Home विषयइतिहास यशवंत सिंह भड़ास4मीडिया

तब प्रिंट का समय था। पर जल्दी ही नेट का समय आ गया। उस में भी यशवंत सिंह भड़ास4मीडिया ले कर उपस्थित हुए। 2001 में अपने-अपने युद्ध छपा था। 9 साल बाद 2010 में भड़ास पर अपने-अपने युद्ध का धारावाहिक प्रकाशन शुरू किया यशवंत ने। जैसे आग लग गई। वह कहते हैं न कि आत्मा को आंच मिल गई। इतना तो तमाम संस्करणों के बावजूद प्रिंट में भी नहीं पढ़ा गया यह अपने-अपने युद्ध। प्रिंट के मुक़ाबले नेट की ताक़त तब पता चली। प्रिंट और नेट में ज़मीन आसमान के फ़र्क का पता चला। पता ही नहीं चला बल्कि सीधा संवाद भी शुरू हो गया। जिस को अच्छा लगे , अच्छा कहे , जिस को बुरा लगे बुरा कहे। ज़्यादातर युवा पाठक। बेलाग , बेलौस और बेअंदाज़ भी। तरह-तरह के सवाल और प्रतिवाद करते। सवालों में घेरते और घिरते लोग। शुद्ध रूप से वाद , विवाद और संवाद की स्थिति। आरोप-प्रत्यारोप की झड़ी। स्वयंभू लोग नदारद और स्वाभाविक पाठक उपस्थित। अश्लीलता का आरोप भाई लोगों ने यहां भी उठाया और उठवाया। ख़ास कर एक चैनल की पत्रकार सविता भारती ने तो जैसे हंगामा ही बरपा कर दिया। क्रोध में नहाई हुई उन की प्रतिक्रिया 8 साल बाद भी नहीं भूला हूं। पर अपनी प्रतिक्रिया में कुछ ऐसी बातें कह दीं और कुछ पोर्न साइटों का ज़िक्र कर दिया उन्हों ने तो वह खुद अपने ही आरोपों में घिर गईं। लोगों ने उन को जैसे चहेट लिया। किसिम-किसिम के लोग , किसिम-किसिम की प्रतिक्रियाएं। इन तमाम-तमाम लोगों के बीच अरविंद कुमार ने एक सुलझी हुई बात लिखी तो कुछ लोगों की मति सुधरी। वाद-विवाद-संवाद फिर भी जारी रहा। अरविंद कुमार ने लिखा :

मैं ने अपने अपने युद्ध कई बार पढ़ा है। मैं ने दिल्ली के नाट्य मंडल, नाट्य विद्यालय के काफ़ी नज़दीक रहा हूँ। साथ ही पत्रकारिता में लगभग साठ साल गुज़ारे हैं। फ़िल्मी अश्लीलता और अमानवीय क्रूरता के विरुद्ध 14 साल के माधुरी संपादन काल में शक्तिशाली संघर्ष किया है।

 

अपने-अपने युद्ध पहली बार पढ़ो तो ऊपरी तौर पर अश्लील लगता है। हमारे विक्टोरियन मानसिकता वाले समाज में लोग लेडी चैटरलीज़ लवर को नंगी अश्लीलता ही समझते रहे हैं। पर आम जीवन का यौन व्यवहार कितना गोपनीय अश्लील है यह कोई दिखाता ही नहीं। लोहिया जी ने किसी पुस्तक में सेठानियोँ और रसोइए महाराजों का ज़िक्र अश्लील नहीं है। साठ सत्तर साल पहले मेरठ में हमारे समाज में रईसोँ के रागरंग बड़ी आसानी से स्वीकार किए जाते थे, समलैंगिकता जीवन का अविभाज्य और खुला अंग थी। उर्दू में तो शायरी भी होती थी— उसी अत्तार के लौंडे से दवा लेते हैं जिस ने दर्द दिया है। पठानों के समलैंगिक व्यवहार के किस्से जोक्स की तरह सुनाए जाते थे। लिखित साहित्य अब पूरी तरह विक्टोरियन हो गया है, पर मौखिक साहि्त्य… वाह क्या बात है।

 

इटली की ब्रौकिया टेल्स जैसे या तोता मैना, अलिफ़लैला, कथासागर जैसे किस्से खुलआम सुन सुनाए जाते थे। हम में से कई ने ऐसे चुटकुले सुने और सुनाए होंगे। उन की उम्र होती है। पीढ़ी दर पीढ़ी वही किस्से दोहराए जाते हैं। जिन बच्चों को वह किताब पढ़ने को दी जाने पर शर्म आने की बात की जा रही है वही बच्चे ऐसी किताबें जो पूरी तरह अश्लील हैं या ऐसे किस्से पढ़ सुन रहे होंगे। ख़ुशवंत सिंह साहित्यकार हैं – दयानंद पांडेय अश्लील है — वाह !
