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यूटोपिया

राजीव मिश्रा

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एक आदर्श सामाजिक स्थिति. यह किसे नहीं चाहिए? सभी इसके लिए साइन-अप करेंगे.
तबतक, जबतक इसकी कीमत नहीं कैलकुलेट करते.
परफेक्शन क्या है? यह प्रोग्रेसिव रिफॉर्म्स की एक अंतहीन प्रक्रिया है. आप स्थिति को बेहतर, और बेहतर करते जाते हैं जबतक कि एक आदर्श स्थिति न आ जाए.
मान लेते हैं कि ऐसा करना संभव है. तो भी इसका कॉस्ट क्या होगा?
मान लें, आपको हॉस्टल के कमरे की तरह गंदे और अव्यवस्थित रहने की आदत है. आप एक दिन अपने घर में इस स्थिति को सुधारना चाहते हैं. पहले कुछ काम जो आप करेंगे, उसमे आपको ड्रामेटिक सुधार मिलेगा. अगर आप सिर्फ गंदे कपड़े और सॉक्स हटा कर अपने लॉन्ड्री बैग में डाल देंगे और बिस्तर का चादर सीधा कर देंगे तो सिर्फ दो मिनट में आपका कमरा पहले से बहुत बेहतर हो जायेगा. उसके बाद आप सारे जूते साफ करके, पॉलिश करके करीने से सजा देंगे, सारे कपड़े साफ सुथरे इस्त्री करके हैंगर में टांग देंगे, सारी किताबों को झाड़ पोछ कर सब्जेक्ट के अनुसार बुक शेल्फ पर सजा देंगे तो आपका कमरा और भी अच्छा हो जायेगा. लेकिन इसमें आपका आधा दिन चला जायेगा. अगर आपने नए बेडशीट्स, नए परदे और टेबल क्लॉथ लगाने का फैसला किया तो आपका खर्च और श्रम और बढ़ जाएगा और अगर आपने नए फर्नीचर लाने और दीवारों को डिस्टेंपर करने का हिसाब लगाया तो आपका बजट भागता चला जायेगा.
यह किसी भी सुधार पर लागू होता है. जैसे जैसे आप अधिक और अधिक सुधार करते जाते हैं, आपके हर नए सुधार का कॉस्ट अधिक होता जाता है और उससे होने वाला सुधार पहले सुधार की अपेक्षा में कम से कम लाभ देता है. यह अर्थशास्त्र का क्रमागत उपयोगिता ह्रास नियम है जो जीवन के हर निर्णय में लागू होता है. एक समय के बाद हर नए इंप्रूवमेंट का कॉस्ट उसके लाभ से अधिक होता है, और यह घाटे का सौदा हो जाता है. चूंकि यूटोपिया सुधारों की अनंत प्रक्रिया है इसलिए उसका कॉस्ट भी उतना ही बड़ा होगा और वह अधिक से अधिक हानिकारक होता जायेगा.
पर सिर्फ इतनी सी बात ही यूटोपिया को हानिकारक नहीं बनाती. यूटोपिया के अर्थशास्त्र से भी बड़ा गणित है यूटोपिया के मनोविज्ञान का. किसी को लगता है कि यह मनुष्य की सीमाओं के अंदर है और एक व्यक्ति के पास इतना नॉलेज हो सकता है कि एक आदर्श समाज कैसा हो उसकी कल्पना कर सके और उसे स्थापित कर सके. हर व्यक्ति की यह आदर्श कल्पना अलग अलग होगी. अब ऐसा समाज बनाने की जिसकी सत्ता होगी, उसे दूसरे हर किसी की कल्पना को कुचलना होगा. अगर दो लोग इसपर सहमत हो भी जाते हैं कि आदर्श समाज कैसा होना चाहिए तो उस आदर्श स्थिति को कैसे हासिल किया जाए इसका गणित दोनों लोगों का अलग अलग होगा..ऐसे में एक व्यक्ति को दूसरे को कुचल कर अपनी बात मनवानी होगी.
इसीलिए यूटोपिया की हर तलाश का अंत तानाशाही और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के हनन में होता है.
और हर किसी को लगता है कि चूंकि वह जो स्थापित करना चाहता है वह एक आदर्श स्थिति है, इसलिए उसका कुछ भी मूल्य चुकाया जाए वह कम है. खास तौर से अगर यह मूल्य कोई और चुका रहा हो. तो इसीलिए यूटोपिया की तलाश में एक तानाशाह को हजार दो हजार, लाख दो लाख या दो चार करोड़ की जान लेना एक छोटी सी कीमत लगती है. You can’t make omelette without breaking the eggs कहकर वह किसी भी अपराध बोध से मुक्त रहता है.
दुनिया की ज्यादातर त्रासदियां एक यूटोपिया की तलाश में शुरू हुई हैं. कम्युनिज्म हो या इस्लाम, हिटलर हो या माओ… सबके पास एक आदर्श समाज की कल्पना थी. यूटोपिया की एक तस्वीर थी. और लोगों ने पहले वह तस्वीर खरीदी, बाद में उसका मूल्य चुकाया.

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