ये एक ऐसा विषय है जिसपर लोग चर्चा करना पसंद नहीं करते अतः इस विषय में इसके इतिहास के विषय में भी नहीं जानते।
आज जबकि पुराने ‘लोटे’ व ‘डिब्बों’ के साथ ‘बिडेट शॉवर’, ‘नोजल शॉवर’ जैसे अत्याधुनिक पिछवाड़ा सफाई तंत्र मौजूद है तो कभी-कभी मन में प्रश्न उठता है कि हमारे आदिपूर्वज शौच के बाद ‘पीछे की सफाई’ कैसे करते होंगे?
क्या वे धोते भी थे या??????
बिल्कुल सही सोच रहे हैं आप।
आदिमानवों में ऐसा कोई कॉन्सेप्ट था ही नहीं और वस्तुतः उन्हें इसकी विशेष जरूरत थी भी नहीं।
क्योंsss??
वो इसलिये क्योंकि एक तो वे दो तीन दिन में एक बार हल्के होने जाते थे और दूसरे ये कि जब वे निकालते थे तो वह इतना सूखा, गांठदार और विशाल ‘लैंड़े’ के रूप में होता था कि एक झटके में बाहर निकलकर दूर जा गिरता था, गुदा पर बिना गंदगी का एक कण छोड़े।
निएंडरथल मानवों की इस क्षमता के असली वारिस थे स्कैंडेनेविया के ‘वाइकिंग्स’ जिनके निकाले ‘लैंड़े’ आजकल के मानवों की गुदा से निकले तो फिर रक्त की छूटती पिचकारियों को रोकने के लिए सर्जन को ही बुलाना पड़े।
अगर विश्वास न हो तो पैरिस के म्यूजियम में रखे निएंडरथल व वाइकिंग्स के कोप्रोलाइट्स का मुआयना कर लीजिए।
बहरहाल ऐसा प्रतीत होता है वाइकिंग्स ने निएंडरथल की ‘न धोने’ की इस परंपरा को बनाये रखा था और हल्के होने के बाद सीधे भोजन पर टूट पड़ना उनकी उस परंपरा का ही हिस्सा था जिसमें वे एक ही बर्तन में नाक छिनककर सभी बारी बारी से अपना मुँह धोते थे।
शायद उन्हें भी निएंडरथल की तरह धोने की जरूरत महसूस नहीं होती थी।
यूनानी लोग वाइकिंग्स से प्राचीन अवश्य थे लेकिन स्वच्छता के मामले में उनसे बेहतर थे। वे हल्के होने के बाद ‘पीछे की सफाई’ के लिए ‘पेसोई’ के नाम से जाने जाने वाले चीनी मिट्टी के टुकड़ों का उपयोग करते थे।
वैसे रोमन सभ्यता को पश्चिम अपनी सभ्यता के प्रतिमान के रूप में प्रस्तुत करता है लेकिन ‘पीछे की सफाई’ के मामले में उनकी चमकदार सभ्यता उबकाई लाने का उदाहरण प्रस्तुत करती है।
उनके यहां शौचालयों में छड़ी पर एक स्पंज लगाकर उसका सामूहिक इस्तेमाल किया जाता था। प्रत्येक व्यक्ति आता और नमक व सिरके के घोल में डुबोकर उस स्पंज को भिगोता और अपनी गुदा पर चिपके मल को साफ करके निकल लेता।
उसके बाद नंबर में लगा अगला आदमी उसी छड़ी और स्पंज को डुबोता…और फिर अगला…..
यक्क!
प्राचीन जापान में, शौच के बाद सफाई के लिए ‘चुगी’ के रूप में जानी जाने वाली लकड़ी की कटार का उपयोग किया जाता था।
भगवान ही जाने वे ‘पीछे की सफाई’ करते थे या उसे दांतों की तरह कुरेदते थे।
अधिकतर यूरोप में ठंड के चलते पुराने कपड़े के चिथड़े, पत्तियों आदि व्यर्थ पदार्थों का प्रयोग गुदा को रगड़कर साफ करने के लिए किया जाता था यद्यपि तेरहवीं शताब्दी में टॉयलेट पेपर के प्रयोग का उल्लेख मिलता है।
चीनी लोग इस मामले में सबसे एडवांस निकले थे जिन्होंने ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से ही टॉयलेट पेपर का प्रयोग करना शुरू कर दिया था।
लेकिन अमेरिका में बसे यूरोपियों को इसका प्रयोग में लाने में लगभग हजार साल लग गए।
भाई लोगों को वहां एक बढ़िया चीज मिल गई थी।
वे मक्के के भुट्टों को दाने निकालने के बाद एकत्रित करके रख लेते थे और ‘आउट हाउस’ में पानी के बर्तन में भिगोकर रख देते थे जिसका उपयोग हल्के होने के बाद वे उसका डंठल पकड़कर करते थे।
बहरहाल, कभी-कभी या अक्सर ‘छिलाई’ तो हो ही जाती थी तो उन्होंने एक पत्रिका (सीयर्स रोबक कैटलॉग) के कागज का इस्तेमाल ‘पोंछने’ के लिए शुरू कर दिया। लेकिन उनकी मुसीबत तब शुरू हो गई जब वह ‘चिकने पन्ने’ पर छपनी शुरू हो गई।
तो समझ गए न कि अति हर चीज की बुरी होती है चाहे वह ‘चिकनापन’ ही क्यों न हो।
बहरहाल ‘चिकनेपन’ की इस समस्या ने मॉडर्न टिशू पेपर रोल के रास्ते खोल दिये और साथ ही खोल दिया वनों के विनाश का रास्ता भी क्योंकि आज दुनियाँ में हजारों वृक्ष आपके पिछवाड़े की सफाई में बलि चढ़ जाते हैं।
