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मूर्तियों_में_भगवत्ता

देवेन्द्र सिकरवार

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मूर्ति मूर्तिकार द्वारा अनगढ़ पत्थर में एक आकृति का अनावरण है,
जैसे, किसी ऋषि द्वारा ऋचा का दर्शन,
जैसे, असत से सत का प्रकटीकरण,
जैसे, प्रेम में डूबे मन में भक्ति का जन्म,
परंतु, यह इससे भी अधिक है।
यह पिंड से ब्रह्मांड का उद्भव है।
यह जड़ में चेतना का प्रकटीकरण है।
पश्चिमी विचार भले आज चेतना को पहचान पाया हो, लेकिन हिंदुओं ने तो जड़-जङ्गम, सभी में चेतना ही नहीं, बल्कि परम चेतना के दर्शन किये और इसीलिये उन्होंने थाली में कटोरी रखकर भोजन करने तक का निषेध कर दिया कि कटोरी के अणुओं में थाली की विशालता के कारण, अपनी लघुता के प्रति हीन भावना का जन्म होगा और भोक्ता में उसका संचरण।
द्वैत में अद्वैत और अद्वैत में द्वैत का, इससे अधिक सुंदर उदाहरण मिल सकता है,भला?
पता नहीं क्यों; स्वामी दयानंद सरस्वती जैसे महर्षि इस सत्य से दूर भागते रहे,जबकि भारत के ऋषि ही नहीं मूर्तिकार भी, इससे अवगत थे।
उन्हें आमंत्रित किया जाता था, देवविग्रह के प्राकट्य के लिए और वे आकर कुनबे सहित बैठ जाते थे; यज्ञकुंड के समक्ष ध्यान लगाकर।
एक दिन या सप्ताह या मास या छः मास उनकी साधना चलती रहती थी और मजाल है कि निर्माता कह दे- ‘बैठे-बैठे कब तक खिलावें?’
ध्यान की गहराइयों में वे उतरते जाते थे और फिर जब ध्यान की चरम अवस्था में, कोई श्रीविग्रह उन्हें अपनी झलक दे जाता, तब उसे वे प्रकट करते थे, पाषाण खंड में।
बृहदेश्वर के नटराज हों, या सारनाथ के बुद्ध, या एलोरा के त्रिमुखी देव, ये कलाकारों के चरम ध्यान से प्रकट हुए श्रीविग्रह हैं। और, इसीलिये संसार इनके तेज से सम्मोहित है अब तक।
कहते हैं, देवगढ़ के दशावतार मंदिर में भी महाविष्णु का श्रीविग्रह था, जिसके सम्मुख जाते ही साधक ध्यान की गहराइयों में उतर जाता था।
ऐसे न जाने कितने मंदिर, कितने श्रीविग्रह थे इस देश में, जिन्हें नष्ट कर म्लेच्छ पापियों ने मानवता की मुक्ति की जो क्षति की है, उसका कोई हिसाब नहीं।
आज भी मूर्तियां बनती हैं, मंदिर बनते हैं, पर क्या कोई मूर्ति ध्यान की गहराई से प्रकट होती है?
भव्यता तो है, पर दिव्यता नहीं।
शायद, यही कारण रहा हो कि बचपन से ही खंडहर हो चुके मंदिर और उनकी मूर्तियां मुझे अधिक खींचती रही हों, अपनी ओर।
हम भूल चुके हैं कि मूर्तिपूजा का मूल मूर्ति नहीं, उस मूर्ति में भगवत्ता का अवतरण था।
सुदूर केदारनाथ तक प्रदर्शन का युग आया है, तो ऐसे में भगवत्ता के स्थान पर पानी का सैलाब ही तो आवैगा।

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