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भाई, बाकी सब छोड़ भी दीजिये तो भी समाजवाद से इतनी शिकायत तो रहेगी ही…हमारे जमाने में प्रेम का सबसे बड़ा दुश्मन कोई था तो सरकारी नौकरी RecycledPost
अगर हमारे पूर्वजों के जमाने का प्रेम भ्रूण हत्या का शिकार हो जाता था तो हमारे जमाने में वह कुपोषण और हाई इन्फेंट मोर्टेलिटी रेट से पीड़ित था.
80 के दशक का प्रेम बेचारा बड़ा निरीह जीव था. डरते डरते होता था, और 90% केस में बेचारा प्रेमी के हृदय में ही सिसक सिसक कर मर जाता था…
और कभी कभी वह प्रेमी के बेस्ट फ्रेंड तक पहुँच जाता था, जो उसे उस लड़की को अपने दिल की बात पहुँचाने के लिए प्रोत्साहित करता था. कभी कभी लड़की तक प्रेम पत्र पहुँचाने की व्यवस्था कर दी जाती थी. कभी सज्जन मित्रों में जिसकी हिंदी की हैंडराइटिंग अच्छी होती थी वे भी इसमें सहयोग करते थे, और कभी कभी प्रेम की प्यासी लड़की की हाँ भी आ जाती थी.अब दोस्त यार लड़के को
बधाई

देकर, और चने के झाड़ पर चढ़ा छोड़ कर खिसक लेते थे. एक बार सेटिंग होने के बाद आगे के संपर्क और प्रेम व्यवहार के निर्वहन की जिम्मेदारी बेचारे प्रेमी पर अकेले होती थी. वह नियत समय पर उसकी गली से गुजरता था, लड़की नियत समय पर खिड़की या बालकॉनी पर खड़ी होती थी. यह प्रक्रिया चौबीस घंटे में दो या तीन बार दुहरायी जाती थी. कभी कभी लड़की प्रेमपत्र लिख कर सड़क के किनारे फेंक देती थी और और लड़का साईकल की चेन ठीक करने के बहाने से साईकल रोक कर चिट्ठी उठाता था. पर कभी कभी हम जैसे छिछोरे ठीक टाइमिंग से भाग कर उस लड़के से पहले उस चिट्ठी को उठा लेते थे और पढ़ कर मजे लेते थे.