अरविंद कुमार
2 फ़रवरी , 2010 भड़ास4मीडिया पर चल रहे एक विमर्श में
जब कि पत्रकार आवेश तिवारी ने लिखा :
हिंदुस्तान की मीडिया की एक बड़ी खासियत है ,वो खबर हो चाहें खबरों से परे कोई बात ,उसे अपने तरीके से देखना चाहती है ,वो उसे उस ढंग से स्वीकार नहीं कर पाती, जैसी वो मूलतः है । दयानंद पाण्डेय के उपन्यास अपने-अपने युद्ध के आलोचकों के साथ भी यही परेशानी है , दयानंद पाण्डेय ने उपन्यास में वही लिखा है जिस में आज का रंगकर्मी और अखबारनवीस जीता है । शब्दों के पीछे छिपे दृश्यों और पात्रों के चरित्र के प्रस्तुतीकरण के लिए ये बेहद ही आवश्यक था । जो कुछ भी लिखा गया है वो सच के बेहद आस-पास है या कहें सच इस से भी बढ़ कर है , आज जब मीडिया में सेक्स पर ले कर मीडिया के भीतर ही जोरदार बहस चल रही है “अपने – अपने युद्ध “ किसी हलफनामे की तरह है । सीधे साधे शब्दों में कहा जाए तो इस उपन्यास की आलोचना करने का अधिकार उन मीडियाकर्मियों को ही है जिन्होंने जिंदगी के तमाम झंझावातों के बावजूद ख़बरों को जीने की कोशिश की है। एक पल को कल्पना करिए उस समय कि जब दयानंद पाण्डेय ने ये उपन्यास लिखा होगा , जब उन्हों ने नीला और संजय के सेक्स संबंधों और फिर संजय द्वारा गर्भ गिराने की बात को लिखा होगा , ये किसी गैर पत्रकार ने लिखा होता तो शायद कोई आश्चर्य की बात नहीं होती , लेकिन हिंदी पत्रकारिता के एक बेहद सशक्त हस्ताक्षर के द्वारा ये लिखना न सिर्फ असीम साहस की चीज है बल्कि इस के लिए खुद को कटघरे में रखने का भी माद्दा होना चाहिए । मैं नहीं समझता इस उपन्यास के आलोचकों के पास या फिर भड़ास पर इस उपन्यास की वेबकास्टिंग का विरोध करने वालों के पास खुद का ये पूरी मीडिया जगत के इस कदर आत्म मूल्यांकन का साहस होगा।
वर्तमान समय में सेक्स से जुडी वर्जनाओं के टूटने की सब से बड़ी वजह मीडिया खुद है। मीडिया के भीतर परस्त्री संबंध , विवाहेतर संबंध और काम के बदले अनाज योजना की तरह सेक्स के बदले काम जैसी चीजें हमेशा से मौजूद रही हैं । बेहद गुपचुप तरीके से इन चीजों को मीडिया ने शेष समाज में भी स्थापित कर दिया । अब कुछ भी अपवर्जित नहीं है। अगर अपने-अपने युद्ध पढ़ें तो इन वर्जनाओं के टूटने की कहानी अपने आप पता चल जाती है । अगर इस उपन्यास में सेक्स के लाइव दृश्य शामिल नहीं किए जाते तो शायद ये कदापि संभव नहीं हो पाता । लीना और संजय का मुख मैथुन , लीना का संजय पर टूट पड़ना और बिना दरवाजा बंद किए सेक्स करना और फिर चेतना का प्रकरण पोर्नोग्राफी नहीं है । ये दृश्य बताते हैं कि आज की पत्रकारिता सिर्फ खबर लिखने तक ही नहीं रही अगर ईमानदारी से कहा जाए तो एक अखबारनवीस ख़बरों को ही अपने अस्तित्व का प्रतीक नहीं मानता । उस के लिए ये उन्मुक्त सेक्स , देर रात तक चलने वाली पार्टीज और कई लड़कियों या महिलाओं से रिश्ते भी उस के अपने अस्तित्व का हिस्सा है ।
