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सरकारी उद्योग और लाभ Basic Economics -2

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पिछले पोस्ट में सरकारी उद्यमों के लाभ की बैलेंस शीट बनाने के तरीके की बात की थी. वहीं एक निजी कम्पनी कैसे निर्णय लेती है…
लंदन में हमारे घर के पास ही एक रेस्टोरेंट हुआ करता था – हार्वेस्टर. यह एक पॉपुलर फैमिली रेस्टोरेंट की चेन है, जो अपने साफ सुथरे खाने, सिंपल मेन्यू और अनलिमिटेड सलाद की सर्विस के लिए, और अपेक्षाकृत सस्ते होने के लिए जाना जाता है. वहाँ ठीकठाक भीड़ भी होती थी. पर एक दिन वह रेस्टोरेंट बन्द हो गया और वहाँ अगले महीने एक पॉश और महँगा रेस्टॉरेंट और पब खुल गया.
पल्लवी ने पूछा – रेस्टॉरेंट तो अच्छा ही चल रहा था, फिर बन्द क्यों हो गया?
मैंने कहा – एक्जैक्ट वजह तो वही जानें, पर मुझे एक साफ वजह दिखती है…उस रेस्टोरेंट के मालिक को यह जमीन बेचने में उस रेस्टोरेंट को चलाने से अधिक फायदा दिखा होगा.
क्यों भला?
तो याद करो, हार्वेस्टर अक्सर कहाँ होते हैं? वे शहर के बाहर होते हैं, जहाँ खूब खुली जगह, पार्किंग स्पेस, बच्चों के खेलने कूदने की जगह होती है. यही एक हार्वेस्टर था जो शहर के इतने अंदर था.
तो क्या हुआ होगा? जब यह रेस्टोरेंट खुला होगा तो यह जगह लंदन से बाहर रही होगी. दरअसल इसका पोस्ट कोड लंदन का है ही नहीं, सर्रे का है. पर आज लंदन फैल कर यहाँ पहुँच गया है तो यह जगह अब शहर के अंदर आ गयी है और प्रोपर्टी की कीमत कई गुना बढ़ गयी है. अब इतनी महँगी प्रोपर्टी पर एक लो बजट रेस्टोरेंट चलाने से अधिक फायदा इसे बेचकर उतना पैसा निकाल लेने और कहीं और इन्वेस्ट करने में होगा. चूँकि हार्वेस्टर मूलतः लो बजट रेस्टोरेंट के लिए जाना जाता है तो वह अपनी प्राइस लिस्ट को बढ़ा कर इसे कवर नहीं कर सकता, उसके कस्टमर उससे यह एक्सपेक्ट नहीं करते. पर नया रेस्टॉरेंट कर सकता है क्योंकि उसके कस्टमर बेस की एक्सपेक्टेशन दूसरी है.
निजी उपक्रम ऐसे चलते हैं. वे अपने संसाधनों के वैकल्पिक प्रयोगों के हानि-लाभ का आकलन करते हैं और वर्तमान लाभ की तुलना उससे करते हैं. यानि दूसरे शब्दों में वे ओपोर्चुनिटी कॉस्ट कैलक्यूलेट करते हैं. यही करके वे एक कंपीटिटिव माहौल में सर्वाइव कर सकते हैं. वहीं सरकारी उद्यम मजे में चलते रहते हैं जबतक लोटा और लंगोटा बिकने की नौबत नहीं आ जाती. जब तक सरकारी उपक्रमों का लोटा-लंगोटा नहीं बिक जाता, वे अपने आपको फायदे में ही दिखाते रहेंगे.

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