पहली बार 1996-97 में ‘चिंकी’ शब्द सुना था। वह भी JNU जैसी तथाकथित प्रगतिशील यूनिवर्सिटी में। वह भी, प्रगतिशीलता की *%& में घुस जानेवाले वामपंथियों के मुंह से, जो कांग्रेस का &*$ हुआ चाटने को अपनी जीभ लपलपाते रहते थे।
फिर, पता चला कि जो शब्द दरअसल चीनियों को अपमानित करने को निकाला गया था, उसे हम खुद अपने उत्तर-पूर्व के साथियों या भाई-बहनों को अपमानित करने को इस्तेमाल करते हैं। कमाल की बात है कि घोर रूढ़िवादी, रिग्रेसिव यानी पूर्वगामी संगठन RSS के लोग हमेशा ही “उत्तर-पूर्व के भगिनी और भाई” का प्रयोग करते थे। भेद यहां भी था, किंतु वह अपमानजनक और विषदायी नहीं था।
उसी दरम्यान एक दोस्त बना-बिजेन सिंह। वह मिजोरम का था- अल्पसंख्यक हिंदू, लेकिन अद्भुत धर्मनिष्ठ। मैं उस वक्त तक हालांकि उतना भ्रष्ट नहीं हुआ था, जितना अब हूं, लेकिन उसकी धर्मनिष्ठा अद्भुत थी। रॉक एंड रोल का भयंकर ज्ञाता होते हुए भी वह हरेक दिन मंदिर जाता था, तिलक लगाता था और शिखा भी रखता था। वह ये सब इसलिए करता था, क्योंकि उसके अस्तित्व पर संकट था। इसलिए, क्योंकि वह हिंदू था।
एक मुसलमान दोस्त था मेरा, जिसका रूम पार्टनर एक नगा होता था। वह खुद को नगा और हम लोगों को इंडियन कहता था। जेएनयू में, उस समय शायद उन लोगों को तीन या चार हजार रुपए मिलते थे, केवल पढ़ाई करने के। हरेक नॉर्थ-ईस्ट का बंदा बेहद फैशनेबल होता था, गाने-बजाने, पीने-खाने और मस्ती का भी।
बहुतेरी चीजें खटकती थीं, बहुत बातें चुभती थीं, लेकिन एक बात तय थी। दुर्घटनावश हिंदू हमारे प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू और उनकी जारज संतान वामपंथियों के लिए घृणा उत्तरोत्तर बढ़ती ही गयी। ये सारा कुछ नेहरू नाम के उस अभागे अध-ब्रिटिश का किया धरा था, जो पूरी जिंदगी भारत को खोजता रहा और इंडिया के नाम उसने क्या-क्या न कर दिया।
ये नेहरू ही था, जिसने उत्तर-पूर्व में साधुओं के जाने पर रोक लगाई थी, जिसने परमिट राज लागू किया, जिसके भ्रष्ट मेनन जैसे कारिंदो ने पूरे उत्तर-पूर्व को तबाह कर दिया।
उत्तर-पूर्व आज भी वहीं बचा है, जहां गलती से एकाध फीसदी हिंदू बचे रह गए हैं। जहां धर्मांतरित ईसाई हैं, वहां सबसे अधिक समस्या है।
(यूं ही अनेक नाम की फिल्म देखते हुए याद आया। अनुभव सिन्हा नामक वामपंथी की फिल्म है, तो अधिक की उम्मीद मत रखिए, उसने अपने वैचारिक पिताओं की ही परंपरा को आगे बढ़ाया है)