अगर हमें विरोध दर्ज कराना ही है तो उपन्यास पर नहीं उपन्यास के पात्रों पर कराना चाहिए , जो हमारे आपने बीच बैठे हुए हैं। न सिर्फ बैठे हुए हैं सिर के ऊपर विराजमान हैं । हमें ये स्वीकार करने में तनिक भी ऐतराज नहीं होना चाहिए । दयानंद पांडेय ने एक उपन्यासकार के रूप में प्रत्येक पात्र के साथ पूरी इमानदारी बरती है । तब हम ईमानदारी से इस के कथानक को स्वीकार क्यों नहीं कर लेते । इस उपन्यास की तेरहवीं किस्त में जब रीना संजय को बोलती है, ‘ इसमें फेड अप होने की क्या बात है। हकीकत यही है कि जर्नलिस्ट पोलिटिसियंस के तलवे चाटकर ही कायदे के जर्नलिस्ट बन पाते हैं।”
”माइंड योर लैंग्वेज रीना। माइंड योर लैंग्वेज!” संजय को रीना की ये बातें बुरी लगती हैं मगर फिर भी वो उस वक़्त सेक्स में लिप्त रहता हैं। इसी किस्त में पता चलता है कि उसे अखबार मालिकों के खबर बेचू चरित्र पर आपति है लेकिन वो खुद के गिरेबान में झांकने से पहले पलायन कर जाता है । उपन्यास के नायक का ये चरित्र चित्रण अपने आप में अनूठा है ,ये सिर्फ एक कहानी नहीं है, मीडिया और सेक्स की परिभाषा को समझाता हुआ बेहद अनूठा मनोवैज्ञानिक विश्लेषण भी है ।
मीडिया में कई चीजें ऐसी हैं जिन पर हमें अपनी आंखें बंद कर लेनी चाहिए और अपनी आपत्ति जतानी चाहिए । मगर हम अपने होंठ सी कर रखते हैं । अगर अरुंधती राय , शोभा डे सेक्स से जुड़ा कुछ लिखती हैं तो हम उन की समीक्षाएं लिखते हैं । लेकिन जब दयानंद पांडेय जैसा कोई व्यक्ति जिस ने तमाम प्रलोभनों को ठुकरा कर एक अघोर पत्रकार बनना समीचीन समझ , कुछ लिखता है तो हम उसे अश्लीलता और फूहड़पन के तराजू में तौलने लगते हैं । मैं कितने ही पत्रकार मित्रों को जानता हूं जो दिन रात पोर्न साईट खोल कर बैठे रहते हैं । उन को भी जानता हूं , जो अपनी सहकर्मी महिलाओं के सामने और पीठ पीछे बेहद अश्लील टिप्पणियां करते हैं । उन के लिए ये उपन्यास शीशा है । यशवंत का इस उपन्यास को वेबसाईट पर प्रस्तुत करना और कड़वे सच को स्वीकार करना नि:स्संदेह बेहद साहस भरा है ।हमें अपना नजरिया तो बदलना होगा ही , खुद को भी पानी में उतरने का सलीका सीखना होगा ।
आवेश तिवारी
सोनभद्र
2 फ़रवरी , 2010 भड़ास4मीडिया पर चल रहे एक विमर्श में