क्योंकि लड़के लड़की की दृष्टि में यह एक सेफ सिक्योर प्रक्रिया थी जिसका किसी को पता नहीं होता था, किसी को भनक नहीं लगती थी. पर सच तो यह है कि मोहल्ले में हर दस साल के लड़के से लेकर 55 साल की आंटी तक यह पूरी कहानी जानती थी कि कब वह लड़का उस सड़क से गुजरेगा, और कब वह लड़की बालकॉनी में आएगी.
90s आते आते बात कुछ बदल गयी थी. अब लड़के स्कूल या ट्यूशन से लौट रही लड़की को रोक कर अपने दिल की बात बताने, या बर्थडे पर दिल वाला कार्ड देने की हिम्मत जुटाने लगे थे. कभी कभी जिस लड़की पर ट्राई मारना होता उसकी बेस्ट फ्रेंड से “दोस्ती” करने और उससे अपनी सिफारिश करवाने का भी ट्रेंड सम्भव हो चला था. फिर भी अधिकांश प्रेम प्रसंग अल्पायु में ही काल कवलित हो जाते थे. तब प्रेम का सबसे बड़ा शत्रु था कैरियर.
कैरियर के नाम पर हमारे जमाने में साईकल के कैरियर के अलावा सिर्फ दो ही कैरियर थे – मेडिकल और इंजीनियरिंग; बायोलॉजी और मैथ्स. और अक्सर जो लड़के इन दोनों कैरियर में घुसने की पात्रता रखते थे, यानि पढ़ाकू की आँख होते थे वे इतने चुगद होते थे कि प्रेम व्रेम उनके बस का रोग था नहीं. पर जो लड़के इतने कॉन्फिडेंट और रेसोर्सफुल होते थे कि एक प्रेमिका मैनेज कर लेते थे, वे अक्सर समय रहते एक कैरियर मैनेज नहीं कर पाते थे. अक्सर एक रेस रहती थी कि पहले प्रेमी एक जॉब खोजता है, या लड़की का बाप उसके लिए एक जॉब वाला लड़का.
वह समाजवाद का स्वर्णयुग था. सरकार एकमात्र रेस्पेक्टेबल एम्प्लायर थी, सरकारी नौकरी एकमात्र एम्बिशन. लड़कियों में इंजीनियर लड़कों का क्रेज था, और लड़कों में इंजीनियर बनने का. मेरे शहर सिंदरी में हर लड़के, और उसके माँ बाप का सपना था बीआईटी में एडमिशन. पूरा शहर बीआईटी की तैयारी करता था, और बीआईटी में जाने वाले लड़के अपने आप को थोड़े दिन तक छोटी मोटी सेलेब्रिटी समझते थे. रियल स्मार्टनेस और कॉन्फिडेंस की कोई कदर नहीं थी. चाहे आपका हेयर स्टाइल अमिताभ वाला हो, चाहे कदकाठी और स्वैग धर्मेंद्र वाला, चाहे आप गावस्कर जैसी कवर ड्राइव खेलते हैं, चाहे करसन घावरी जैसी स्टाइल करते हों…बीआईटी में पढ़ने वाले हर मोटे कद्दू को आपपर एडवांटेज था.
मेरा एक मित्र था, मुझसे तीन साल छोटा. उसे एक लड़की से प्यार हो गया. मने सच्चा वाला. स्मार्ट और कॉन्फिडेंट था बन्दा, उसने उस लड़की की बेस्ट फ्रेंड को मिला कर लड़की को सेट भी कर लिया. चिट्ठियाँ लिखी जाने लगीं, कभी कभी प्रियदर्शिनी पार्क जाने वाली सड़क पर दोनों मिलने भी लगे. लड़की सुंदर थी, स्मार्ट थी…अब लड़का डेस्पेरेट और थोड़ा इनसिक्योर होने लगा. तो उसने लड़की के बाद उसकी माँ की सहमति सिक्योर करने की सोची.
कॉन्फिडेंस की कमी नहीं थी…एक दिन धमक गया टाइम देख कर लड़की के घर… पापा नहीं थे, सिर्फ मम्मी थी. जाकर कहा
-आंटी! मैं कल्पना का फ्रेंड हूँ. कल्पना के बारे में आपसे कुछ बात करनी है..
आंटी इम्प्रेस हुई… अंदर बुला कर बिठाया और जूस पानी पूछा. फिर पूछा, हाँ क्या बात करनी है? करो…
– आँटी; मैं कल्पना को प्यार करता हूँ, उससे शादी करना चाहता हूँ.
आँटी ने बिल्कुल सीरियसली पूछा – बेटा, अच्छी बात है…आई रेस्पेक्ट योर सेंटीमेंट्स…तुम काम क्या करते हो?
– आईएससी में पढ़ता हूँ.
– गुड; और आगे क्या करना है?
– इंजीनियरिंग करनी है, बीआईटी क्रैक करना है.
– ठीक है बेटा! बीआईटी निकाल लो, फिर आना…फिर बात करेंगे.
आँटी ना चीखी चिल्लाई, ना अंकल को फ़ोन लगाई, न किसी ने लाठी उठाई. बस, लड़की से मिलने के लिए बीआईटी की शर्त लगा दी. भाई साहब की उस साल बीआईटी की लेवल थी नहीं, पर नेक्स्ट ईयर के लिए जुट गए. उधर अगले साल लड़की बीएससी करने के लिए बीएचयू चली गयी. और जैसा कि सुंदर लड़कियों का दस्तूर होता है, वहाँ पहुँच कर उसके पर निकल आये… उसे और भी बॉयफ्रेंड्स मिलने लगे. वहाँ मम्मी नहीं थी, तो बॉयफ्रेंड के बीआईटी निकालने की शर्त भी नहीं थी. यह डिस्क्रिमिनेशन भाई साहब को बहुत नागवार गुजरा. उन्हें इस ब्रेकडाउन हुए रिलेशनशिप का बाकायदा ब्रेकअप कर लिया. अब प्रेमिका चली गयी तो बीआईटी का क्या फायदा…बन्दा एयरफोर्स में चला गया. और इस तरह से एक होनहार, कॉन्फिडेंट, जांबाज आशिक की प्रेमकहानी चकनाचूर हो गई.
वामपंथ ने सिर्फ चीन कोरिया और रूस में ही जिंदगियाँ नहीं बर्बाद की हैं. नेहरू इंदिरा के समाजवाद ने भारत में भी लाखों नवजात प्रेम कहानियों की हत्या की है.
नरसिम्हा राव ने भारत के युवाओं का कितना भला किया है, यह आज के आशिक नहीं समझेंगे. यह समझने के लिए 80s और 90s की प्रेमकथाओं का बेसिक पैटर्न समझना होगा. 90s में प्रेमी को प्रेम पाने के लिए कैरियर पर बैठ कर आने की जरूरत नहीं रह गयी. पोटेंशियल की कद्र होने लगी… बन्दा स्मार्ट है, कुछ ना कुछ कर ही लेगा. और फिर प्रेमियों की क्वालिटी भी सुधरने लगी. अब इंजीनियरिंग का कम्पटीशन निकलना काफी नहीं रह गया… स्मार्टनेस, फिटनेस, सेंस ऑफ ह्यूमर का हिसाब रखा जाने लगा. लिबरलाइजेशन से सिर्फ इंडस्ट्री और इकॉनमी में ही सुधार नहीं हुआ, होनहार प्रेमियों और खूबसूरत प्रेमिकाओं की जिंदगी भी सुधर गई. प्रेमियों को अभी से भी शशि थरूर को छोड़कर नरसिम्हा राव जी की तस्वीर दीवार पर सजा लेनी चाहिए.

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