तब प्रिंट का समय था। पर जल्दी ही नेट का समय आ गया। उस में भी यशवंत सिंह भड़ास4मीडिया ले कर उपस्थित हुए। 2001 में अपने-अपने युद्ध छपा था। 9 साल बाद 2010 में भड़ास पर अपने-अपने युद्ध का धारावाहिक प्रकाशन शुरू किया यशवंत ने। जैसे आग लग गई। वह कहते हैं न कि आत्मा को आंच मिल गई। इतना तो तमाम संस्करणों के बावजूद प्रिंट में भी नहीं पढ़ा गया यह अपने-अपने युद्ध। प्रिंट के मुक़ाबले नेट की ताक़त तब पता चली। प्रिंट और नेट में ज़मीन आसमान के फ़र्क का पता चला। पता ही नहीं चला बल्कि सीधा संवाद भी शुरू हो गया। जिस को अच्छा लगे , अच्छा कहे , जिस को बुरा लगे बुरा कहे। ज़्यादातर युवा पाठक। बेलाग , बेलौस और बेअंदाज़ भी। तरह-तरह के सवाल और प्रतिवाद करते। सवालों में घेरते और घिरते लोग। शुद्ध रूप से वाद , विवाद और संवाद की स्थिति। आरोप-प्रत्यारोप की झड़ी। स्वयंभू लोग नदारद और स्वाभाविक पाठक उपस्थित। अश्लीलता का आरोप भाई लोगों ने यहां भी उठाया और उठवाया। ख़ास कर एक चैनल की पत्रकार सविता भारती ने तो जैसे हंगामा ही बरपा कर दिया। क्रोध में नहाई हुई उन की प्रतिक्रिया 8 साल बाद भी नहीं भूला हूं। पर अपनी प्रतिक्रिया में कुछ ऐसी बातें कह दीं और कुछ पोर्न साइटों का ज़िक्र कर दिया उन्हों ने तो वह खुद अपने ही आरोपों में घिर गईं। लोगों ने उन को जैसे चहेट लिया। किसिम-किसिम के लोग , किसिम-किसिम की प्रतिक्रियाएं। इन तमाम-तमाम लोगों के बीच अरविंद कुमार ने एक सुलझी हुई बात लिखी तो कुछ लोगों की मति सुधरी। वाद-विवाद-संवाद फिर भी जारी रहा। अरविंद कुमार ने लिखा :
मैं ने अपने अपने युद्ध कई बार पढ़ा है। मैं ने दिल्ली के नाट्य मंडल, नाट्य विद्यालय के काफ़ी नज़दीक रहा हूँ। साथ ही पत्रकारिता में लगभग साठ साल गुज़ारे हैं। फ़िल्मी अश्लीलता और अमानवीय क्रूरता के विरुद्ध 14 साल के माधुरी संपादन काल में शक्तिशाली संघर्ष किया है।
अपने-अपने युद्ध पहली बार पढ़ो तो ऊपरी तौर पर अश्लील लगता है। हमारे विक्टोरियन मानसिकता वाले समाज में लोग लेडी चैटरलीज़ लवर को नंगी अश्लीलता ही समझते रहे हैं। पर आम जीवन का यौन व्यवहार कितना गोपनीय अश्लील है यह कोई दिखाता ही नहीं। लोहिया जी ने किसी पुस्तक में सेठानियोँ और रसोइए महाराजों का ज़िक्र अश्लील नहीं है। साठ सत्तर साल पहले मेरठ में हमारे समाज में रईसोँ के रागरंग बड़ी आसानी से स्वीकार किए जाते थे, समलैंगिकता जीवन का अविभाज्य और खुला अंग थी। उर्दू में तो शायरी भी होती थी— उसी अत्तार के लौंडे से दवा लेते हैं जिस ने दर्द दिया है। पठानों के समलैंगिक व्यवहार के किस्से जोक्स की तरह सुनाए जाते थे। लिखित साहित्य अब पूरी तरह विक्टोरियन हो गया है, पर मौखिक साहि्त्य… वाह क्या बात है।