भड़ास वाले यशवंत सिंह बताते हैं कि भड़ास पर लोग आज भी मेरे उपन्यास खूब पढ़ते हैं। खास कर अपने-अपने युद्ध। अपने-अपने युद्ध के बाद यशवंत सिंह ने मेरे और भी चार उपन्यास धारावाहिक भड़ास पर छापे। कहानियां भी। इन पर भी चर्चा हुई भड़ास पर। लेकिन अपने-अपने युद्ध जैसी तो नहीं ही हुई। 2012 में मेरा ब्लाग सरोकारनामा भी बना। सरोकारनामा पर मेरा लिखा लगभग अस्सी प्रतिशत उपस्थित है। लगभग हर विधा में। 10 उपन्यास भी हैं मेरे। लेकिन उपन्यासों में सरोकारनामा पर अपने-अपने युद्ध आज भी सब से ज़्यादा पढ़ा जाता है।
अपने-अपने युद्ध की एक कैफियत यह भी है कि अगर यह उपन्यास तब नहीं लिखा होता तो शायद आत्महत्या कर लिए होता। यह उपन्यास मेरी जिंदगी में तब सेफ्टी वाल्व बन कर उपस्थित हुआ था। मैं कहता ही रहता हूं कि लिखना मुझे मुक्ति देता है। तो अपने-अपने युद्ध लिख कर मन ने अपने को , अपने तनाव को मुक्ति दिया था मैं ने । नहीं उन दिनों तो स्थिति यहां तक आ गई थी कि भगवान से भी भरोसा उठ गया था। कई बार मन हुआ था कि घर में रखी भगवान की मूर्तियां और फ़ोटो आदि भी उठा कर फेंक दूं।
जब कंटेम्प्ट का मुकदमा लड़ रहा था तब एक दिन घर पर फोन आया कि मैं डी एस पी एस पी एन राय शर्मा बोल रहा हूं। आप से मिलना चाहता हूं। मैं ने पूछा , ‘ आप के घर आ जाऊं ?’ वह बोले , ‘ नहीं। न आप मेरे घर आएंगे , न मैं आप के घर। हम लोग काफी हाऊस में मिलेंगे। ‘
‘ सब ठीक तो है न ?’ मैं ने पूछा।
‘ हां , सब ठीक है। बस मिलना था , आप से बतियाना था। ‘ फिर उन्हों ने समय तय कर दिया कि , ‘ इसी समय मिलते हैं। ‘
मैं गया तय समय पर काफी हाऊस। शर्मा जी पहले ही से उपस्थित थे। उन के हाथ में अपने-अपने युद्ध उपन्यास था। पायनियर से मुकदमे में मेरी वकील रहीं विश्वमोहिनी शर्मा के पिता शर्मा जी की यातना यह थी कि वह डी एस पी नियुक्त हुए थे , डी एस पी ही रिटायर हो गए। यह उन के ईमानदार होने की कीमत थी। भ्रष्ट पुलिस विभाग में रह कर वह हर गलत कार्य का विरोध करते रहे। और भ्रष्ट पुलिस अफ़सर उलटे शर्मा जी के खिलाफ विभागीय जांच करवाते रहते। एक जांच खत्म होती , दूसरी शुरू हो जाती। किसी जांच में वह दोषी नहीं पाए जाते लेकिन दिक्कत यह थी कि जांच लंबित रहने तक कोई प्रमोशन नहीं मिलता। तो ज़िंदगी भर जांच झेलते हुए शर्मा जी बतौर डी एस पी ही रिटायर होने के लिए अभिशप्त हो गए। लेकिन हर प्रमोशन के लिए वह मुकदमा ज़रूर दायर करते रहे। विभाग में जांच और कचहरी में मुकदमा लड़ते हुए उन का जीवन बीता। शर्मा जी के पिता भी डिप्टी कलक्टर से