खैर, अब आते हैं हम अपनी ओर यानि भारत की ओर, आर्य हिंदू सभ्यता की ओर।
कुछ लोग कहेंगे कि हमारा तो सदा से एक ही नारा रहा है–
‘लोटे का साथ, सदा बाँया हाथ’
बहरहाल कभी-कभी—
लोटा लुढ़क जाने पर,
लुढ़का दिये जाने पर,
पानी की अनुपलब्धता पर,
मिट्टी के धेले, पत्ते का भी प्रयोग आपद्धर्म के अंतर्गत शास्त्र सम्मत बताया गया है लेकिन भोजन वर्जित है, जब तक कि पीछे की धोकर सफाई न कर ली जाए व हाथ स्वच्छ न कर लिया जाये।
लेकिन यही एकमात्र तरीका नहीं था।
‘धोने’ के साथ-साथ ‘सूत्र ग्रंथों’ की टीकाओं में मुलायम लकड़ी व छाल द्वारा पोंछे जाने का भी विवरण मिलता है जिसमें यह भी निर्धारित किया गया है कि ब्रह्मचारी को कितनी बार ‘पोंछना’ चाहिए व गृहस्थ को कितनी बार।
बहरहाल मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यह उस कालखंड का स्मृति अवशेष रहा होगा जब हमारी सभ्यता सुमेरु अर्थात पामीर के ठंडे सूखे क्षेत्र तथा हिमालय की तराई में संघनित रही होगी। बाद में वे पश्चिम में स्वात व सिंधु घाटी तथा पूर्व में मैदानी क्षेत्र के ऊष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों की ओर बढ़े जिसके फलस्वरूप जैसे धार्मिक क्षेत्र में द्यौस, वरुण व अग्नि के स्थान पर ‘इंद्र’ की प्रभुता बढ़ी वैसे ही गर्मी व जल की प्रधानता के कारण ‘पोंछने’ के स्थान पर ‘धोने’ की विधि सर्वमान्य हो गई।
पश्चिमी सभ्यता में माँस के अतिरेक के साथ साथ ‘पीछे’ की सफाई के बाद हाथ न धोने की आदत के कारण छुरी व कांटे का प्रचलन था, ठीक उसी तरह हमारे यहाँ भोजन व पवित्र कार्यों में बांए हाथ का प्रयोग वर्जित था, बावजूद इसके कि हम हाथ धोते थे।
जी हाँ, विश्व की अन्य सभ्यताओं के विपरीत हम हाथ धोने के लिए अब तक के सर्वश्रेष्ठ मार्जक का प्रयोग करते थे जिसमें एंटीसेप्टिक गुण भी थे।
यज्ञकुंड या चूल्हे की राख जो सभ्यता की दुरावस्था में मिट्टी के प्रयोग में पहुंच गया।
मुगलकाल तक आते-आते हाथ धोने के लिए बेसन का प्रयोग भी होने लगा था।
तो पीछे की सफाई की यह ऐतिहासिक यात्रा पूर्ण हुई?
नहीं?
ओके! हमारे मुस्लिम भाइयों की सभ्यता के स्रोत अरब लोगों के बिना बात अधूरी रह गई लगती है।
तो साहिबान! उनके पास इसके लिए रेत और भाग्यशाली रहे तो कच्ची मिट्टी के ढेले या पकी मिट्टी की ठीपरी ही वह सामग्री उपलब्ध थी जिससे वे अपनी सफाई करने की कोशिश करते थे क्योंकि वहां ‘साप्ताहिक गुस्ल’ भी एक लग्जरी था।
इसीलिये अत्यधिक मांसभक्षण के कारण अमोनिया उत्सर्जित बदन और पाइल्स व फिस्टुला से ग्रसित गुदा से उठती उबकाई लाने वाली बदबू को छिपाने के लिए तबसे अबतक ये लोग तीखे इत्र का प्रयोग करते आये हैं, आज भी करते हैं।
कुछ हदीसों से संकेत मिलता है कि वे रेत गर्म होने पर या मिट्टी के टुकड़े न मिलने पर ऊँट के सूखे मलपिंडों का इस्तेमाल भी सफाई में करते थे। सोचकर देखिये कितना परेशानी भरा नजारा होता होगा जब रेत पर रगड़कर सफाई करनी पड़ती होगी या मिट्टी के ढेले मांगने पर कोई ऊंट का सूखा मलपिंड थमाकर बेहूदा मजाक करता होगा।
विश्वास न हो तो हदीस बुखारी पढ़ लें।
बहरहाल दुनियाँ आगे बढ़ गई लेकिन ‘मिल्लत’ आज भी मिट्टी के ढेलों पर अटकी है इसलिए एरोप्लेन्स में मिट्टी की ठीपुरी की मांग करती है और शौचालयों में पकी मिट्टी के टुकड़े अर्थात ‘ठीपुरी’ रखे मिलते हैं ताकि अरब की परंपरा का प्रतीकात्मक पालन कर सकें और आदर्श मुस्लिम बन सकें।
बहुत संभव है कि बुर्का, हलाला, तीन तलाक, मुत्तहा जैसी अवैज्ञानिक प्रथाओं की तरह अधिकांश धर्मभीरु मुस्लिम आज भी पानी की जगह पोंछने के लिए मिट्टी के टुकड़े और जुम्मे के जुम्मे गुस्ल की अरबी परंपरा को मानते हों। तीखे इतर के प्रयोगों के बावजूद इनमें अधिकांश से उठती तीखी भभक से तो ऐसा ही लगता है।

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