?

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