रिटायर हुए थे। बेटे की ईमानदारी और जुझारूपन पर उन्हें बहुत नाज़ था। लगातार बेटे को हौसला देते रहते थे। शर्मा जी के मुकदमे इतने बढ़ते गए कि अपना मुकदमा लड़ने के लिए अपनी एक बेटी विश्वमोहनी राय शर्मा को वकील बनवा दिया। विश्वमोहिनी जी उन का मुकदमा लड़ ही रही थीं , पायनियर प्रबंधन से जब मेरा विवाद हुआ तो मेरा भी मुकदमा लड़ना शुरू कर दिया। मैं तब बेरोजगार था , सड़क पर था। तो विश्वमोहनी जी मुझ से कभी कोई फीस नहीं लेती थीं। कभी-कभार टाइपिंग , स्टैम्प वगैरह के खर्च की बात और थी। किसी एक्टिविस्ट की तरह मेरा मुकदमा लड़ा विश्वमोहिनी जी ने। हाई कोर्ट के गलियारों में जब विश्वमोहिनी जी को चलते देखता तो सोचता कि अगर कोई फ़िल्मकार विश्वमोहिनी जी पर फिल्म बनाए तो इन की भूमिका के लिए शबाना आज़मी ही ठीक रहेंगी। जाने क्यों ऐसा बार-बार सोचता। विश्वमोहिनी जी के सहयोगी विमल जी भी मेरे मुकदमे में पूरी दिलचस्पी लेते। उन के भाई आशुतोष राय शर्मा जी भी। ऐसे जैसे पूरा परिवार ही मेरा मुकदमा लड़ रहा था। हर कोई मुझे सांत्वना देता रहता।
मेरा मुकदमा लड़ते-लड़ते विश्वमोहिनी जी ने मुझे अपने परिवार का सदस्य जैसा बना लिया तो घर के सभी सदस्यों से परिचय भी हो गया। उन के पिता शर्मा जी से भी। अकसर उन से बात होती। लेकिन उस दिन वह अपने-अपने युद्ध पढ़ कर काफी हाऊस में बैठे थे। मुझ से बतियाने के लिए। हालां कि उन का संघर्ष अपने-अपने युद्ध के संजय से कहीं बड़ा था पर वह संजय के संघर्ष से बहुत प्रभावित थे। अपने-अपने युद्ध को उन्हों ने कई बार पढ़ा था और बड़े मन से पढ़ा था। एक-एक फ्रेम पर वह विस्तार से बात करते रहे। और उसे अपने संघर्ष से जोड़ते रहे। कहने लगे कि , ‘ कई बार तो आत्महत्या करने की भी इच्छा हुई , आप के संजय को भी हुई क्या ?
ऐसा तो नहीं हुआ। पर हां , भगवान आदि से भरोसा उठ गया था। ‘
‘ हां , आप के संजय के पास तो तमाम नायिकाएं थीं। अपना तनाव दूर कर लेता था। गम गलत कर लेता था। लेकिन मैं कहां जाऊं ? ‘ कह कर वह रुआंसे हो गए।
थोड़ी देर हम दोनों चुप रहे। फिर घर जाने के लिए विदा ली।
इस के बाद अकसर उन के घर पर मुलाकात होती। फोन पर बात होती। अचानक एक सुबह उन का फोन आया , ‘ मैं रिटायर्ड डी आई जी एस पी एन राय शर्मा बोल रहा हूं। ‘ मैं नींद में ही था फिर भी चैतन्य हो गया और पूछा , ‘ डी एस पी से अचानक डी आई जी ! कुछ समझा नहीं ?’
‘ मैं मुकदमा जीत गया हूं। ‘ वह चहकते हुए बोले , ‘ अब हाई कोर्ट ने मुझे डी आई जी बना दिया है। ‘
‘ पर अब डी आई जी बन जाने से क्या फ़ायदा ?’
‘ बहुत से फ़ायदे हैं। ‘ वह बोले , ‘ एक तो मैं अब अपने नाम के आगे रिटायर्ड डी आई जी लिख सकता हूं , बोल सकता हूं , बता सकता हूं। तो इस तरह मुझे अपनी प्रतिष्ठा मिल गई। दूसरे , अब बकाया वेतन का पूरा एरियर मिलेगा। तीसरे , पेंशन भी अब बढ़ कर मिलेगी। ‘ वह चहके और बोले , ‘ इस से बड़ी बात अब मैं विजेता हूं। हारा हुआ नहीं। प्रतिष्ठित मौत मिलेगी। चैन से मर सकता हूं। दिल पर कोई बोझ नहीं है अब। ‘ फिर उन्हों ने सांत्वना दी मुझे कि , ‘ घबराईए नहीं , आप की भी जीत होगी। ‘
अलग बात है कि मेरी जीत कभी नहीं हुई। क्यों कि पायनियर अख़बार और कंपनी ही भस्म हो गई। शायद मेरी आह लग गई। अकसर मैं एक शेर सुनाता रहता हूं :
मैं वो आशिक नहीं जो बैठ के चुपके से गम खाए
यहां तो जो सताए या आली बरबाद हो जाए।
तो पायनियर और स्वतंत्र भारत बरबाद हो गए। एक पूरा संस्थान समाप्त हो गया। उस वकील पी के खरे की भी बहुत बुरी मौत हुई। तमाम क़ुरबानी और समझौते के बावजूद बुलबुल गोडियाल भी जस्टिस नहीं बन पाईं। क्यों कि इधर पैनल में उन का नाम जाता तो दूसरी तरफ बुलबुल गोडियाल के शुभचिंतक लोग अपने-अपने युद्ध का वह आपरेटिव पोर्शन भी भेज देते , जिस में उन का चरित्र चित्रण था और उन का नाम लटक जाता। गौरतलब है कि बुलबुल ने वकालत की पैतरेबाजी में पायनियर से मेरा जीता हुआ मुकदमा हार में तब्दील कर दिया था। हुआ यह कि हाई कोर्ट का आर्डर कंप्लायंस न होने पर मैं ने पायनियर मैनेजमेंट के खिलाफ कंटेम्पट आफ कोर्ट दायर किया ।
एक कमीने वकील थे पी के खरे । पायनियर के वकील थे । काला कोट पहने अपने काले और कमीने चेहरे पर बड़ा सा लाल टीका लगाते थे । कहते फिरते थे कि मैं चलती-फिरती कोर्ट हूं । लेकिन सिर्फ तारीख लेने के मास्टर थे । कभी बीमारी के बहाने , कभी पार्ट हर्ड के बहाने , कभी इस बहाने , कभी उस बहाने सिर्फ और सिर्फ तारीख लेते थे । बाहर बरामदे में कुत्तों की तरह गश्त करते रहते थे और उन का कोई जूनियर बकरी की तरह मिमियाते हुआ कोर्ट में कोई बहाना लिए खड़ा हो जाता , तारीख मिल जाती । एक बार इलाहाबाद से जस्टिस पालोक बासु आए । सुनता था कि बहुत सख्त जज हैं । वह लगातार तीन दिन तारीख पर तारीख देते रहे । अंत में एक दिन पी के खरे के जूनियर पर वह भड़के , आप के सीनियर बहुत बिजी रहते हैं ? जूनियर मिमियाया , यस मी लार्ड ! तो पालोक बसु ने भड़कते हुए एक दिन बाद की तारीख़ देते हुए कहा कि शार्प 10-15 ए एम ऐज केस नंबर वन लगा रहा हूं । अपने सीनियर से कहिएगा कि फ्री रहेंगे और आ जाएंगे । लोगों ने , तमाम वकीलों ने मुझे बधाई दी और कहा कि कमीने खरे की नौटंकी अब खत्म । परसों तक आप का कम्प्लायन्स हो जाएगा ।
सचमुच उस दिन पी के खरे अपने काले चेहरे पर कमीनापन पोते हुए , लाल टीका लगाए कोर्ट में उपस्थित दिखे । पूरे ठाट में थे । ज्यों ऐज केस नंबर वन पर मेरा केस टेक अप हुआ , बुलबुल सी बोलने वाली सुंदर देहयष्टि वाली , बड़े-बड़े वक्ष वाली एक वकील साहिबा खड़ी हो गईं , वकालतनामा लिए कि अपोजिट पार्टी फला की तरफ से मैं केस लडूंगी । मुझे केस समझने के लिए , समय दिया जाए । पालोक बसु उन्हें समय देते हुए नेक्स्ट केस की सुनवाई पर आ गए । मैं हकबक रह गया । पता चला बुलबुल सी आवाज़ वाली मोहतरमा वकील बुलबुल गोडियाल की देह गायकी में पालोक बसु सेट हो चुके थे । मेरा केस बाकायदा जयहिंद हो चुका था । बाद में यह पूरा वाकया मैं ने अपने उपन्यास अपने-अपने युद्ध में दर्ज किया । इस से हुआ यह कि बुलबुल सी आवाज़ वाली मोहतरमा बुलबुल गोडियाल जस्टिस होने से वंचित हो गईं । मोहतरमा सारी कलाओं से संपन्न थीं ही , रसूख वाली भी थीं । इन के पिता कामरेड रॉबिन मित्रा , कामरेड के नाम पर कलंक भले थे , राजनीतिक सेटिंग में मास्टर थे। सो जस्टिस के लिए बुलबुल का नाम तीन-तीन बार पैनल में गया । लेकिन उन का नाम इधर पैनल में जाता था , उधर उन के शुभचिंतक लोग मेरे उपन्यास अपने-अपने युद्ध के वह पन्ने जिस में उन का दिलचस्प विवरण था , फ़ोटोकापी कर राष्ट्रपति भवन से लगायत गृह मंत्रालय , कानून मंत्रालय और सुप्रीम कोर्ट भेज देते । हर बार वह फंस गईं और जस्टिस होने से वंचित हो गईं ।
संयोग यह कि जिस नए अख़बार में बाद में मैं गया , वहां वह पहले ही से पैनल में थीं । मेरे खिलाफ कंटेम्प्ट का मुकदमा करवाने के बाद वहां भी मेरी नौकरी खाने की गरज से मैनेजमेंट में मेरी ज़बरदस्त शिकायत कर बैठीं । मैं ने उन्हें संक्षिप्त सा संदेश भिजवा दिया कि मुझे तो फिर कहीं नौकरी मिल जाएगी पर वह अभी एक छोटे से हवा के झोंके में फंसी हैं , लेकिन अगर उन के पूरे जीवन वृत्तांत का विवरण किसी नए उपन्यास में लिख दिया तो फिर उन का क्या होगा , एक बार सोच लें। सचमुच उन्हों ने सोच लिया। और खामोश हो गईं। मैं ने उस संस्थान में लंबे समय तक नौकरी की। वहीँ से रिटायर भी हुआ।
लेकिन मैं ने स्वतंत्र भारत और पायनियर की ज़मीन पर दो उपन्यास ज़रूर लिखे। एक अपने-अपने युद्ध और दूसरा , हारमोनियम के हज़ार टुकड़े। यह दोनों उपन्यास लिख कर जो संतोष और सुख मिला वह अनिर्वचनीय है। अब अपने-अपने युद्ध पेपर बैक में आप के हाथ में फिर से है। इस लिए भी कि युद्ध कभी किसी का समाप्त नहीं होता। ज़िंदगी अपने आप में एक युद्ध ही तो है। अपने-अपने युद्ध का यह पेपरबैक संस्करण अब हमारे हाथ में है। मतलब नई बोतल में , पुरानी शराब। पुरानी शराब की तासीर मयकश खूब जानते हैं। मतलब पाठक भी। अपने-अपने युद्ध सिर्फ़ उपन्यास नहीं है , शराब भी है। जिस का नशा कभी नहीं उतरता। इस पुरानी शराब को नई बोतल में परोसने के लिए अमन प्रकाशन , कानपुर के अरविंद वाजपेयी का बहुत आभार।
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